यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
साहब बोले (हाइकु कविता)
"नींबू मीठा होता है"
मैं बोला, "हाँ जी"।
साहब बोले,
"चीनी फीकी होती है"
मैं बोला, "हाँ जी"।
साहब बोले,
"मिर्ची खट्टी होती है"
मैं बोला, "हाँ जी"।
साहब बोले,
"मैं बनूँगा एम डी?"
मैं बोला, "हाँ जी"।
मैं बोला, "सर
दस दिन की छुट्टी
है मुझे लेनी"।
"जा अब छुट्टी,
बड़ा काम है किया"
साहब बोले।
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
सात हाइकु
आँसू तुम्हारे,
मेरे लिये बहे क्यों,
पराया हूँ मैं।
नशा हो गया,
जो मैंने पिया प्याला,
आँखो से तेरी।
छू दे प्यार से,
वो पत्थर को इंसा,
करे पल में।
मधुशाला हो,
न हों आँखें तेरी, तो
चढ़ती नहीं।
मधु है, या है
ये, अमृत का प्याला,
या लब तेरे।
बिजली गिरी,
न थी छत भी जहाँ,
उसी के यहाँ।
उँचा पहाड़,
बगल में है देखो,
गहरी खाई।बुधवार, 16 सितंबर 2009
शायरी
१- कहाँ कहाँ नहीं खोजा तुमने, एक कतरा सच्ची मोहोब्बत का।
कभी तो गौर से ऐ दोस्त, मेरी आँखों में भी देखा होता ।।
२- आँखो तक आया प्यार, निकल कर बह न सका।
तुम समझ न पाये यार, और मैं कह न सका।।
३- काँटे टूट गये छूकर हमको, फूलों ने लहूलुहान कर दिया।
दुश्मन काँपते रहे डर से, दोस्तों ने परेशान कर दिया।।
४- ये राह ए इश्क है, जरा संभलना, यहाँ कदम कदम पर दर्द मिलते हैं।
सूरत पे मत जाना दोस्तों, अक्सर, इस राह पर लोग बडे बेदर्द मिलते हैं।।
५- चलो मेरा उनको छेड़ना कुछ काम तो आया,
बदनाम करने को ही सही,
उनकी जुबाँ पे मेरा नाम तो आया।
हैं छन्द मेरे प्रेयसि मधुमय, अंगारे हैं ये अधर तेरे।
७- कितनी भी ड़ालियाँ बदल ले, कितना भी मीठा बोल ले
इस जमाने की सदा यही रीत है रही,
तुझे सुन के सब चले जायेंगे कोयल, कोई तुझे पालेगा नहीं।
८- कितने भी गहरे भाव लिखें हम, कविता कहलायेंगे।
तुम छू दो होंठों से शब्दों को, गीत वो बन जायेगें ।।
९- कभी किसी को टूटकर प्यार मत करना, वरना,
हल्की सी ठोकर से तुमको पड़ जायेगा बिखरना ।
तब याद बहुत तू आती है
तब याद बहुत तू आती है।
जब किसी पुरानी पुस्तक में, कुछ खोज रहा होता हूँ मैं,
और यूँ ही तभी अचानक मुझको, उस पुस्तक के पन्नों में,
सूखी पंखुडि़याँ गुलाब के फूलों की रक्खी मिल जाती हैं;
तब याद बहुत तू आती है।
सावन के मस्त महीने में, जब हरियाली छा जाती है,
झूले पड़ जाने से जब पेड़ों की डाली लहराती है,
उन झूलों पर बैठी कोई लड़की कजरी जब गाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
वह नन्हा-मुन्हा कमरा जिसमें हम-तुम बैठा करते थे,
गुडड़े-गुडि़या, राजा-रानी, जब हम-तुम खेला करते थे,
उस कमरे को तुड़वाने की माँ जब भी बात चलाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
एमए, एमबीए, एमसीए और ये तो एमबीबीएस है,
ये लडकी वैसे अच्छी है, पर अब भी लगती बच्ची है,
ऐसा कहकर मम्मी मेरी, जब-जब भी मुझे चिढ़ाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
अक्सर गर्मी की छुट्टी में, जब गाँव चला मैं जाता हूँ,
और कटे हुए गेहूँ के खेतों मैं खुद को पाता हूँ,
रस्ते पर जाती जब कोई अल्हड़ लड़की दिख जाती है,
तब याद बहुत तू आती है।
भगवान बन गया मैं देखो
भगवान बन गया मैं देखो।
निदोर्षों की चीत्कारों से, हिलतीं मन्दिर की दीवारें,
कितनी अबलाओं की लज्जा, लुटती देखो मेरे द्वारे,
पर मुझको क्या मतलब इससे,
मेरे आँख कान सब पत्थर के,
इन्सान नहीं अब हूँ मैं तो,
भगवान बन गया मैं देखो।
हिन्दू हों या मुस्लिम या सिख, डरते हैं मुझसे यार सभी,
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में झुकते हैं कितनी बार सभी,
हैं काँप रहे सब ही थर-थर,
करते जय-जय मेरी डरकर,
जब चाहूँ खत्म करूँ इनको,
भगवान बन गया मैं देखो।
इन्सानों का जीवन-तन-मन, ये इनके भावुक आकर्षण,
इनके रिश्ते, नाते, अस्मत और कहते ये जिसको किस्मत,
ये प्यार मोहोब्बत इनके रे,
सब खेल-खिलौने हैं मेरे,
जैसे चाहूँ तोडूँ इनको,
भगवान बन गया मैं देखो।
मेरी मर्जी अकाल ला दूँ, या बाढ़ जमीं पर फैला दूँ,
जब चाहूँ इन धमार्न्धों में, धामिर्क दंगे मैं करवा दूँ,
करवा दूँ मैं कुछ भी इनमें,
मेरी ही जय बोलेंगे ये,
इस कदर डरा रक्खा सबको,
भगवान बन गया मैं देखो।
कैसे आऊंगा मैं तेरी शादी में
कैसे आऊँगा मैं तेरी शादी में?
तुझे किसी और की होते, कैसे देख पाऊँगा मैं?
तेरी शादी में;
दिल रो रहा होगा मेरा,
तो आँसू आँखों के कैसे रोक पाऊँगा मैं?
तेरी शादी में;
तू उन्हें देख शर्मा के मुस्कायेगी,
आग सी मेरे तन-मन में लग जायेगी,
खाक हो जाऊँगा मैं,
तेरी शादी में;
वरमाला जो तू पिया को पहनायेगी,
फंदा बन के गला मेरा दबायेगी,
घुट के मर जाऊँगा मैं,
तेरी शादी में;
संग पिया के जब तू होगी विदा,
भूल जाऊँगा मैं क्या है अच्छा-बुरा,
ड़रता हूँ कि कत्ल-ए-आम कर जाऊँगा मैं,
तेरी शादी में;
कैसे आऊँगा मैं तेरी शादी में?
औपचारिकतायें
मैं भी वही हूँ, तुम भी वही हो,
मित्र कहता हूँ मैं तुम्हें अब भी,
पर अब वो बात नहीं रही, जो कल थी,
कहीं कुछ,
या शायद बहुत कुछ टूट चुका है,
हमारे भीतर कोई,
एक दूसरे से रूठ चुका है,
तुम जो कहते हो,
अब भी करता हूँ मैं,
मनुहार करता था पहले,
अब नहीं करता मैं,
पर अब एक उदासीनता सी रहती है करने में,
वह खुशी नहीं जो पहले होती थी,
समाज की नजर में,
अपनी दोस्ती का, अपने रिश्ते का,
फर्ज निभा रहा हूँ,
या कहूँ कि बोझ उठा रहा हूँ,
अहित मैं तुम्हारा अब भी नहीं चाहता,
पर अब तुम्हारे हित में अपना हित नहीं महसूस करता,
तुम्हारी खुशी में मुझे खुशी नहीं मिलती,
दुख में दुख का अहसास नहीं होता,
केवल औपचारिकताएँ पूरी करता हूँ ।
कितनी ही बार...
कितनी ही बार..... बगीचों में,
फूलों की क्यारियों के बीच से गुजरते हुए,
उनसे उठती मादक खुशबुओं में,
मैंने महसूस की हैं..... तेरी साँसे।
कभी कोयल की कूक में, कभी झरनों की कल-कल में,
कभी झींगुरों की झन-झन में, कभी हवाओं की सन-सन में,
कभी पपीहे की पुकार में, कभी पायल की झनकार में,
मेरे कानों ने सुनी हैं.... तेरी बातें।
गंगा के तट पर बैठकर,
दूर आसमान में... कितनी ही सुहानी शामों को,
सिंदूरी रंगत के बनते बिगड़ते बादलों में,
कितनी ही बार मैंने देखा है.... तेरा शर्म से लाल चेहरा।
तपती हुई गमिर्यों में,
मैदानों से दूर पहाड़ों की ठंढ़क में,
वहाँ बिखरी फैली हिरयाली में,
मैनें अक्सर देखा है उड़ता हुआ.... तुम्हारा वो हरा दुपट्टा।
कितनी ही बार कहीं अकेले में बैठकर,
तुम्हारे बारे में ही सोचते हुए,
अपनी आँखों में मैंने पाये हैं..... तुम्हारे आँसू।
कितनी ही बार..... कितनी ही बार.....।
रविवार, 13 सितंबर 2009
रोज ही
जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।
थी मिली मुझसे गले तू पहली-पहली बार जब
वक्त की बदली में वो लम्हा चमकता रोज ही।
कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।
इक नई मुश्किल मुझे मिल जाती है हर मोड़ पर,
क्या ख़ुदा की आँख में मैं हूँ खटकता रोज ही।
लिख गया तकदीर में जो रोज बिखरूँ टूट कर
आखिरी पल मैं उसी को हूँ पटकता रोज ही।
बुधवार, 9 सितंबर 2009
मैंनें ईश्वर को मन्दिर में
मैंने ईश्वर को मंदिर में, बिलख-बिलख रोते देखा है।
पत्र, पुष्प, गंगाजल-पूरित, ताम्र-पात्र से स्नान कर रहे,
धूप, दीप, नैवेद्य, दुग्ध औ’ चरणामृत का पान कर रहे,
इक छोटे काले पत्थर को, ईश्वर पर हँसते देखा है।
मंदिर के बाहर वट-नीचे, गन्दा फटा वस्त्र फैलाकर,
उस ईश्वर के एक अंश को, क्षुधा-प्यास से व्याकुल होकर,
लोगों की फेंकी जूठन भी, बिन-बिन कर खाते देखा है।
दीवारों पर कबसे बैठीं, निर्धन-निर्बल की चाहों को,
पूरी कर देने की उस ईश्वर की कोमल इच्छाओं को,
जय-जय की पागल ध्वनियों में दब, घुटकर मरते देखा है।
स्वर्ग-नर्क की जंजीरों से, पाप-पूण्य की तस्वीरों में,
बुरी तरह से कैद हो गये, भोले ईश्वर के हाथों में,
विश्व-प्रेम के सूर्ख-जलज को, मैंने कुम्हलाते देखा है।
मन्दिर के ही एक अंधेरे, सीलन भरे, किसी कोने में,
नफरत-स्वार्थ और पापों के, भालों से छलनी सीने में-
से बहकर प्रभु-अमिय-रक्त को मिट्टी में मिलते देखा है।
तड़प रहे ईश्वर की चुपके-चुपके से फिर चिता जलाकर,
और राख में धर्म-जाति की घृणा-स्वार्थ का ज़हर मिलाकर,
कथित धर्मगुरुओं को फिर से, धर्म ग्रन्थ लिखते देखा है।