काली सड़क लाल खून से भीगकर कत्थई हो गई थी। एक तरफ से अल्ला हो अकबर के नारे लग रहे थे तो दूसरी तरफ जय श्रीराम गूँज रहा था। हाथ, पाँव, आँख, नाक, कान, गर्दन एक के बाद एक कट कट कर सड़क पर गिर रहे थे। सर विहीन धड़ छटपटा रहे थे। बगल की छत पर खड़ा एक आदमी जोर जोर से हँस रहा था।
एक एक कर जब लगभग सारे सर काट दिये गये तब बचे हुए दो चार दंगाईयों की निगाह छत पर गई। वहाँ खड़ा आदमी अभी तक हँस रहा था। एक दंगाई ने छलाँग मारकर खिड़की के छज्जे को पकड़ा और अपने शरीर को हाथों के दम पर उठाता हुआ कुछ ही क्षणों में छत पर पहुँच गया। छत पर खड़े आदमी की हँसी गायब हो गई। वो बोला, “मुझे क्यूँ मार रहे हो मैं तो नास्तिक हूँ।“
मारने वाले ने कहा, “तुझे इसलिए मार रहा हूँ क्यूँकि तू हम पर हँस रहा था।”
मरने वाला मरने से पहले इतना ही बोल सका, “हत्यारों को हत्या करने का बहाना चाहिए।”
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शनिवार, 25 जुलाई 2015
मंगलवार, 21 जुलाई 2015
लघुकथा : बल्ब और सीएफ़एल
सीएफ़एल बोली, "हे बल्ब महोदय! आप ऊर्जा बहुत ज्यादा खर्च करते हैं और रोशनी बहुत कम देते हैं। मैं आपकी तुलना में बहुत कम ऊर्जा खर्च करके आपसे कई गुना ज्यादा रोशनी दे सकती हूँ।"
बल्ब महोदय ने चुपचाप सीएफ़एल के लिए कुर्सी खाली कर दी। रोशनी फैलाने वालों के इतिहास में बल्ब महोदय का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।
बल्ब महोदय ने चुपचाप सीएफ़एल के लिए कुर्सी खाली कर दी। रोशनी फैलाने वालों के इतिहास में बल्ब महोदय का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।
रविवार, 19 जुलाई 2015
ग़ज़ल : ख़ुदा बोलता है बशर में उतर कर
बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२
ख़ुदाई जब आए हुनर में उतर कर
ख़ुदा बोलता है बशर में उतर कर
भरोसा न हो मेरी हिम्मत पे जानम
तो ख़ुद देख दिल से जिगर में उतर कर
इसी से बना है ये ब्रह्मांड सारा
कभी देख लेना सिफ़र में उतर कर
महीनों से मदहोश है सारी जनता
नशा आ रहा है ख़बर में उतर कर
तेरी स्वच्छता की ये कीमत चुकाता
कभी देख तो ले गटर में उतर कर
ख़ुदाई जब आए हुनर में उतर कर
ख़ुदा बोलता है बशर में उतर कर
भरोसा न हो मेरी हिम्मत पे जानम
तो ख़ुद देख दिल से जिगर में उतर कर
इसी से बना है ये ब्रह्मांड सारा
कभी देख लेना सिफ़र में उतर कर
महीनों से मदहोश है सारी जनता
नशा आ रहा है ख़बर में उतर कर
तेरी स्वच्छता की ये कीमत चुकाता
कभी देख तो ले गटर में उतर कर
गुरुवार, 16 जुलाई 2015
ग़ज़ल : ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये
बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२
हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये
ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये
जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो
खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये
भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान
खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये
पूँजी के टायरों के तले आ के आपके
कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये
फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप
गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा उठाइये
हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये
ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये
जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो
खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये
भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान
खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये
पूँजी के टायरों के तले आ के आपके
कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये
फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप
गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा उठाइये
गुरुवार, 9 जुलाई 2015
ग़ज़ल : हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर
राह यही जाती रूहानी मंजिल तक
दुनिया क्यूँ रुक जाती है जिस्मानी पर
नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर
दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर
जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर
हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर
राह यही जाती रूहानी मंजिल तक
दुनिया क्यूँ रुक जाती है जिस्मानी पर
नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर
दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर
जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर
सोमवार, 6 जुलाई 2015
नवगीत : नाच रहा पंखा
देखो कैसे
एक धुरी पर
नाच रहा पंखा
दिनोरात
चलता रहता है
नींद चैन त्यागे
फिर भी अब तक
नहीं बढ़ सका
एक इंच आगे
फेंक रहा है
फर फर फर फर
छत की गर्म हवा
इस भीषण
गर्मी में करता
है केवल बातें
दिन तो छोड़ो
मुश्किल से अब
कटती हैं रातें
घर से बाहर
लू चलती है
जाएँ कहाँ भला
लगा घूमने का
बचपन से ही
इसको चस्का
कोई आकर
चुपके से दे
बटन दबा इसका
व्यर्थ हो रही
बिजली की ये
है अंतिम इच्छा
एक धुरी पर
नाच रहा पंखा
दिनोरात
चलता रहता है
नींद चैन त्यागे
फिर भी अब तक
नहीं बढ़ सका
एक इंच आगे
फेंक रहा है
फर फर फर फर
छत की गर्म हवा
इस भीषण
गर्मी में करता
है केवल बातें
दिन तो छोड़ो
मुश्किल से अब
कटती हैं रातें
घर से बाहर
लू चलती है
जाएँ कहाँ भला
लगा घूमने का
बचपन से ही
इसको चस्का
कोई आकर
चुपके से दे
बटन दबा इसका
व्यर्थ हो रही
बिजली की ये
है अंतिम इच्छा
गुरुवार, 2 जुलाई 2015
ग़ज़ल : जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है
बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २
जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है
रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है
पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको
हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है
छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें
पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है
सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में
यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है
तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना
वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है
जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है
रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है
पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको
हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है
छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें
पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है
सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में
यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है
तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना
वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है
मंगलवार, 30 जून 2015
ग़ज़ल : सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं
बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२
हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं
सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं
जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले
गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं
जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा
जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं
कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के
तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं
किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की
न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने हैं
हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं
सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं
जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले
गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं
जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा
जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं
कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के
तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं
किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की
न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने हैं
शुक्रवार, 26 जून 2015
नवगीत : बूँद बूँद बरसो
बूँद बूँद बरसो
मत धार धार बरसो
करते हो
यूँ तो तुम
बारिश कितनी सारी
सागर से
मिल जुलकर
हो जाती सब खारी
जितना सोखे धरती
उतना ही बरसो पर
कभी कभी मत बरसो
बार बार बरसो
गागर है
जीवन की
बूँद बूँद से भरती
बरसें गर
धाराएँ
टूट फूट कर बहती
जब तक मन करता हो
तब तक बरसो लेकिन
ढेर ढेर मत बरसो
सार सार बरसो
सोमवार, 22 जून 2015
ग़ज़ल : ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22
ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए
फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए
इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये
मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये
जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ
उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये
सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये
जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये
ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए
फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए
इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये
मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये
जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ
उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये
सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये
जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये
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