शनिवार, 16 मई 2015

ग़ज़ल : मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ

कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ

इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ

भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ
सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ

इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको
इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ

मंगलवार, 12 मई 2015

कविता : प्रेम (सात छोटी कविताएँ)

(१)

तुम्हारा शरीर
रेशम से बुना हुआ
सबसे मुलायम स्वेटर है

मेरा प्यार उस सिरे की तलाश है
जिसे पकड़कर खींचने पर
तुम्हारा शरीर धीरे धीरे अस्तित्वहीन हो जाएगा
और मिल सकेंगे हमारे प्राण

(२)

तुम्हारे होंठ
ओलों की तरह गिरते हैं मेरे बदन पर
जहाँ जहाँ छूते हैं
ठंडक और दर्द का अहसास एक साथ होता है

फिर तुम्हारे प्यार की माइक्रोवेव
इतनी तेजी से गर्म करती है मेरा ख़ून
कि मेरा अस्तित्व कार की विंडस्क्रीन की तरह
एक पल में टूटकर बिखर जाता है

(३)

तुम्हारे प्यार की बारिश
मेरे आसपास के वातावरण में ही नहीं
मेरे फेफड़ों में भी नमी की मात्रा बढ़ा देती है

हरा रंग बगीचे में ही नहीं
मेरी आँखों में भी उग आता है

कविताएँ कागज़ पर ही नहीं
मेरी त्वचा पर भी उभरने लगती हैं

बूदों की चोट तुम्हारे मुक्कों जैसी है
मेरा तन मन भीतर तक गुदगुदा उठता है

(४)

तुम्हारा प्यार
विकिरण की तरह समा जाता है मुझमें
और बदल देता है मेरी आत्मा की संरचना

आत्मा को कैंसर नहीं होता

(५)

प्यार में
मेरे शरीर का हार्मोन
तुम्हारे शरीर में बनता है
और तुम्हारे शरीर का हार्मोन
मेरे शरीर में

इस तरह न तुम स्त्री रह जाती हो
न मैं पुरुष
हम दोनों प्रेमी बन जाते हैं

(६)

पहली बारिश में
हवा अपनी अशुद्धियों को भी मिला देती है

प्रेम की पहली बारिश में मत भीगना
उसे दिल की खिड़की खोलकर देखना
जी भर जाने तक
आँख भर आने तक

(७)
प्रेम अगर शराब नहीं है
तो गंगाजल भी नहीं है

प्रेम इन दोनों का सही अनुपात है
जो पीनेवाले की सहनशीलता पर निर्भर है

बुधवार, 6 मई 2015

ग़ज़ल : गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है
गरीबी बावफ़ा आकर कलेजे से लगाती है

भरा हो पेट जिसका ठूँस कर उसको खिलाती, पर
जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है

अमीरी का दिवाला भर निकलता है यहाँ लेकिन
गरीबी ऋण न चुकता कर सके तो जाँ गँवाती है

अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा
गरीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है

ये दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं इसलिए ‘सज्जन’
गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे
लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे

द्वार किसी के बिना बुलाए क्यूँ जाएँ हम
ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे

कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी
बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को
अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे

काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना
जिनको जल्दी जाना ही है, वो जाएँगे

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : हम इतने चालाक न थे

बह्र : २२ २२ २२ २
         
जीवन में कुछ बन पाते
हम इतने चालाक न थे

सच तो इक सा रहता है
मैं बोलूँ या तू बोले

हारेंगे मज़लूम सदा
ये जीते या वो जीते

पेट भरा था हम सबका
भूख समझ पाते कैसे

देख तुझे जीता हूँ मैं
मर जाता हूँ देख तुझे

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब
दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब

पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब
फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब

महलों की चमचागीरी में जुटे रहें हरदम
डीयम-वीयम, यसपी-वसपी, जनरल-वनरल सब

समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे
ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब

कंकरीट का राक्षस धीरे धीरे खाएगा
बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब

जो न बिकेंगे पूँजी के हाथों मिट जाएँगे
पाकड़-वाकड़, बरगद-वरगद, पीपल-वीपल सब

आज अगर धरती दे दोगे कल वो माँगेंगे
अम्बर-वम्बर, सूरज-वूरज, मंगल-वंगल सब

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : इसकी लहू से ख़ूब सिंचाई हुई तो है

बह्र : 221 2121 1221 212

रोटी की रेडियस, जो तिहाई हुई, तो है
पूँजी की ग्रोथ रेट सवाई हुई तो है

ख़ुद का भी घर जला है तो अब चीखने लगे
ये आग आप ही की लगाई हुई तो है

बारिश के इंतजार में सदियाँ गुज़र गईं
महलों की नींव तक ये खुदाई हुई तो है

खाली भले है पेट मगर ये भी देखिए
छाती हवा से हम ने फुलाई हुई तो है

क्यूँ दर्द बढ़ रहा है मेरा, न्याय ने दवा
ज़ख़्मों के आस पास लगाई हुई तो है

वर्षों से इस ज़मीन में कुछ भी नहीं उगा
इसकी लहू से ख़ूब सिंचाई हुई तो है

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

नवगीत : चंचल नदी बाँध के आगे

चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार, गई

टेढ़े चाल चलन के
उस पर थे
इल्ज़ाम लगे
उसकी गति में
थी जो बिजली
उसके दाम लगे

पत्थर के आगे
मिन्नत सब
हो बेकार गई

टूटी लहरें
छूटी कल कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर
पर्तों में बदली

सदा स्वस्थ
रहने वाली
होकर बीमार गई

अपनी राहें
ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सब से
पूछ रही है
रुक जाए, बह ले

आजीवन फिर
उसी राह से
हो लाचार, गई

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है
वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो
देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब
इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल रहे हैं ‘सज्जन’ जी
जल्दी ही अब इनका भी कारागृह जाना पक्का है

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन
पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन

उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन
अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन

उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन
जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन

पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन
पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन

मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है
नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन