खिसिया जाते, बात बात पर
दिखलाते ख़ंजर
पूँजी के बंदर
अभिनेता ही नायक है अब
और वही खलनायक
जनता के सारे सेवक हैं
पूँजी के अभिभावक
चमकीले पर्दे पर लगता
नाला भी सागर
सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें
वही खेल है मज़हब
बिक जाये जो, कालजयी है
उसका लेखक है रब
बिछड़ गये सूखी रोटी से
प्याज और अरहर
जीना है तो ताला मारो
कलम और जिह्वा पर
गली मुहल्ले साँड़ सूँघते
सब काग़ज़ सब अक्षर
पौध प्रेम की सूख गई है
नफ़रत से डरकर
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
रविवार, 15 नवंबर 2015
मंगलवार, 10 नवंबर 2015
ग़ज़ल : इक बार मुस्कुरा दो
बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
बरसे यहाँ उजाला, इक बार मुस्कुरा दो
दिल रोशनी का प्यासा, इक बार मुस्कुरा दो
बिन स्नेह और बाती, दिल का दिया है खाली
फिर भी ये जल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो
बिजली चमक उठेगी, पल भर को ही सही, पर
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो
लाखों दिये सजे हैं, मन के महानगर में
ये जल उठेंगे जाना, इक बार मुस्कुरा दो
होंठों की आँच से अब, ‘सज्जन’ पिघल रहा है
हो जाएगा तुम्हारा, इक बार मुस्कुरा दो
बरसे यहाँ उजाला, इक बार मुस्कुरा दो
दिल रोशनी का प्यासा, इक बार मुस्कुरा दो
बिन स्नेह और बाती, दिल का दिया है खाली
फिर भी ये जल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो
बिजली चमक उठेगी, पल भर को ही सही, पर
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो
लाखों दिये सजे हैं, मन के महानगर में
ये जल उठेंगे जाना, इक बार मुस्कुरा दो
होंठों की आँच से अब, ‘सज्जन’ पिघल रहा है
हो जाएगा तुम्हारा, इक बार मुस्कुरा दो
सोमवार, 19 अक्तूबर 2015
ग़ज़ल : न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है
बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२
हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है
जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है
जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है
जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है
वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है
हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है
जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है
जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है
जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है
वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है
गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015
लघुकथा : तालाब की मछलियाँ
इस बार गर्मियाँ तालाब का ढेर सारा पानी पी गईं। मछुआरे से बचते-बचाते धीरे-धीरे मछलियाँ बहुत चालाक हो गईं थीं। वो अब मछुआरे के झाँसे में नहीं आती थीं। उनके दाँत भी काफ़ी तेज़ हो गए थे। अगर कोई मछली कभी फँस भी गई तो जाल के तार काटकर निकल जाती थी। मछुआरे को पता चल गया था कि इस बार उसका पाला अलग तरह की मछलियों से पड़ा है। वो पानी कम होने का ही इंतज़ार कर रहा था।
उसने तालाब के एक कोने में बंसियाँ लगा दीं, दूसरी तरफ जाल लगा दिया और तीसरी तरफ से ख़ुद पानी में उतर कर शोर मचाने लगा। अब मछलियों के पास चौथी तरफ भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था। थोड़ी देर बाद जब मछुआरे को यकीन हो गया कि ज़्यादातर मछलियाँ भागकर चौथे कोने पर चली गई हैं तो वह तालाब के बाहर से चिकनी मिट्टी ला लाकर तालाब के चौथे किनारे को बाकी तालाब से अलग करती हुई मेंड़ बनाने लगा। मछलियाँ उसके इस अजीबोगरीब काम को हैरानी से देखने लगीं। उनमें से एक मछली जो बहुत बातूनी थी बोल पड़ी, “मछेरे, बरसात में तालाब का पानी बढ़ेगा तो तेरी मेंड़ बह जाएगी। क्यूँ बेकार का परिश्रम कर रहा है।”
मछेरा बोला, “मैंने अब तक खेतों में ही मेंड़ देखी है, मैं इस तालाब में मेंड़ बनाकर एक नया प्रयोग कर रहा हूँ।”
मछलियाँ मछेरे के पागलपन पर हँसने लगीं। मछेरा अपना काम करता रहा। जब खूब ऊँची मेंड़ बन गई तब उसने चौथे कोने का पानी तालाब में उलीचना शुरू किया। जब चौथे कोने में पानी काफ़ी कम हो गया तो मछलियों को साँस लेने में दिक्कत होने लगी। अब उन्हें मछेरे की चाल समझ में आई लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। मछेरा थक कर थोड़ी देर के लिए सुस्ताने बैठ गया। मछलियों ने उछल कर मेंड़ पार करने की कोशिश की मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।
थोड़ी देर बाद जब पानी में घुली ऑक्सीजन काफ़ी कम हो गई और मछलियाँ तड़पने लगीं तब उनमें से एक ने कहा, “मछेरे हमें इस कष्ट से मुक्ति दिला दे। हम तड़प तड़प कर नहीं मरना चाहतीं। हमें पानी से बाहर निकाल कर ज़ल्दी से मार दे।”
मछेरा मुस्कुराते हुए उठा और बोला, “तालाब की मछलियाँ कितनी भी चालाक क्यों न हो जायँ उनका मछेरे से बचना असंभव है।”
उसने तालाब के एक कोने में बंसियाँ लगा दीं, दूसरी तरफ जाल लगा दिया और तीसरी तरफ से ख़ुद पानी में उतर कर शोर मचाने लगा। अब मछलियों के पास चौथी तरफ भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था। थोड़ी देर बाद जब मछुआरे को यकीन हो गया कि ज़्यादातर मछलियाँ भागकर चौथे कोने पर चली गई हैं तो वह तालाब के बाहर से चिकनी मिट्टी ला लाकर तालाब के चौथे किनारे को बाकी तालाब से अलग करती हुई मेंड़ बनाने लगा। मछलियाँ उसके इस अजीबोगरीब काम को हैरानी से देखने लगीं। उनमें से एक मछली जो बहुत बातूनी थी बोल पड़ी, “मछेरे, बरसात में तालाब का पानी बढ़ेगा तो तेरी मेंड़ बह जाएगी। क्यूँ बेकार का परिश्रम कर रहा है।”
मछेरा बोला, “मैंने अब तक खेतों में ही मेंड़ देखी है, मैं इस तालाब में मेंड़ बनाकर एक नया प्रयोग कर रहा हूँ।”
मछलियाँ मछेरे के पागलपन पर हँसने लगीं। मछेरा अपना काम करता रहा। जब खूब ऊँची मेंड़ बन गई तब उसने चौथे कोने का पानी तालाब में उलीचना शुरू किया। जब चौथे कोने में पानी काफ़ी कम हो गया तो मछलियों को साँस लेने में दिक्कत होने लगी। अब उन्हें मछेरे की चाल समझ में आई लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। मछेरा थक कर थोड़ी देर के लिए सुस्ताने बैठ गया। मछलियों ने उछल कर मेंड़ पार करने की कोशिश की मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।
थोड़ी देर बाद जब पानी में घुली ऑक्सीजन काफ़ी कम हो गई और मछलियाँ तड़पने लगीं तब उनमें से एक ने कहा, “मछेरे हमें इस कष्ट से मुक्ति दिला दे। हम तड़प तड़प कर नहीं मरना चाहतीं। हमें पानी से बाहर निकाल कर ज़ल्दी से मार दे।”
मछेरा मुस्कुराते हुए उठा और बोला, “तालाब की मछलियाँ कितनी भी चालाक क्यों न हो जायँ उनका मछेरे से बचना असंभव है।”
सोमवार, 28 सितंबर 2015
ग़ज़ल : कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था
बह्र : १२२२ १२२२ १२२
सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था
मैं पागल था मगर इतना नहीं था
बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे
तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था
हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ
मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था
यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की
ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था
तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी
कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था
सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था
मैं पागल था मगर इतना नहीं था
बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे
तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था
हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ
मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था
यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की
ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था
तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी
कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था
गुरुवार, 24 सितंबर 2015
ग़ज़ल : जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २
चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं
जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं
कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे
जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं
उनकी तो हर बात सियासी होगी ही
यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?
दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी
मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं
रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर
हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं
चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं
जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं
कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे
जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं
उनकी तो हर बात सियासी होगी ही
यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?
दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी
मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं
रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर
हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं
शनिवार, 12 सितंबर 2015
कविता : राजधानी में ब्लैक होल
देशों की चमचमाती हुई राजधानियाँ
हर आकाशगंगा के केन्द्र में
बैठा हुआ एक ब्लैक होल
किसी गाँव के सूरज से करोड़ों गुना बड़ा
अपने आसपास मौजूद तारों को
अपने इशारों पर नचाता हुआ
उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है
फिर भी वो अपने चारों तरफ रचता है चमचमाता हुआ प्रभामंडल
उन तारों के प्रकाश को विकृत करके
जो उससे दूर, बहुत दूर होते हैं
ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता
है
जिसके अनुसार किसी बंद व्यवस्था की सम्पूर्ण अराजकता
हमेशा बढ़ती है
ब्लैक होल
दुनिया की सबसे अराजक व्यवस्था है
फिर भी ये बाहर से देखने पर
ब्रह्मांड की सबसे शालीन व्यवस्था लगती है
क्योंकि इसे अपना बाहरी तापमान नियंत्रित रखना आता है
ये सूचनाएँ नष्ट तो नहीं कर सकता
लेकिन सूचना के अधिकार से प्राप्त सूचनाओं से
इसके भीतर की कोई भी जानकारी
बाहर नहीं आ सकती
लेकिन मैं निराश नहीं हूँ
मुझे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन
हम दिक्काल में सुरंगें बनाकर
इसके भीतर भरी जानकारियाँ
बाहर ले ही आएँगें
भले ही ऐसा होने पर
व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा जड़ से उखड़ जाय
अँधेरे में किया गया विश्वास भी
आख़िर अंधविश्वास ही होता है
शुक्रवार, 11 सितंबर 2015
ग़ज़ल : इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर
ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री
पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते
ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
आँख मूँद जो करें भरोसा सच्चे भक्त कहे जाते
ज्ञानार्थी कोसे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
गली गली अंधेर मचा है फिर भी जन्नत की ख़ातिर
सारे के सारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर
ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री
पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते
ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
आँख मूँद जो करें भरोसा सच्चे भक्त कहे जाते
ज्ञानार्थी कोसे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
गली गली अंधेर मचा है फिर भी जन्नत की ख़ातिर
सारे के सारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
गुरुवार, 3 सितंबर 2015
ग़ज़ल : मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
अपनी ताक़त के बलबूते हाथी ज़िन्दा है
मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है
कैसे मानूँ रूठ गया है मेरा रब मुझसे
मैं ज़िन्दा हूँ, पैमाना है, साकी ज़िन्दा है
सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से
कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है
लड़ते हैं मौसम से, सिस्टम से मरते दम तक
इसीलिए ज़िन्दा हैं खेत, किसानी ज़िन्दा है
सबकुछ बेच रही, मानव से लेकर ईश्वर तक
ऐसे थोड़े ही दुनिया में पूँजी ज़िन्दा है
आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन
ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है
अपनी ताक़त के बलबूते हाथी ज़िन्दा है
मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है
कैसे मानूँ रूठ गया है मेरा रब मुझसे
मैं ज़िन्दा हूँ, पैमाना है, साकी ज़िन्दा है
सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से
कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है
लड़ते हैं मौसम से, सिस्टम से मरते दम तक
इसीलिए ज़िन्दा हैं खेत, किसानी ज़िन्दा है
सबकुछ बेच रही, मानव से लेकर ईश्वर तक
ऐसे थोड़े ही दुनिया में पूँजी ज़िन्दा है
आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन
ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है
मंगलवार, 25 अगस्त 2015
ग़ज़ल : उनकी आँखों में झील सा कुछ है
बह्र : २१२२ १२१२ २२
उनकी आँखों में झील सा कुछ है
बाकी आँखों में चील सा कुछ है
सुन्न पड़ता है अंग अंग मेरा
उनके होंठों में ईल सा कुछ है
फैसले ख़ुद-ब-ख़ुद बदलते हैं
उनका चेहरा अपील सा कुछ है
हार जाते हैं लोग दिल अकसर
हुस्न उनका दलील सा कुछ है
ज्यूँ अँधेरा हुआ, हुईं रोशन
उनकी यादों में रील सा कुछ है
उनकी आँखों में झील सा कुछ है
बाकी आँखों में चील सा कुछ है
सुन्न पड़ता है अंग अंग मेरा
उनके होंठों में ईल सा कुछ है
फैसले ख़ुद-ब-ख़ुद बदलते हैं
उनका चेहरा अपील सा कुछ है
हार जाते हैं लोग दिल अकसर
हुस्न उनका दलील सा कुछ है
ज्यूँ अँधेरा हुआ, हुईं रोशन
उनकी यादों में रील सा कुछ है
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