यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
रविवार, 2 मई 2021
रविवार, 18 अप्रैल 2021
ग़ज़ल: चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
बह्र : 22 22 22 22 22 2
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चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं
दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं
जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं
आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं
ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं
बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं
हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं
जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं
जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं
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चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं
दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं
जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं
आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं
ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं
बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं
हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं
जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं
जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं
बुधवार, 14 अप्रैल 2021
ग़ज़ल: अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं
बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं
तो ख़ुश्बू में सने सब आँकड़े भरपूर खट्टे हैं
मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा
वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे हैं
लगे हैं आसमाँ पर देवताओं को चढ़ेंगे सब
तुम्हारे सब्ज़-बागों के सभी अंगूर खट्टे हैं
लड़ाकर राज करना तो विलायत की रवायत है
हमारे वासिते सब आपके दस्तूर खट्टे हैं
हमेशा बस वही कहना जो सुनना चाहते हैं सब
भले ही हो गये हों आप यूँ मशहूर, खट्टे हैं
हमारे स्वाद से मत भागिये हैं स्वास्थ्यवर्द्धक हम
विटामिन सी बहुत है इसलिये भरपूर खट्टे हैं
मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा
वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे हैं
लगे हैं आसमाँ पर देवताओं को चढ़ेंगे सब
तुम्हारे सब्ज़-बागों के सभी अंगूर खट्टे हैं
लड़ाकर राज करना तो विलायत की रवायत है
हमारे वासिते सब आपके दस्तूर खट्टे हैं
हमेशा बस वही कहना जो सुनना चाहते हैं सब
भले ही हो गये हों आप यूँ मशहूर, खट्टे हैं
हमारे स्वाद से मत भागिये हैं स्वास्थ्यवर्द्धक हम
विटामिन सी बहुत है इसलिये भरपूर खट्टे हैं
बुधवार, 27 नवंबर 2019
नवगीत : फुलवारी बन रहना
जब तक रहना जीवन में
फुलवारी बन रहना
पूजा बनकर मत रहना
तुम यारी बन रहना
दो दिन हो या चार दिनों का
जब तक साथ रहे
इक दूजे से सबकुछ कह दें
ऐसी बात रहे
सदा चहकती गौरैया सी
प्यारी बन रहना
फटे-पुराने रीति-रिवाजों को
न ओढ़ लेना
गली मुहल्ले का कचरा
घर में न जोड़ लेना
देवी बनकर मत रहना
तुम नारी बन रहना
गुस्सा आये तो जो चाहो
तोड़-फोड़ लेना
प्यार बहुत आये तो
ये तन-मन निचोड़ लेना
आँसू बनकर मत रहना
सिसकारी बन रहना
फुलवारी बन रहना
पूजा बनकर मत रहना
तुम यारी बन रहना
दो दिन हो या चार दिनों का
जब तक साथ रहे
इक दूजे से सबकुछ कह दें
ऐसी बात रहे
सदा चहकती गौरैया सी
प्यारी बन रहना
फटे-पुराने रीति-रिवाजों को
न ओढ़ लेना
गली मुहल्ले का कचरा
घर में न जोड़ लेना
देवी बनकर मत रहना
तुम नारी बन रहना
गुस्सा आये तो जो चाहो
तोड़-फोड़ लेना
प्यार बहुत आये तो
ये तन-मन निचोड़ लेना
आँसू बनकर मत रहना
सिसकारी बन रहना
रविवार, 3 नवंबर 2019
नवगीत : तेरा हाथ हिलाना
ट्रेन समय की
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना
तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं था
केवल तन छूकर मिट जाना
मेरा काम नहीं था
याद रहेगा तुझको
दिल पर
मेरा नाम गुदाना
तेरा तन था भूलभुलैया
तेरी आँखें रहबर
तेरे दिल तक मैं पहुँचा
पर तेरे पीछे चलकर
दिल का ताला
दिल की चाबी
दिल से दिल खुल जाना
इक दूजे के सुख-दुख बाँटे
हमने साँझ-सबेरे
अब तेरे आँसू तेरे हैं
मेरे आँसू मेरे
अब मुश्किल है
और किसी के
सुख-दुख को अपनाना
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना
तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं था
केवल तन छूकर मिट जाना
मेरा काम नहीं था
याद रहेगा तुझको
दिल पर
मेरा नाम गुदाना
तेरा तन था भूलभुलैया
तेरी आँखें रहबर
तेरे दिल तक मैं पहुँचा
पर तेरे पीछे चलकर
दिल का ताला
दिल की चाबी
दिल से दिल खुल जाना
इक दूजे के सुख-दुख बाँटे
हमने साँझ-सबेरे
अब तेरे आँसू तेरे हैं
मेरे आँसू मेरे
अब मुश्किल है
और किसी के
सुख-दुख को अपनाना
शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019
नवगीत : जाते हो बाजार पिया तो दलिया ले आना
जाते हो बाजार पिया तो
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना
आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद खाता रूखा-सूखा
यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको
लेकिन फिर भी तुम
बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया
ले आना
जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ
मजलूमों का
वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी
खूब बिका
मन का दर्द न मिट पायेगा
पर तन की ख़ातिर
थोड़ा हरा पुदीना
थोड़ी अँबिया ले आना
धर्म जीतता रहा सदा से
फिर से जीत गया
हारा है इंसान हमेशा
फिर से हार गया
दफ़्तर से थककर आते हो
छोड़ो यह सब तुम
याद रहे तो
इक साबुन की टिकिया ले आना
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना
आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद खाता रूखा-सूखा
यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको
लेकिन फिर भी तुम
बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया
ले आना
जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ
मजलूमों का
वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी
खूब बिका
मन का दर्द न मिट पायेगा
पर तन की ख़ातिर
थोड़ा हरा पुदीना
थोड़ी अँबिया ले आना
धर्म जीतता रहा सदा से
फिर से जीत गया
हारा है इंसान हमेशा
फिर से हार गया
दफ़्तर से थककर आते हो
छोड़ो यह सब तुम
याद रहे तो
इक साबुन की टिकिया ले आना
रविवार, 16 जून 2019
कविता : रक्षा करो
मैंने कहा जानवरों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे महात्मा बता दिया
अनेकानेक पुरस्कारों से मुझे लाद दिया
मैंने कहा पूँजीपतियों से जानवरों की रक्षा करो
मेरी बात किसी ने नहीं सुनी
कुछ ने तो मुझे पागल तक कह दिया
मैंने कहा इंसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम हरामखोरी का समर्थन करते हो
इंसान अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है
अपना पेट स्वयं भर सकता है
मैंने कहा बच्चों की रक्षा करो
उन्होंने कहा बच्चों की रक्षा तो स्वयं भगवान करते हैं
हम भगवान से बड़े थोड़े हैं
मैंने कहा समलैंगिकों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे समलैंगिक कह कर भगा दिया
मैंने कहा स्त्रियों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे स्त्रैण कहकर दुत्कार दिया
मैंने कहा किसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा ज्यादा मत बोलो वरना टाँग तोड़ देंगे
मैंने कहा किसानों की पूँजीपतियों से रक्षा करो
उन्होंने डंडा लेकर मुझे खदेड़ लिया
मैंने कहा दलितों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम अम्बेडकरवादी हो
वामपंथी हो, नास्तिक हो, अधर्मी हो
मैंने कहा आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम नक्सली हो
तुम्हें तो गोली मार देनी चाहिये
उन्होंने मुझे महात्मा बता दिया
अनेकानेक पुरस्कारों से मुझे लाद दिया
मैंने कहा पूँजीपतियों से जानवरों की रक्षा करो
मेरी बात किसी ने नहीं सुनी
कुछ ने तो मुझे पागल तक कह दिया
मैंने कहा इंसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम हरामखोरी का समर्थन करते हो
इंसान अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है
अपना पेट स्वयं भर सकता है
मैंने कहा बच्चों की रक्षा करो
उन्होंने कहा बच्चों की रक्षा तो स्वयं भगवान करते हैं
हम भगवान से बड़े थोड़े हैं
मैंने कहा समलैंगिकों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे समलैंगिक कह कर भगा दिया
मैंने कहा स्त्रियों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे स्त्रैण कहकर दुत्कार दिया
मैंने कहा किसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा ज्यादा मत बोलो वरना टाँग तोड़ देंगे
मैंने कहा किसानों की पूँजीपतियों से रक्षा करो
उन्होंने डंडा लेकर मुझे खदेड़ लिया
मैंने कहा दलितों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम अम्बेडकरवादी हो
वामपंथी हो, नास्तिक हो, अधर्मी हो
मैंने कहा आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम नक्सली हो
तुम्हें तो गोली मार देनी चाहिये
रविवार, 7 अप्रैल 2019
ग़ज़ल: अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
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अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या
बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
हम सबके भीतर सोई जो मानवता उसको
कस कर पकड़ो और झिंझोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
खर पतवार जहाँ है दिल के उन सब कोनों को
अपने तर्कों से तुम गोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
आग उगलने लगी सियासत जलते हैं मासूम
मिल जुलकर इसका मुँह तोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
सच लेकर तुम पूँजी, सत्ता से टकराओगे?
‘सज्जन’ जी अपना रुख मोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
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अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या
बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
हम सबके भीतर सोई जो मानवता उसको
कस कर पकड़ो और झिंझोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
खर पतवार जहाँ है दिल के उन सब कोनों को
अपने तर्कों से तुम गोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
आग उगलने लगी सियासत जलते हैं मासूम
मिल जुलकर इसका मुँह तोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
सच लेकर तुम पूँजी, सत्ता से टकराओगे?
‘सज्जन’ जी अपना रुख मोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019
मेरा पहला नवगीत संग्रह : नीम तले
मेरा पहला नवगीत संग्रह लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हो गया है। नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करके आप इसे अमेजन (www.amazon.in) से मँगा सकते हैं। इस संग्रह को लोकोदय नवलेखन सम्मान से सम्मानित किया गया है।
गुरुवार, 5 अप्रैल 2018
लघुकथा : लोकतंत्र
एक गाँव में कुछ लोग ऐसे थे जो देख नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो सुन नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो बोल नहीं पाते थे और कुछ ऐसे भी थे जो चल नहीं पाते थे। उस गाँव में केवल एक ऐसा आदमी था जो देखने, सुनने, बोलने के अलावा दौड़ भी लेता था। एक दिन ग्रामवासियों ने अपना नेता चुनने का निर्णय लिया। ऐसा नेता जो उनकी समस्याओं को जिलाधिकारी तक सही ढंग से पहुँचा कर उनका समाधान करवा सके।
जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो आदमी देख, सुन, बोल और दौड़ सकता था उसे केवल अपना ही वोट मिल सका। गाँव में अंधों की संख्या ज्यादा थी इसलिये एक ऐसा आदमी नेता बन गया जिसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था।
अंधा गाँव के इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी को लेकर जिलाधिकारी के पास गया और बोला, “हुजूर, माईबाप गाँव के सभी आदमियों एवं जानवरों के गले में घंटी बँधवा दीजिये और सभी वृक्षों और दीवारों में ऐसा सायरन लगवा दीजिये जो किसी के नजदीक आते ही बज उठे। इससे सारे ग्रामवासी बेधड़क सारे गाँव में घूम सकेंगे और अपना-अपना काम आराम से कर सकेंगे।”
जिलाधिकारी का दिमाग भन्ना गया। वह इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी से बोला, “यह क्या पागलपन है।”
आदमी बोला, “हुजूर यह लोकतंत्र है।”
जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो आदमी देख, सुन, बोल और दौड़ सकता था उसे केवल अपना ही वोट मिल सका। गाँव में अंधों की संख्या ज्यादा थी इसलिये एक ऐसा आदमी नेता बन गया जिसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था।
अंधा गाँव के इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी को लेकर जिलाधिकारी के पास गया और बोला, “हुजूर, माईबाप गाँव के सभी आदमियों एवं जानवरों के गले में घंटी बँधवा दीजिये और सभी वृक्षों और दीवारों में ऐसा सायरन लगवा दीजिये जो किसी के नजदीक आते ही बज उठे। इससे सारे ग्रामवासी बेधड़क सारे गाँव में घूम सकेंगे और अपना-अपना काम आराम से कर सकेंगे।”
जिलाधिकारी का दिमाग भन्ना गया। वह इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी से बोला, “यह क्या पागलपन है।”
आदमी बोला, “हुजूर यह लोकतंत्र है।”
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