गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर,
ऐसा कुछ हो गया, तब से सो न सका।
उसकी बातें कभी, उसकी साँसें कभी,
आसमाँ में उमड़ती-घुमड़ती रहीं,
उसकी यादों की बरसात में भीगकर,
आँखें नम तो हुईं पर मैं रो ना सका।
रातें घुटनों के बल पर घिसटतीं रही,
नींद भी यूँ ही करवट बदलती रही,
तीर लगते रहे दर्द के जिस्म पर,
मैं तड़पता रहा, चीख पर ना सका।
मेरी साँसें तो रुक रुक के चलती रहीं,
दिल की धड़कन भी थम थम धड़कती रही,
कोशिशें की बहुत मैंने पर जाने क्यों,
मौत के मुँह में जाकर भी मर न सका।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शनिवार, 31 जुलाई 2010
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
मैं एक कवि हूँ
मैं एक कवि हूँ,
हल्का सा झोंका मुझे बिखेर देता है,
हल्का सा झटका मुझे तोड़ देता है,
टूटकर-बिखरकर मिट्टी में मिल जाता हूँ,
पर न जाने कौन सी शक्ति है,
जो मुझे फिर जोड़ देती है,
और इस तरह हर बार मैं धरती से,
कुछ और जुड़ जाता हूँ,
अपने भीतर अपनी मिट्टी के कुछ और कण पाता हूँ,
यही मेरी नियति है,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।
भीड़ में मेरे आस पास बहुत सारे लोग होते हैं,
पर उनमें से कुछेक से ही मैं परिचित होता हूँ,
पर जब मैं अकेला होता हूँ,
तो मेरे साथ पूरी एक दुनिया होती है,
मेरी कल्पना की दुनिया,
जिस दुनिया के पशु पक्षियों को भी मैं जानता हूँ,
जिस दुनिया के पत्थर भी मुझसे बातें करते हैं,
जिस दुनिया के कण कण की मैं सृष्टि करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।
जिन्हें मैं जानता भी नहीं,
उनका भी दुःख अक्सर मुझे रुला देता है,
मेरे अन्तरतम को हिला देता है,
मैं अक्सर खुद को भूल जाया करता हूँ,
खरीदी हुई सब्जी बाजार में ही छोड़ आया करता हूँ,
अक्सर दोस्तों से अलग अकेले में बैठा करता हूँ,
भीड़ से दूर अकेले में खाया करता हूँ,
अकेले रहना अच्छा लगता है मुझे,
क्योंकि मुझे अपने आप से डर नहीं लगता,
अक्सर अपनी आँखों में आँखें ड़ालकर,
मैं खुद से बातें करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।
हल्का सा झोंका मुझे बिखेर देता है,
हल्का सा झटका मुझे तोड़ देता है,
टूटकर-बिखरकर मिट्टी में मिल जाता हूँ,
पर न जाने कौन सी शक्ति है,
जो मुझे फिर जोड़ देती है,
और इस तरह हर बार मैं धरती से,
कुछ और जुड़ जाता हूँ,
अपने भीतर अपनी मिट्टी के कुछ और कण पाता हूँ,
यही मेरी नियति है,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।
भीड़ में मेरे आस पास बहुत सारे लोग होते हैं,
पर उनमें से कुछेक से ही मैं परिचित होता हूँ,
पर जब मैं अकेला होता हूँ,
तो मेरे साथ पूरी एक दुनिया होती है,
मेरी कल्पना की दुनिया,
जिस दुनिया के पशु पक्षियों को भी मैं जानता हूँ,
जिस दुनिया के पत्थर भी मुझसे बातें करते हैं,
जिस दुनिया के कण कण की मैं सृष्टि करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।
जिन्हें मैं जानता भी नहीं,
उनका भी दुःख अक्सर मुझे रुला देता है,
मेरे अन्तरतम को हिला देता है,
मैं अक्सर खुद को भूल जाया करता हूँ,
खरीदी हुई सब्जी बाजार में ही छोड़ आया करता हूँ,
अक्सर दोस्तों से अलग अकेले में बैठा करता हूँ,
भीड़ से दूर अकेले में खाया करता हूँ,
अकेले रहना अच्छा लगता है मुझे,
क्योंकि मुझे अपने आप से डर नहीं लगता,
अक्सर अपनी आँखों में आँखें ड़ालकर,
मैं खुद से बातें करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।
बुधवार, 28 जुलाई 2010
धूल
धूल के कणों की एक अलग ही कहानी है
किसी जमाने में गर्व से सीना ताने
सिर ऊँचा उठाए खड़े
बड़े बड़े पहाड़ थे ये
प्रकृति को चुनौती देते हुए
प्रकृति की शक्तियों से लड़ते हुए
अपने आप को अजेय समझते थे
पर प्रकृति चुपचाप अपने काम में लगी रही
आहिस्ता आहिस्ता इन्हें काटती रही
तोड़ती रही
धीरे धीरे ये धूल के कण बन गए
और पाँवो की ठोकरों से इधर उधर बिखरने लगे
पर नए पहाड़ों ने इनसे कुछ नहीं सीखा
वो आज भी सीना ताने
प्रकृति को चुनौती देते
सर उठाए खड़े हैं
प्रकृति लगी हुई है
अपने काम में
आहिस्ता आहिस्ता
किसी जमाने में गर्व से सीना ताने
सिर ऊँचा उठाए खड़े
बड़े बड़े पहाड़ थे ये
प्रकृति को चुनौती देते हुए
प्रकृति की शक्तियों से लड़ते हुए
अपने आप को अजेय समझते थे
पर प्रकृति चुपचाप अपने काम में लगी रही
आहिस्ता आहिस्ता इन्हें काटती रही
तोड़ती रही
धीरे धीरे ये धूल के कण बन गए
और पाँवो की ठोकरों से इधर उधर बिखरने लगे
पर नए पहाड़ों ने इनसे कुछ नहीं सीखा
वो आज भी सीना ताने
प्रकृति को चुनौती देते
सर उठाए खड़े हैं
प्रकृति लगी हुई है
अपने काम में
आहिस्ता आहिस्ता
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
रिक्शा
एक रिक्शा था,
जो मुझे बचपन में स्कूल ले जाया करता था,
रोज सुबह वक्तपर आता था,
सीटी बजाता था,
और मैं दौड़कर उसपर चढ़ जाया करता था,
अच्छा लगता था, दोस्तों के साथ,
उस रिक्शे पर बैठकर स्कूल जाना,
कभी कभी जब वो खराब हो जाता था,
तो पापा छोड़ने जाते थे,
पर पापा के साथ जाने में वो मजा नहीं आता था,
एक अजीब सा रिश्ता बन गया था उस रिक्शे से;
वो रिक्शा अब भी आता है कभी कभी मेरे घर,
पर मैं तो अक्सर परदेश में रहता हूँ,
जब मैं घर जाता हूँ,
तो उसको पता नहीं होता कि मैं आया हूँ,
और जब वो आता है तो मैं परदेश में होता हूँ,
लोग कहते हैं वो कुछ माँगने आता होगा,
लोग नहीं समझ सकते,
एक बच्चे और उसके रिक्शे का रिश्ता,
इस बार मैं कुछ नये कपड़े,
घर पर रख आया हूँ,
घरवालों से कहकर,
वो आये तो दे देना,
क्या करूँ,
जिन्दगी की भागदौड़ में,
मैं इतना ही कर सकता हूँ,
तुम्हारे लिये,
कभी अगर किस्मत ने साथ दिया,
तो मुलाकात होगी।
जो मुझे बचपन में स्कूल ले जाया करता था,
रोज सुबह वक्तपर आता था,
सीटी बजाता था,
और मैं दौड़कर उसपर चढ़ जाया करता था,
अच्छा लगता था, दोस्तों के साथ,
उस रिक्शे पर बैठकर स्कूल जाना,
कभी कभी जब वो खराब हो जाता था,
तो पापा छोड़ने जाते थे,
पर पापा के साथ जाने में वो मजा नहीं आता था,
एक अजीब सा रिश्ता बन गया था उस रिक्शे से;
वो रिक्शा अब भी आता है कभी कभी मेरे घर,
पर मैं तो अक्सर परदेश में रहता हूँ,
जब मैं घर जाता हूँ,
तो उसको पता नहीं होता कि मैं आया हूँ,
और जब वो आता है तो मैं परदेश में होता हूँ,
लोग कहते हैं वो कुछ माँगने आता होगा,
लोग नहीं समझ सकते,
एक बच्चे और उसके रिक्शे का रिश्ता,
इस बार मैं कुछ नये कपड़े,
घर पर रख आया हूँ,
घरवालों से कहकर,
वो आये तो दे देना,
क्या करूँ,
जिन्दगी की भागदौड़ में,
मैं इतना ही कर सकता हूँ,
तुम्हारे लिये,
कभी अगर किस्मत ने साथ दिया,
तो मुलाकात होगी।
धर्म और जाति
धर्म और जाति अब हमे कुछ नहीं दे सकते,
सिवाय धार्मिक दंगों,
आतंकवाद और प्रेमियों की हत्या के,
धर्म ने जो कुछ देना था दे चुका,
जाति ने जो कुछ देना थी दे चुकी,
अब कुछ नहीं बचा इनके पास देने को,
ये अब समय के अनुसार नहीं चल पाते,
अब इनमें परिवर्तन नहीं होता,
ये तेजी से बदलते युग के साथ नहीं बदल पाते,
ये सड़ने लगे हैं अब,
अब इनसे छुटकारा पाने का वक्त आ गया है,
आओ कुछ को जला दिया जाये,
कुछ को दफना दिया जाय,
इनकी चिता पर फूल रखकर,
इन्हें अन्तिम प्रणाम किया जाये,
इनकी कब्र पर माला रखकर अन्तिम विदा दी जाये,
अब हमें ईश्वर से जुड़ने के लिए,
ना धर्म की आवश्यकता है,
ना ही समाज को चलाने के लिए जाति की।
सिवाय धार्मिक दंगों,
आतंकवाद और प्रेमियों की हत्या के,
धर्म ने जो कुछ देना था दे चुका,
जाति ने जो कुछ देना थी दे चुकी,
अब कुछ नहीं बचा इनके पास देने को,
ये अब समय के अनुसार नहीं चल पाते,
अब इनमें परिवर्तन नहीं होता,
ये तेजी से बदलते युग के साथ नहीं बदल पाते,
ये सड़ने लगे हैं अब,
अब इनसे छुटकारा पाने का वक्त आ गया है,
आओ कुछ को जला दिया जाये,
कुछ को दफना दिया जाय,
इनकी चिता पर फूल रखकर,
इन्हें अन्तिम प्रणाम किया जाये,
इनकी कब्र पर माला रखकर अन्तिम विदा दी जाये,
अब हमें ईश्वर से जुड़ने के लिए,
ना धर्म की आवश्यकता है,
ना ही समाज को चलाने के लिए जाति की।
सोमवार, 26 जुलाई 2010
चट्टान का टुकड़ा
पहाड़ से टूटकर चट्टान का एक बड़ा टुकड़ा,
नदी में जा गिरा,
नदी की धारा उसे तब तक पटकती रही,
जब तक कि उसके टुकड़े टुकड़े नहीं हो गये,
वो छोटे छोटे टुकड़े धारा में बहते रहे,
चट्टानों से टकराते रहे,
दर्द से चीखते रहे,
पानी को कोसते रहे और गोल गोल हो गये,
फिर नदी ने उन्हें एक किनारे डाल दिया,
दूसरे दिन नदी किनारे से एक बच्चा गुजरा,
उसे वो चिकने, रंग बिरंगे टुकड़े अच्छे लगे,
उन्हें उठा कर घर ले गया,
उसकी माँ ने उन पत्थरों को देखा,
और उन्हें उठाकर पूजाघर में रख दिया,
अब वो पत्थर रोज पूजे जाते हैं,
क्योंकि जो उन्होंने सहा है,
वह सहकर बहुत कम पत्थर,
पूजाघर तक पहुँच पाते हैं,
ज्यादातर तो चूर चूर होकर,
मिट्टी में मिल जाते हैं।
नदी में जा गिरा,
नदी की धारा उसे तब तक पटकती रही,
जब तक कि उसके टुकड़े टुकड़े नहीं हो गये,
वो छोटे छोटे टुकड़े धारा में बहते रहे,
चट्टानों से टकराते रहे,
दर्द से चीखते रहे,
पानी को कोसते रहे और गोल गोल हो गये,
फिर नदी ने उन्हें एक किनारे डाल दिया,
दूसरे दिन नदी किनारे से एक बच्चा गुजरा,
उसे वो चिकने, रंग बिरंगे टुकड़े अच्छे लगे,
उन्हें उठा कर घर ले गया,
उसकी माँ ने उन पत्थरों को देखा,
और उन्हें उठाकर पूजाघर में रख दिया,
अब वो पत्थर रोज पूजे जाते हैं,
क्योंकि जो उन्होंने सहा है,
वह सहकर बहुत कम पत्थर,
पूजाघर तक पहुँच पाते हैं,
ज्यादातर तो चूर चूर होकर,
मिट्टी में मिल जाते हैं।
शनिवार, 24 जुलाई 2010
एक बदली
एक बदली,
पानी से लबालब भरी हुई,
समुन्दर के घर से भागकर,
पहाड़ों के पास पहुँच गई,
हरे भरे पहाड़ों को देखकर,
उसका मन ललचा उठा,
वो उन पर चढ़ती ही गई,
आगे बढ़ती ही गई,
फिर अचानक उसने सोचा,
अरे मैं तो बहुत दूर आ गई,
अब लौटना चाहिए,
उसने पलट कर देखा तो,
हर तरफ उसे पहाड़ ही पहाड़ नजर आये,
वह भटकती रही, भटकती रही,
और पहाड़ कसते रहे अपना शिकंजा,
कब तक लड़ती वो शक्तिशाली पहाड़ों से,
आखिरकार वो बरस ही पड़ी,
और मिट गई,
पर बाकी की बदलियों ने इससे कोई सबक नहीं लिया,
वो अब भी ललचाकर पहाड़ों में आती हैं,
और अपना अस्तित्व मिटाकर खो जाती हैं।
पानी से लबालब भरी हुई,
समुन्दर के घर से भागकर,
पहाड़ों के पास पहुँच गई,
हरे भरे पहाड़ों को देखकर,
उसका मन ललचा उठा,
वो उन पर चढ़ती ही गई,
आगे बढ़ती ही गई,
फिर अचानक उसने सोचा,
अरे मैं तो बहुत दूर आ गई,
अब लौटना चाहिए,
उसने पलट कर देखा तो,
हर तरफ उसे पहाड़ ही पहाड़ नजर आये,
वह भटकती रही, भटकती रही,
और पहाड़ कसते रहे अपना शिकंजा,
कब तक लड़ती वो शक्तिशाली पहाड़ों से,
आखिरकार वो बरस ही पड़ी,
और मिट गई,
पर बाकी की बदलियों ने इससे कोई सबक नहीं लिया,
वो अब भी ललचाकर पहाड़ों में आती हैं,
और अपना अस्तित्व मिटाकर खो जाती हैं।
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
आँवले का पेड़
एक आँवले का पेड़ था,
फलों से लदा हुआ,
ड़ालियाँ झुकी हुईं,
लोग आये, पेड़ की बहुत तारीफ की,
और प्यार से हाथ बढ़ाकर,
बड़े बड़े आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,
अगले साल मौसम की मार पड़ी,
और उस पेड़ पर दो-चार आँवले ही लग पाये,
वो भी एकदम ऊपर की डालों पर,
लोग आये, पेड़ को गालियाँ दीं,
पत्थर मार कर आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,
मैंने पूछा, पेड़ तुम्हें बुरा नहीं लगा,
लोगों की बातों का;
पेड़ बोला, लोगों का क्या है,
लोग तो मौसम के साथ बदलते हैं।
फलों से लदा हुआ,
ड़ालियाँ झुकी हुईं,
लोग आये, पेड़ की बहुत तारीफ की,
और प्यार से हाथ बढ़ाकर,
बड़े बड़े आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,
अगले साल मौसम की मार पड़ी,
और उस पेड़ पर दो-चार आँवले ही लग पाये,
वो भी एकदम ऊपर की डालों पर,
लोग आये, पेड़ को गालियाँ दीं,
पत्थर मार कर आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,
मैंने पूछा, पेड़ तुम्हें बुरा नहीं लगा,
लोगों की बातों का;
पेड़ बोला, लोगों का क्या है,
लोग तो मौसम के साथ बदलते हैं।
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
मधुमक्खी
वो मधुमक्खी,
जिसके छत्ते में पत्थर मारकर,
एक दिन मैंने उकसाया था,
बदले में उसने मुझे,
अपने डंकों से नहलाया था,
बचने की कोशिश तो बहुत की थी मैंने,
पर कौन बचा है आज तक ऐसे डंकों से,
फिर एक दिन अचानक,
छत्ते में कोई नहीं मिला मुझे,
सारा शहद सूख गया था,
छत्ता उजाड़ हो गया था,
वो छत्ता तो आज भी वहीं है,
पर जब कभी मैं उस राह से गुजरता हूँ,
तो मुझे आज भी महसूस होता है,
उसके डंकों का दर्द,
और याद आ जाती है मुझे,
वो मधुमक्खी।
जिसके छत्ते में पत्थर मारकर,
एक दिन मैंने उकसाया था,
बदले में उसने मुझे,
अपने डंकों से नहलाया था,
बचने की कोशिश तो बहुत की थी मैंने,
पर कौन बचा है आज तक ऐसे डंकों से,
फिर एक दिन अचानक,
छत्ते में कोई नहीं मिला मुझे,
सारा शहद सूख गया था,
छत्ता उजाड़ हो गया था,
वो छत्ता तो आज भी वहीं है,
पर जब कभी मैं उस राह से गुजरता हूँ,
तो मुझे आज भी महसूस होता है,
उसके डंकों का दर्द,
और याद आ जाती है मुझे,
वो मधुमक्खी।
बुधवार, 21 जुलाई 2010
हेडमास्टर की कुर्सी
मेरे हेडमास्टर की कुर्सी,
पुरानी, मगर बेहद साफ,
घूल का एक कण भी नहीं था उसपर,
शुरू शुरू में तो मैं बहुत डरता था,
उस कुर्सी से,
फिर धीरे धीरे मुझे पता लगा,
कि लकड़ी की उस बूढ़ी कुर्सी में भी दिल है,
और मुझे उस कुर्सी से लगाव होने लगा,
आजकल वो कुर्सी हेडमास्टर साहब के घर में पड़ी हुई है,
उसका एक पाँव टूट गया है,
और आँखों से दिखाई भी नहीं पड़ता,
मोतियाबिन्द के आपरेशन के लिये पैसे नहीं हैं,
एक दिन मैं उस कुर्सी से मिलने चला गया था,
तो सब पता लगा मुझे;
सबसे छुपाकर बीस हजार रूपये देकर आया हूँ,
आपरेशन के लिये,
क्या करूँ, उस कुर्सी का महत्व,
सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ,
वो कुर्सी न होती,
तो मैं न जाने क्या होता।
पुरानी, मगर बेहद साफ,
घूल का एक कण भी नहीं था उसपर,
शुरू शुरू में तो मैं बहुत डरता था,
उस कुर्सी से,
फिर धीरे धीरे मुझे पता लगा,
कि लकड़ी की उस बूढ़ी कुर्सी में भी दिल है,
और मुझे उस कुर्सी से लगाव होने लगा,
आजकल वो कुर्सी हेडमास्टर साहब के घर में पड़ी हुई है,
उसका एक पाँव टूट गया है,
और आँखों से दिखाई भी नहीं पड़ता,
मोतियाबिन्द के आपरेशन के लिये पैसे नहीं हैं,
एक दिन मैं उस कुर्सी से मिलने चला गया था,
तो सब पता लगा मुझे;
सबसे छुपाकर बीस हजार रूपये देकर आया हूँ,
आपरेशन के लिये,
क्या करूँ, उस कुर्सी का महत्व,
सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ,
वो कुर्सी न होती,
तो मैं न जाने क्या होता।
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