यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 12 अप्रैल 2022
सोमवार, 4 अप्रैल 2022
नवगीत : जिन्दगी जलेबी सी
जिन्दगी जलेबी सी
उलझी है
मीठी है
दुनिया की चक्की में
मैदे सा पिसना है
प्यार की नमी से
मन का खमीर उठना है
गोल-गोल घुमा रही
सूरज की
मुट्ठी है
तेल खौलता दुख का
तैर कर निकलना है
वक़्त की कड़ाही में
लाल-लाल पकना है
चाशनी सुखों की
पलकें बिछाये
बैठी है
कुरकुरा बने रहना
ज़्यादा मत डूबना
उलझन है अर्थहीन
इससे मत ऊबना
मानव के हाथ लगी
ईश्वर की
चिट्ठी है
उलझी है
मीठी है
दुनिया की चक्की में
मैदे सा पिसना है
प्यार की नमी से
मन का खमीर उठना है
गोल-गोल घुमा रही
सूरज की
मुट्ठी है
तेल खौलता दुख का
तैर कर निकलना है
वक़्त की कड़ाही में
लाल-लाल पकना है
चाशनी सुखों की
पलकें बिछाये
बैठी है
कुरकुरा बने रहना
ज़्यादा मत डूबना
उलझन है अर्थहीन
इससे मत ऊबना
मानव के हाथ लगी
ईश्वर की
चिट्ठी है
शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
शनिवार, 1 जनवरी 2022
ग़ज़ल: हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम
बड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम
समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम
ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम
कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम
समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम
ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम
कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम
मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम
गुरुवार, 23 दिसंबर 2021
नवगीत : पानी और पारा
पूछा मैंने पानी से
क्यूँ सबको गीला कर देता है
पानी बोला
प्यार किया है
ख़ुद से भी ज़्यादा औरों से
इसीलिये चिपका रह जाता हूँ
मैं अपनों से
गैरों से
हो जाता है गीला-गीला
जो भी मुझको छू लेता है
अगर ठान लेता
मैं दिल में
पारे जैसा बन सकता था
ख़ुद में ही खोया रहता तो
किसको गीला कर सकता था?
पारा बाहर से चमचम पर
विष अन्दर-अन्दर सेता है
वो तो अच्छा है
धरती पर
नाममात्र को ही पारा है
बंद पड़ा है बोतल में वो
अपना तो ये जग सारा है
मेरा गीलापन ही है जो
जीवन की नैय्या खेता है
सोमवार, 20 दिसंबर 2021
नवगीत : रजनीगंधा
रजनीगंधा
तुम्हें विदेशी
कहे सियासत
माना पितर तुम्हारे जन्मे
सात समंदर पार
पर तुम जन्मे इस मिट्टी में
यहीं मिला घर-बार
देख रही सब
फिर क्यों करती
हवा शरारत
रंग तुम्हारा रूप तुम्हारा
लगे मोगरे सा
फिर भी तुम्हें स्वदेशी कहती
नहीं कभी पुरवा
साफ हवा में
किसने घोली
इतनी नफ़रत
बन किसान का साथी यूँ ही
खेतों में उगना
गाँव, गली, घर, नगर, डगर सब
महकाते रहना
मिट जाएगी
कर्म इत्र से
बू-ए-तोहमत
तुम्हें विदेशी
कहे सियासत
माना पितर तुम्हारे जन्मे
सात समंदर पार
पर तुम जन्मे इस मिट्टी में
यहीं मिला घर-बार
देख रही सब
फिर क्यों करती
हवा शरारत
रंग तुम्हारा रूप तुम्हारा
लगे मोगरे सा
फिर भी तुम्हें स्वदेशी कहती
नहीं कभी पुरवा
साफ हवा में
किसने घोली
इतनी नफ़रत
बन किसान का साथी यूँ ही
खेतों में उगना
गाँव, गली, घर, नगर, डगर सब
महकाते रहना
मिट जाएगी
कर्म इत्र से
बू-ए-तोहमत
शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021
नवगीत : रखें सावधानी कुहरे में
सूरज दूर गया धरती से
तापमान लुढ़का
बड़ा पारदर्शी था पानी
बना सघन कुहरा
लोभ हवा में उड़ने का
कुछ ऐसा उसे लगा
पानी जैसा परमसंत भी
संयम खो बैठा
फँसा हवा के अलख जाल में
हो त्रिशंकु लटका
आता है सबके जीवन में
एक समय ऐसा
आदर्शों से समझौता
करवा देता पैसा
किन्तु कुहासा कुछ दिन का
स्थायी साफ हवा
जैसे-जैसे सूरज ऊपर
चढ़ता जायेगा
बूँद-बूँद कर कुहरे का मन
गलता जायेगा
रखें सावधानी कुहरे में
घटे न दुर्घटना
शनिवार, 6 नवंबर 2021
ग़ज़ल: उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
1222 1222 1222 1222
उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
दुबारा स्नेह भर दें हम बस इतना चाहते दीपक
हैं जिनके कर्म काले, वो अँधेरे के मुहाफ़िज़ हैं
सब उजले कर्म वाले जल रहे बन शाम से दीपक
दिये का कर्म है जलना दिये का धर्म है जलना
तुफानी रात में ये सोचकर हैं जागते दीपक
अगर बढ़ता रहा यूँ ही अँधेरा जीत जाएगा
उजाले के मुहाफिज हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक
इन्हें समझाइये इनसे बनी सरहद उजाले की
बुझे कल दीप इतने हो गये हैं अनमने दीपक
अँधेरे से तो लड़ लेंगे मगर प्रभु जी सदा हमको
बचाना ब्लैक होलों से यही वर माँगते दीपक
जलाने में पराये दीप तुम तो बुझ गये ‘सज्जन’
तुम्हारी लौ लिये दिल में जले सौ-सौ नये दीपक
उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
दुबारा स्नेह भर दें हम बस इतना चाहते दीपक
हैं जिनके कर्म काले, वो अँधेरे के मुहाफ़िज़ हैं
सब उजले कर्म वाले जल रहे बन शाम से दीपक
दिये का कर्म है जलना दिये का धर्म है जलना
तुफानी रात में ये सोचकर हैं जागते दीपक
अगर बढ़ता रहा यूँ ही अँधेरा जीत जाएगा
उजाले के मुहाफिज हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक
इन्हें समझाइये इनसे बनी सरहद उजाले की
बुझे कल दीप इतने हो गये हैं अनमने दीपक
अँधेरे से तो लड़ लेंगे मगर प्रभु जी सदा हमको
बचाना ब्लैक होलों से यही वर माँगते दीपक
जलाने में पराये दीप तुम तो बुझ गये ‘सज्जन’
तुम्हारी लौ लिये दिल में जले सौ-सौ नये दीपक
गुरुवार, 4 नवंबर 2021
नवगीत : चमक रही कंदील
नन्हा दीपक
तम से लड़ता
चमक रही कंदील
तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें
श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील
धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा
टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील
अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता
अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील
तम से लड़ता
चमक रही कंदील
तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें
श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील
धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा
टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील
अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता
अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील
सदस्यता लें
संदेश (Atom)