बड़ा अजीब खेल है लोकतंत्र का क्रिकेट
एक गेंद के पीछे ग्यारह सौ मिलियन लोग
उछल कर, गिर कर
झपट कर, लिपट कर
पकड़नी पड़ती है गेंद
कभी जमीन से, कभी आसमान से
जिसकी किस्मत अच्छी हो उसी को मिलती है गेंद
और बल्लेबाज
उसे तो मजा आता है क्षेत्र रक्षकों को छकाने में
अगर किसी तरह सबने मिलकर
बल्लेबाज को आउट कर भी दिया
तो फिर वैसा ही नया बल्लेबाज
उसका भी लक्ष्य वही
अगर पूरी टीम आउट हो गई
तो दूसरी टीम के बल्लेबाजों का भी लक्ष्य वही
सबसे ज्यादा पैसा है इस खेल में
इसीलिए तो क्रिकेट मेरे देश का धर्म है
जिसे देखना हर भारतवासी का कर्म है
क्यूँकि पता नहीं कब
किसी को ये उपाय सूझ जाए
कि कैसे हर खिलाड़ी के हिस्से में
कम से कम एक गेंद आए
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
बुधवार, 27 अप्रैल 2011
रविवार, 24 अप्रैल 2011
कविता : चिकनी मिट्टी और रेत
चिकनी मिट्टी के नन्हें नन्हें कणों में
आपसी प्रेम और लगाव होता है
हर कण दूसरों को अपनी ओर
आकर्षित करता है
और इसी आकर्षण बल से
दूसरों से बँधा रहता है
रेत के कण आकार के अनुसार
चिकनी मिट्टी के कणों से बहुत बड़े होते हैं
उनमें बड़प्पन और अहंकार होता है
आपसी आकर्षण नहीं होता
उनमें केवल आपसी घर्षण होता है
चिकनी मिट्टी के कणों के बीच
आकर्षण के दम पर
बना हुआ बाँध
बड़ी बड़ी नदियों का प्रवाह रोक देता है,
चिकनी मिट्टी बारिश के पानी को रोककर
जमीन को नम और ऊपजाऊ बनाए रखती है;
रेत के कणों से बाँध नहीं बनाए जाते
ना ही रेतीली जमीन में कुछ उगता है
उसके कण अपने अपने घमंड में चूर
अलग थलग पड़े रह जाते हैं बस।
आपसी प्रेम और लगाव होता है
हर कण दूसरों को अपनी ओर
आकर्षित करता है
और इसी आकर्षण बल से
दूसरों से बँधा रहता है
रेत के कण आकार के अनुसार
चिकनी मिट्टी के कणों से बहुत बड़े होते हैं
उनमें बड़प्पन और अहंकार होता है
आपसी आकर्षण नहीं होता
उनमें केवल आपसी घर्षण होता है
चिकनी मिट्टी के कणों के बीच
आकर्षण के दम पर
बना हुआ बाँध
बड़ी बड़ी नदियों का प्रवाह रोक देता है,
चिकनी मिट्टी बारिश के पानी को रोककर
जमीन को नम और ऊपजाऊ बनाए रखती है;
रेत के कणों से बाँध नहीं बनाए जाते
ना ही रेतीली जमीन में कुछ उगता है
उसके कण अपने अपने घमंड में चूर
अलग थलग पड़े रह जाते हैं बस।
रविवार, 17 अप्रैल 2011
ग़ज़ल: काश यादों को करीने से लगा पाता मैं
काश यादों को करीने से लगा पाता मैं
तेरी यादों के सभी रैक हटा पाता मैं ॥१॥
एक लम्हा जिसे हम दोनों ने हर रोज जिया
काश उस लम्हे की तस्वीर बना पाता मैं ॥२॥
मेरे कानों में पढ़ा प्रेम का कलमा तुमने
काश अलफ़ाज़ वो सोने से मढ़ा पाता मैं ॥३॥
एक वो पन्ना जहाँ तुमने मैं हूँ गैर लिखा
काश उस पन्ने का हर लफ़्ज़ मिटा पाता मैं ॥४॥
दिल की मस्जिद में जिसे रोज पढ़ा करता हूँ
आयतें काश वो तुझको भी सुना पाता मैं ॥५॥
तेरी यादों के सभी रैक हटा पाता मैं ॥१॥
एक लम्हा जिसे हम दोनों ने हर रोज जिया
काश उस लम्हे की तस्वीर बना पाता मैं ॥२॥
मेरे कानों में पढ़ा प्रेम का कलमा तुमने
काश अलफ़ाज़ वो सोने से मढ़ा पाता मैं ॥३॥
एक वो पन्ना जहाँ तुमने मैं हूँ गैर लिखा
काश उस पन्ने का हर लफ़्ज़ मिटा पाता मैं ॥४॥
दिल की मस्जिद में जिसे रोज पढ़ा करता हूँ
आयतें काश वो तुझको भी सुना पाता मैं ॥५॥
बुधवार, 13 अप्रैल 2011
ग़ज़ल : वो जो रुख़-ए-हवा समझते हैं
वो जो रुख़-ए-हवा समझते हैं
हम उन्हें धूल सा समझते हैं ॥१॥
चाँद रूठा ये कहके उसको हम
एक रोटी सदा समझते हैं ॥२॥
धूप भी तौल के बिकेगी अब
आप बाजार ना समझते हैं ॥३॥
तोड़ कर देख लें वो पत्थर से
जो हमें काँच का समझते हैं ॥४॥
जो बसें मंदिरों की नाली में
वो भी खुद को ख़ुदा समझते हैं ॥५॥
हम उन्हें धूल सा समझते हैं ॥१॥
चाँद रूठा ये कहके उसको हम
एक रोटी सदा समझते हैं ॥२॥
धूप भी तौल के बिकेगी अब
आप बाजार ना समझते हैं ॥३॥
तोड़ कर देख लें वो पत्थर से
जो हमें काँच का समझते हैं ॥४॥
जो बसें मंदिरों की नाली में
वो भी खुद को ख़ुदा समझते हैं ॥५॥
सोमवार, 11 अप्रैल 2011
नवगीत : समाचार हैं
समाचार हैं
अद्भुत,
जीवन के
अब बर्बादी
करे मुनादी
संसाधन सीमित
सड़ जाने दो
किंतु करेगा
बंदर ही वितरित
नियम
अनूठे हैं
मानव-वन के
प्रेम-रोग अब
लाइलाज
किंचित भी नहीं रहा
नई दवा ने
आगे बढ़कर
सबका दर्द सहा
रंग बदलते
पल पल
तन मन के
नौकर धन की
निज इच्छा से
अब है बुद्धि बनी
कर्म राम के
लेकिन लंका
देखो हुई धनी
बदल रहे
आदर्श
लड़कपन के
अद्भुत,
जीवन के
अब बर्बादी
करे मुनादी
संसाधन सीमित
सड़ जाने दो
किंतु करेगा
बंदर ही वितरित
नियम
अनूठे हैं
मानव-वन के
प्रेम-रोग अब
लाइलाज
किंचित भी नहीं रहा
नई दवा ने
आगे बढ़कर
सबका दर्द सहा
रंग बदलते
पल पल
तन मन के
नौकर धन की
निज इच्छा से
अब है बुद्धि बनी
कर्म राम के
लेकिन लंका
देखो हुई धनी
बदल रहे
आदर्श
लड़कपन के
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
कविता : कारखाने
देश की हर नदी को
धीरे धीरे गंदा कर दिया
कारखानों ने
इतना गंदा
कि उनका पानी पीने लायक नहीं बचा
फिर कारखाने के छोटे भाइयों ने
शुरू किया
पहाड़ों से पानी भरकर
उसे मैदानों में बेचने का सिलसिला
और जो पानी मुफ़्त मिला करता था
आज बोतलों में बिकता है।
हवाओं को भी धीरे धीरे
गंदा कर रहे हैं कारखाने
पता नहीं आने वाला वक्त
क्या दिन दिखाएगा?
धीरे धीरे गंदा कर दिया
कारखानों ने
इतना गंदा
कि उनका पानी पीने लायक नहीं बचा
फिर कारखाने के छोटे भाइयों ने
शुरू किया
पहाड़ों से पानी भरकर
उसे मैदानों में बेचने का सिलसिला
और जो पानी मुफ़्त मिला करता था
आज बोतलों में बिकता है।
हवाओं को भी धीरे धीरे
गंदा कर रहे हैं कारखाने
पता नहीं आने वाला वक्त
क्या दिन दिखाएगा?
गुरुवार, 31 मार्च 2011
ग़ज़ल : धँस कर दिल में विष फैलाता तेरा कँगना था
धँस कर दिल में विष फैलाता तेरा कँगना था
पत्थर ना हो जाता तो मेरा दिल सड़ना था ॥१॥
मदिरामय कर लूट लिया जिसने वो गैर नहीं
दिल में मेरे रहने वाला मेरा अपना था ॥२॥
कर आलिंगन मुझको जब रोई वो भावुक हो
जाने पल वो सच था या फिर कोई सपना था ॥३॥
बारी बारी साथ मेरा हर रहबर छोड़ गया
एक मुसाफिर था मैं मुझको फिर भी चलना था ॥४॥
जाने अब मैं जिंदा हूँ या गर्म-लहू मुर्दा
प्यार जहर में ना पाता तो मुझको मरना था ॥५॥
फर्क नहीं था जीतूँ या हारूँ मैं इस रण में
अपने दिल के टुकड़े से ही मुझको लड़ना था ॥६॥
पत्थर ना हो जाता तो मेरा दिल सड़ना था ॥१॥
मदिरामय कर लूट लिया जिसने वो गैर नहीं
दिल में मेरे रहने वाला मेरा अपना था ॥२॥
कर आलिंगन मुझको जब रोई वो भावुक हो
जाने पल वो सच था या फिर कोई सपना था ॥३॥
बारी बारी साथ मेरा हर रहबर छोड़ गया
एक मुसाफिर था मैं मुझको फिर भी चलना था ॥४॥
जाने अब मैं जिंदा हूँ या गर्म-लहू मुर्दा
प्यार जहर में ना पाता तो मुझको मरना था ॥५॥
फर्क नहीं था जीतूँ या हारूँ मैं इस रण में
अपने दिल के टुकड़े से ही मुझको लड़ना था ॥६॥
रविवार, 20 मार्च 2011
होली की शुभकमनाओं के साथ प्रस्तुत है ये मस्ती भरी ग़ज़ल
आज पलकों पे आग पलने दो
ना बुझाओ चराग जलने दो
आग बुझती न सूर्य के दिल की
आयु दिन एक से हैं ढलने दो
नींद की बर्फ लहू में पैठी
रात की धूप में पिघलने दो
शर्म की छाँव, इश्क का पौधा
सूख जाएगा इसे फलने दो
थक गई है ये अकेले चलकर
आज साँसों पे साँस मलने दो
नीर सा मैं हूँ शर्करा सी तुम
थोड़ी जो है खटास चलने दो
ना बुझाओ चराग जलने दो
आग बुझती न सूर्य के दिल की
आयु दिन एक से हैं ढलने दो
नींद की बर्फ लहू में पैठी
रात की धूप में पिघलने दो
शर्म की छाँव, इश्क का पौधा
सूख जाएगा इसे फलने दो
थक गई है ये अकेले चलकर
आज साँसों पे साँस मलने दो
नीर सा मैं हूँ शर्करा सी तुम
थोड़ी जो है खटास चलने दो
शुक्रवार, 11 मार्च 2011
कविता: कार्बन
चार भुजाएँ होती हैं कार्बन परमाणु के पास
जिनमें चार इलेक्ट्रॉन होते हैं
जिसे वो किसी भी परमाणु के साथ
जिसको इलेक्ट्रॉन की जरूरत हो
हर समय साझा करने के लिए तैयार रहता है
मगर कार्बन किसी अन्य परमाणु को
अपने इलेक्ट्रॉन छीनने नहीं देता
केवल साझा करने देता है
यही वो गुण है
जिसके कारण
कार्बन से बने हुए विभिन्न यौगिकों के अणु
धरती पर जीवन का आधार बने हुए हैं;
कार्बन छोटा है मगर मजबूत है
दूसरों की मदद करता है
मगर अपनी रक्षा स्वयं करने में सक्षम है
मुट्ठी भर इलेक्ट्रान ही हैं उसके पास
मगर बड़े बड़े धनवान उससे साझा करने आते हैं
उसे किसी की सहानुभूति नहीं चाहिए
न ही किसी नेता के झूठे वादे चाहिए
वह स्वयं में परिपूर्ण है
दूसरे परमाणुओं की मदद
वह प्रसिद्ध होने के लिए नहीं करता
क्योंकि सबसे कीमती
सबसे प्रसिद्ध
“हीरा”
वह केवल अपने दम पर बनाता है।
पता नहीं इतने सारे कार्बन परमाणुओं से मिलकर
बनने के बावजूद
हम इंसानों में उसका कोई गुण क्यों नहीं आया?
जिनमें चार इलेक्ट्रॉन होते हैं
जिसे वो किसी भी परमाणु के साथ
जिसको इलेक्ट्रॉन की जरूरत हो
हर समय साझा करने के लिए तैयार रहता है
मगर कार्बन किसी अन्य परमाणु को
अपने इलेक्ट्रॉन छीनने नहीं देता
केवल साझा करने देता है
यही वो गुण है
जिसके कारण
कार्बन से बने हुए विभिन्न यौगिकों के अणु
धरती पर जीवन का आधार बने हुए हैं;
कार्बन छोटा है मगर मजबूत है
दूसरों की मदद करता है
मगर अपनी रक्षा स्वयं करने में सक्षम है
मुट्ठी भर इलेक्ट्रान ही हैं उसके पास
मगर बड़े बड़े धनवान उससे साझा करने आते हैं
उसे किसी की सहानुभूति नहीं चाहिए
न ही किसी नेता के झूठे वादे चाहिए
वह स्वयं में परिपूर्ण है
दूसरे परमाणुओं की मदद
वह प्रसिद्ध होने के लिए नहीं करता
क्योंकि सबसे कीमती
सबसे प्रसिद्ध
“हीरा”
वह केवल अपने दम पर बनाता है।
पता नहीं इतने सारे कार्बन परमाणुओं से मिलकर
बनने के बावजूद
हम इंसानों में उसका कोई गुण क्यों नहीं आया?
बुधवार, 9 मार्च 2011
ग़ज़ल: हर अँधेरा ठगा नहीं करता
हर अँधेरा ठगा नहीं करता
हर उजाला वफा नहीं करता
देख बच्चा भी ले ग्रहण में तो
सूर्य उसपर दया नहीं करता
चाँद सूरज का मैल भी ना हो
फिर भी तम से दगा नहीं करता
बावफा है जो देश खाता है
बेवफा है जो क्या नहीं करता
गल रही कोढ़ से सियासत है
कोइ अब भी दवा नहीं करता
प्यार खींचे इसे समंदर का
नीर यूँ ही बहा नहीं करता
झूठ साबित हुई कहावत ये
श्वान को घी पचा नहीं करता
हर उजाला वफा नहीं करता
देख बच्चा भी ले ग्रहण में तो
सूर्य उसपर दया नहीं करता
चाँद सूरज का मैल भी ना हो
फिर भी तम से दगा नहीं करता
बावफा है जो देश खाता है
बेवफा है जो क्या नहीं करता
गल रही कोढ़ से सियासत है
कोइ अब भी दवा नहीं करता
प्यार खींचे इसे समंदर का
नीर यूँ ही बहा नहीं करता
झूठ साबित हुई कहावत ये
श्वान को घी पचा नहीं करता
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