1222 1222 1222 1222
उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
दुबारा स्नेह भर दें हम बस इतना चाहते दीपक
हैं जिनके कर्म काले, वो अँधेरे के मुहाफ़िज़ हैं
सब उजले कर्म वाले जल रहे बन शाम से दीपक
दिये का कर्म है जलना दिये का धर्म है जलना
तुफानी रात में ये सोचकर हैं जागते दीपक
अगर बढ़ता रहा यूँ ही अँधेरा जीत जाएगा
उजाले के मुहाफिज हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक
इन्हें समझाइये इनसे बनी सरहद उजाले की
बुझे कल दीप इतने हो गये हैं अनमने दीपक
अँधेरे से तो लड़ लेंगे मगर प्रभु जी सदा हमको
बचाना ब्लैक होलों से यही वर माँगते दीपक
जलाने में पराये दीप तुम तो बुझ गये ‘सज्जन’
तुम्हारी लौ लिये दिल में जले सौ-सौ नये दीपक
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शनिवार, 6 नवंबर 2021
गुरुवार, 4 नवंबर 2021
नवगीत : चमक रही कंदील
नन्हा दीपक
तम से लड़ता
चमक रही कंदील
तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें
श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील
धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा
टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील
अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता
अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील
तम से लड़ता
चमक रही कंदील
तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें
श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील
धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा
टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील
अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता
अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील
सोमवार, 1 नवंबर 2021
शुक्रवार, 17 सितंबर 2021
नवगीत : ऐसी ही रहना तुम
जैसी हो
अच्छी हो
ऐसी ही रहना तुम
कांटो की बगिया में
तितली सी उड़ जाना
रस्ते में पत्थर हो
नदिया सी मुड़ जाना
भँवरों की मनमानी
गुप-चुप मत सहना तुम
सांपों का डर हो तो
चिड़िया सी चिल्लाना
बाजों के पंजों में
मत आना, मत आना
जो दिल को भा जाए
उससे सब कहना तुम
सूरज की किरणों से
मत खुद को चमकाना
जुगनू ही रहना पर
अपनी किरणें पाना
बन कर मत रह जाना
सोने का गहना तुम
अच्छी हो
ऐसी ही रहना तुम
कांटो की बगिया में
तितली सी उड़ जाना
रस्ते में पत्थर हो
नदिया सी मुड़ जाना
भँवरों की मनमानी
गुप-चुप मत सहना तुम
सांपों का डर हो तो
चिड़िया सी चिल्लाना
बाजों के पंजों में
मत आना, मत आना
जो दिल को भा जाए
उससे सब कहना तुम
सूरज की किरणों से
मत खुद को चमकाना
जुगनू ही रहना पर
अपनी किरणें पाना
बन कर मत रह जाना
सोने का गहना तुम
रविवार, 27 जून 2021
नवगीत : बूढ़ा ट्रैक्टर
गड़गड़ाकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर
सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस
कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर
न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन
थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर
ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?
स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर
सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस
कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर
न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन
थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर
ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?
स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर
गुरुवार, 27 मई 2021
घनाक्षरी : जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा
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रेल बेच डाली मैंने तेल बेच डाला मैंने,न्याय बेच डालूँगा ईमान बेच डालूँगा।
धान बेच डाला खलिहान बेच डाला मैंने,
बोलेगा अदानी तो किसान बेच डालूँगा।
बनिया हूँ भाई सही कीमत मिली जो मुझे,
राष्ट्रगान क्या है संविधान बेच डालूँगा।
बहुमत न मिला तो झोला ले के चल दूँगा,
जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा।
सोमवार, 17 मई 2021
ग़ज़ल: किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र
बह्र : ११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२
किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र
तुझे दिल के रथ पे बिठा के मैं कभी ले चलूँ कहीं चाँद पर
तुझे छू सकूँ तो मिले सुकूँ तुझे चूम लूँ तो ख़ुदा मिले
तू जो साथ दे जग जीत लूँ तूझे पी सकूँ तो बनूँ अमर
मेरे हमनशीं मेरे हमनवा मेरे हमक़दम मेरे हमजबाँ
तुझे तुझ से लूँगा उधार, फिर, भरूँ किस्त चाहे मैं उम्र भर
कहीं धूप है कहीं छाँव है कहीं शहर है कहीं गाँव है
है कहाँ चली मेरी रहगुज़र तू जो साथ है तो किसे ख़बर
मेरी भूख तू मेरी प्यास तू मेरा जिस्म तू मेरी जान तू
तेरा नाम ख़ुद का बता रहा तू बसी है मुझमें कुछ इस क़दर
किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र
तुझे दिल के रथ पे बिठा के मैं कभी ले चलूँ कहीं चाँद पर
तुझे छू सकूँ तो मिले सुकूँ तुझे चूम लूँ तो ख़ुदा मिले
तू जो साथ दे जग जीत लूँ तूझे पी सकूँ तो बनूँ अमर
मेरे हमनशीं मेरे हमनवा मेरे हमक़दम मेरे हमजबाँ
तुझे तुझ से लूँगा उधार, फिर, भरूँ किस्त चाहे मैं उम्र भर
कहीं धूप है कहीं छाँव है कहीं शहर है कहीं गाँव है
है कहाँ चली मेरी रहगुज़र तू जो साथ है तो किसे ख़बर
मेरी भूख तू मेरी प्यास तू मेरा जिस्म तू मेरी जान तू
तेरा नाम ख़ुद का बता रहा तू बसी है मुझमें कुछ इस क़दर
रविवार, 2 मई 2021
रविवार, 18 अप्रैल 2021
ग़ज़ल: चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
बह्र : 22 22 22 22 22 2
.---------------------------------------
चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं
दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं
जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं
आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं
ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं
बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं
हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं
जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं
जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं
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चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं
दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं
जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं
आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं
ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं
बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं
हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं
जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं
जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं
बुधवार, 14 अप्रैल 2021
ग़ज़ल: अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं
बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं
तो ख़ुश्बू में सने सब आँकड़े भरपूर खट्टे हैं
मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा
वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे हैं
लगे हैं आसमाँ पर देवताओं को चढ़ेंगे सब
तुम्हारे सब्ज़-बागों के सभी अंगूर खट्टे हैं
लड़ाकर राज करना तो विलायत की रवायत है
हमारे वासिते सब आपके दस्तूर खट्टे हैं
हमेशा बस वही कहना जो सुनना चाहते हैं सब
भले ही हो गये हों आप यूँ मशहूर, खट्टे हैं
हमारे स्वाद से मत भागिये हैं स्वास्थ्यवर्द्धक हम
विटामिन सी बहुत है इसलिये भरपूर खट्टे हैं
मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा
वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे हैं
लगे हैं आसमाँ पर देवताओं को चढ़ेंगे सब
तुम्हारे सब्ज़-बागों के सभी अंगूर खट्टे हैं
लड़ाकर राज करना तो विलायत की रवायत है
हमारे वासिते सब आपके दस्तूर खट्टे हैं
हमेशा बस वही कहना जो सुनना चाहते हैं सब
भले ही हो गये हों आप यूँ मशहूर, खट्टे हैं
हमारे स्वाद से मत भागिये हैं स्वास्थ्यवर्द्धक हम
विटामिन सी बहुत है इसलिये भरपूर खट्टे हैं
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