सोमवार, 27 जुलाई 2015

लघुकथा : उल्टी

सरकारी खर्चे पर होटल के कमरे में बैठे बैठे साहब ने एक तंदूरी मुर्गा खत्म किया। फिर पानी पीकर डकार मारते हुए किसी बड़े लेखक का अत्यन्त मार्मिक उपन्यास पढ़ने लगे। उपन्यास में गरीबों की दशा का जिस तरह वर्णन किया गया था वह पढ़ते पढ़ते साहब का पहले से भरा पेट और फूलने लगा। अन्त में जब साहब से पेट दर्द सहन नहीं हुआ तो वो उठकर अपनी मेज पर गए। दराज से अपनी डायरी निकाली और एक सादा पन्ना खोलकर शब्दों की उल्टी करने लगे।

पेट खाली हो जाने के बाद उन्हें असीम आनन्द की अनुभूति हुई। उन्होंने एसी का तापमान अठारह डिग्री किया और कम्बल तान कर लेट गए। लेटे लेटे वो सोचने लगे कि क्या शानदार लघुकथा हुई है। इसे पढ़कर प्रदेश की वामपंथी सरकार मुझे अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण पद दे देगी। सोचते सोचते उन्हें नींद आ गई और वो सो गए।

कमरे की हवा से जब शब्दों की दुर्गन्ध सही नहीं गई तो उसने अपना सारा दम लगाकर डायरी का पन्ना पलट दिया।

शनिवार, 25 जुलाई 2015

लघुकथा : बहाना

काली सड़क लाल खून से भीगकर कत्थई हो गई थी। एक तरफ से अल्ला हो अकबर के नारे लग रहे थे तो दूसरी तरफ जय श्रीराम गूँज रहा था। हाथ, पाँव, आँख, नाक, कान, गर्दन एक के बाद एक कट कट कर सड़क पर गिर रहे थे। सर विहीन धड़ छटपटा रहे थे। बगल की छत पर खड़ा एक आदमी जोर जोर से हँस रहा था।

एक एक कर जब लगभग सारे सर काट दिये गये तब बचे हुए दो चार दंगाईयों की निगाह छत पर गई। वहाँ खड़ा आदमी अभी तक हँस रहा था। एक दंगाई ने छलाँग मारकर खिड़की के छज्जे को पकड़ा और अपने शरीर को हाथों के दम पर उठाता हुआ कुछ ही क्षणों में छत पर पहुँच गया। छत पर खड़े आदमी की हँसी गायब हो गई। वो बोला, “मुझे क्यूँ मार रहे हो मैं तो नास्तिक हूँ।“

मारने वाले ने कहा, “तुझे इसलिए मार रहा हूँ क्यूँकि तू हम पर हँस रहा था।”

मरने वाला मरने से पहले इतना ही बोल सका, “हत्यारों को हत्या करने का बहाना चाहिए।”

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

लघुकथा : बल्ब और सीएफ़एल

सीएफ़एल बोली, "हे बल्ब महोदय! आप ऊर्जा बहुत ज्यादा खर्च करते हैं और रोशनी बहुत कम देते हैं। मैं आपकी तुलना में बहुत कम ऊर्जा खर्च करके आपसे कई गुना ज्यादा रोशनी दे सकती हूँ।"

बल्ब महोदय ने चुपचाप सीएफ़एल के लिए कुर्सी खाली कर दी। रोशनी फैलाने वालों के इतिहास में बल्ब महोदय का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।

रविवार, 19 जुलाई 2015

ग़ज़ल : ख़ुदा बोलता है बशर में उतर कर

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२

ख़ुदाई जब आए हुनर में उतर कर
ख़ुदा बोलता है बशर में उतर कर

भरोसा न हो मेरी हिम्मत पे जानम
तो ख़ुद देख दिल से जिगर में उतर कर

इसी से बना है ये ब्रह्मांड सारा
कभी देख लेना सिफ़र में उतर कर

महीनों से मदहोश है सारी जनता
नशा आ रहा है ख़बर में उतर कर

तेरी स्वच्छता की ये कीमत चुकाता
कभी देख तो ले गटर में उतर कर

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

ग़ज़ल : ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये
ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो
खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये

भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान
खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये

पूँजी के टायरों के तले आ के आपके
कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये

फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप
गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा उठाइये

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

ग़ज़ल : हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर

राह यही जाती रूहानी मंजिल तक
दुनिया क्यूँ रुक जाती है जिस्मानी पर

नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर

दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर

जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर

सोमवार, 6 जुलाई 2015

नवगीत : नाच रहा पंखा

देखो कैसे
एक धुरी पर
नाच रहा पंखा

दिनोरात
चलता रहता है
नींद चैन त्यागे
फिर भी अब तक
नहीं बढ़ सका
एक इंच आगे

फेंक रहा है
फर फर फर फर
छत की गर्म हवा

इस भीषण
गर्मी में करता
है केवल बातें
दिन तो छोड़ो
मुश्किल से अब
कटती हैं रातें

घर से बाहर
लू चलती है
जाएँ कहाँ  भला

लगा घूमने का
बचपन से ही
इसको चस्का
कोई आकर
चुपके से दे
बटन दबा इसका

व्यर्थ हो रही
बिजली की ये
है अंतिम इच्छा

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

ग़ज़ल : जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है
रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको
हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें
पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में
यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना
वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है

मंगलवार, 30 जून 2015

ग़ज़ल : सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं
सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले
गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं

जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा
जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं

कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के
तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं

किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की
न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने हैं

शुक्रवार, 26 जून 2015

नवगीत : बूँद बूँद बरसो

बूँद बूँद बरसो
मत धार धार बरसो

करते हो
यूँ तो तुम
बारिश कितनी सारी
सागर से
मिल जुलकर
हो जाती सब खारी

जितना सोखे धरती
उतना ही बरसो पर
कभी कभी मत बरसो
बार बार बरसो

गागर है
जीवन की
बूँद बूँद से भरती
बरसें गर
धाराएँ
टूट फूट कर बहती

जब तक मन करता हो
तब तक बरसो लेकिन
ढेर ढेर मत बरसो
सार सार बरसो