घूमूँगा बस प्यार तुम्हारा
तन मन पर पहने
पड़े रहेंगे बंद कहीं पर
शादी के गहने
चिल्लाते हैं गाजे बाजे
चीख रहे हैं बम
जेनरेटर करता है बक बक
नाच रही है रम
गली मुहल्ले मजबूरी में
लगे शोर सहने
सब को खुश रखने की खातिर
नींद चैन त्यागे
देहरी, आँगन, छत, कमरे सब
लगातार जागे
कौन रुकेगा, दो दिन इनसे
सुख दुख की कहने
शालिग्राम जी सर पर बैठे
पैरों पड़ी महावर
दोनों ही उत्सव की शोभा
फिर क्यूँ इतना अंतर
मैं खुश हूँ, यूँ ही आँखो से
दर्द लगा बहने
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014
सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
मेरी पहली किताब ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ का विमोचन
आप सबको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मेरी पहली किताब ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ का विमोचन दिनांक 22-02-2014 को सत्य प्रकाश मिश्र सभागार, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद में हुआ। समारोह की तस्वीरें निम्नवत हैं। जिन मित्रों को ये ग़ज़ल संग्रह चाहिए वे कृपया अपना डाक का पता मुझे [email protected] पर भेज दें।
मंगलवार, 28 जनवरी 2014
मेरी पहली किताब (ग़ज़ल संग्रह) : ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर
मेरी पहली किताब, जो एक ग़ज़ल संग्रह है, अंजुमन प्रकाशन से छप चुकी है। दिनांक 22-02-2014 को इसका विमोचन सत्य प्रकाश मिश्र सभागार, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद में होना तय हुआ है। आप सभी सादर आमंत्रित हैं। कार्यक्रम का विवरण निम्नवत है।
http://www.ebay.in/itm/ws/eBayISAPI.dll?ViewItem&item=251447766737#ht_500wt_1414
अगर आप दिनांक 22-02-2014 को इलाहाबाद में ही हैं तो ये सेट विमोचन समारोह के दौरान खरीदकर रू 60/- का डाकखर्च बचा सकते हैं।
सोमवार, 27 जनवरी 2014
ग़ज़ल : ओढ़नी नोच डाली गई
बह्र
: २१२ २१२ २१२
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जब
उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी
नोच डाली गई
एक
भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी
नोच डाली गई
रीझ
उठी नाचते मोर पे
मोरनी
नोच डाली गई
खूब
उड़ी आसमाँ में पतंग
जब
कटी नोच डाली गई
देव
मानव के चिर द्वंद्व में
उर्वशी नोच डाली गई
उर्वशी नोच डाली गई
शनिवार, 25 जनवरी 2014
अनुवाद : ‘रीडिंग जेल का गाथागीत’ नामक कविता का अंश - आस्कर वाइल्ड
आज
पढ़िये आस्कर वाइल्ड की लम्बी
कविता के एक अंश का छंदानुवाद
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उसे
पड़ेगा मरना जिसने कत्ल कर दिया
अपना प्यार
फिर
भी सब ऐसा करते हैं,
सब
सुन लें यह बारंबार
कुछ
आँखें तरेर कर,
कुछ
मीठे शब्दों से करें प्रहार
कायर
करते हैं चुम्बन से और बहादुर
ले तलवार
कुछ
यौवन में कत्ल करें तो कुछ
बूढ़े होकर लें जान
काम
वासना के हाथों कुछ,
कुछ
लालच का कहना मान
जो
दयालु हैं वो खंजर से प्रेम
को करें मृत्यु प्रदान
वरना
जल्दी ठंडे होकर मुर्दे होते
बर्फ़ समान
कुछ
का क्षण भर ही चलता है कुछ का
लम्बा चलता प्यार
बेच
रहे हैं कुछ तो कुछ ने मोल लिया
जाकर बाजार
कुछ
करते हैं बिना शिकन,
कुछ
रो रोकर करते हैं वार
सब
करते हैं प्रेम कत्ल पर मौत
न आती सबके द्वार
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The
man had killed the thing he loved
And
so he had to die.
Yet
each man kills the thing he loves
By
each let this be heard,
Some
do it with a bitter look,
Some
with a flattering word,
The
coward does it with a kiss,
The
brave man with a sword!
Some
kill their love when they are young,
And
some when they are old;
Some
strangle with the hands of Lust,
Some
with the hands of Gold:
The
kindest use a knife, because
The
dead so soon grow cold.
Some
love too little, some too long,
Some
sell, and others buy;
Some
do the deed with many tears,
And
some without a sigh:
For
each man kills the thing he loves,
Yet
each man does not die.
शुक्रवार, 17 जनवरी 2014
ग़ज़ल : आँखों में जो न उतरे वो दिल तलक न पहुँचे
बह्र : २२१
२१२२ २२१ २१२२
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रस्ते में
जिस्म आया मंजिल तलक न पहुँचे
आँखों
में जो न उतरे वो दिल तलक न
पहुँचे
मंजिल
मिली जिन्हें भी मँझधार में,
उन्हीं
पर
कसता
जहान ताना,
साहिल
तलक न पहुँचे
जो
पिस गये वो चमके हाथों की बन
के मेंहदी
यूँ
तो मिटेंगे वे भी जो सिल तलक
न पहुँचे
मैं
चाहता हूँ उसकी नज़रों से कत्ल
होना
पर
बात ये जरा सी कातिल तलक न
पहुँचे
घटता
है आज गर तो कल बढ़ भी जायेगा,
पर
जानम
ये प्यार अपना बस निल तलक न
पहुँचे
गुरुवार, 2 जनवरी 2014
ग़ज़ल : इश्क जबसे वो करने लगे
बह्र : २१२
२१२ २१२
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इश्क जबसे वो
करने लगे
रोज़ घंटों
सँवरने लगे
गाल पे लाल
बत्ती हुई
और लम्हे
ठहरने लगे
दिल की सड़कों
पे बारिश हुई
जख़्म फिर से
उभरने लगे
प्यार आखिर
हमें भी हुआ
और हम भी सुधरने
लगे
इश्क रब है ये
जाना तो हम
प्यार हर शै
से करने लगे
कर्म अच्छे
किये हैं तो क्यूँ
भूत से आप
डरने लगे
रविवार, 8 दिसंबर 2013
ग़ज़ल : तेज धुन झूठ की वो बजाने लगा
बह्र : 212 212 212 212
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तेज धुन झूठ की वो बजाने
लगा
ताल पर उसकी सबको नचाने लगा
उसके चेहरे से नीयत न भाँपे कोई
इसलिये मूँछ दाढ़ी बढ़ाने लगा
सबसे कहकर मेरा धर्म खतरे में है
शेष धर्मों को भू से मिटाने लगा
वोट भूखे वतन का मिले इसलिए
गोल पत्थर को आलू बताने लगा
सुन चमत्कार को ही मिले याँ नमन
आँकड़ों
से वो जादू दिखाने लगागुरुवार, 5 दिसंबर 2013
ग़ज़ल : क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है
बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
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इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है
क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है
इसकी
जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी
धक्कों
से कब दिलों की दीवार टूटती है
हैं
लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे
हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है
हथियार
ले के आओ, औजार ले के आओ
कब
प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है
रिश्ते
बबूल बनके चुभते हैं जिंदगी भर
शर्मोहया
की जब भी दीवार टूटती है
शुक्रवार, 22 नवंबर 2013
ग़ज़ल : क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं
बह्र : २१२२ १२१२ २२
याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं
क्यूँ
वो अक्सर मशीन होते हैं
बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे
और हम हैं घड़ी न होते हैं
प्रेम के वो न
टूटते धागे
जिनके
रेशे महीन होते हैं
वन
में उगने से,
वन
में रहने से
पेड़
सब जंगली न होते हैं
उनको
जिस दिन मैं देख लेता हूँ
रात
सपने हसीन होते हैं
खट्टे मीठे घुले कई लम्हे
यूँ नयन शर्बती न होते हैं
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