सुनकर मज़्लूमों की आहें
ब्राह्मणवाद हँसा
धर्म, वेद के गार्ड बिठाकर
जाति, गोत्र की जेल बनाई
चंद बुद्धिमानों से मिलकर
मज़्लूमों की रेल बनाई
गणित, योग, विज्ञान सभी में
जाकर धर्म घुसा
स्वर्ग-नर्क गढ़ दिये शून्य में
अतल, वितल, पाताल रच दिया
भाँति भाँति के तंत्र-मंत्र से
भरतखण्ड का भाल रच दिया
कवियों के कल्पित जालों में
मानव-मात्र फँसा
सत्ता का गुरु बनकर बैठा
पूँजी को निज दास बनाया
शक्ति जहाँ देखी
चरणों में गिरकर अपने साथ मिलाया
मानवता की साँसें फूलीं
फंदा और कसा
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
बुधवार, 28 जनवरी 2015
सोमवार, 26 जनवरी 2015
ग़ज़ल : समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था
बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
अपनी मिठास पे उसे बेहद गुरूर था
समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था
मृगया में लिप्त शेर को देखा जरूर था
बकरी के खानदान का इतना कुसूर था
दिल्ली से दिल मिला न ही दिल्ली में दिल मिला
दिल्ली में रह के भी मैं यूँ दिल्ली से दूर था
शब्दों से विश्व जीत के शब्दों में छुप गया
लगता था जग को वीर जो, शब्दों का शूर था
हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें
लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था
शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल
दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था
सोमवार, 19 जनवरी 2015
गीत : अनपढ़ बाबा
अनपढ़ बाबा
सारे जग को
बाँट रहे हैं ज्ञान
भ्रष्टाचारी की सुख सुविधा
और गरीबों की लाचारी
पूर्वजन्म के कर्मों का फल
पाते राजा और भिखारी
सारे प्रश्नों का उत्तर वो
देते एक समान
ध्यान मग्न हो पूजा करना
दान दक्षिणा देना जम कर
व्रत उपवास हमेशा रखना
प्रभु देंगे तुमको घर भर कर
बाबा जी का गणित यही है
और यही विज्ञान
भूत भविष्य इन्हें दिखता है
सबका भाग्य बताते हैं ये
गुरु ईश्वर से भी बढ़कर है
सबको यही सिखाते हैं ये
भगवा वस्त्र पहनकर खुद को
बता रहे भगवान
शनिवार, 17 जनवरी 2015
ग़ज़ल : एक फूल को सौ सौ काँटे
बह्र : २२ २२ २२ २२
क्या जोड़े तू, कैसे बाँटे
एक फूल को सौ सौ काँटे
अरबों भक्तों की दुनिया में
कुछ पूँजीपति कैसे छाँटे
आशिक तेरे दोनों हैं पर
इसको चुम्बन उसको चाँटे
धरती भी तो आखिर माँ है
सबको चूमे सबको डाँटे
ले तेरा तुझको अर्पित है
दुख, लाचारी, काँटे, चाँटे
बुधवार, 14 जनवरी 2015
ग़ज़ल : मैं तुमसे ऊब न जाऊँ न बार बार मिलो
बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ ११२
मैं तुमसे ऊब न जाऊँ न बार बार मिलो
बनी रहेगी मुहब्बत, कभी कभार मिलो
महज़ हो साथ टहलना तो आर पार मिलो
अगर हो डूब के मिलना तो बीच धार मिलो
मुझे भी खुद सा ही तुम बेकरार पाओगे
कभी जो शर्म-ओ-हया कर के तार तार मिलो
प्रकाश, गंध, छुवन, स्वप्न, दर्द, इश्क़, मिलन
मुझे मिलो तो सनम यूँ क्रमानुसार मिलो
दिमाग, हुस्न कभी साथ रह नहीं सकते
इसी यकीन पे बन के कड़ा प्रहार मिलो
शनिवार, 10 जनवरी 2015
ग़ज़ल : मैं भी आदम का बच्चा हूँ मैंने कब इनकार किया है
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
हाँ मैं भी गलती करता हूँ मैंने कब इनकार किया है
मैं भी आदम का बच्चा हूँ मैंने कब इनकार किया है
जब गुस्से में हूँ, तीख़ा हूँ, मैंने कब इनकार किया है
जब आँसू हूँ, तो खारा हूँ मैंने कब इनकार किया है
अनुभव के आगे बच्चा हूँ मैंने कब इनकार किया है
बचपन के आगे बूढ़ा हूँ मैंने कब इनकार किया है
मजलूमों का खून चलाता है जिन यंत्रों को उनका ही
मैं भी छोटा सा पुर्जा हूँ मैंने कब इनकार किया है
दफ़्तर से घर, घर से दफ़्तर, ऐसे सभ्य हुआ हूँ मैं भी
लेकिन मन का बंजारा हूँ मैंने कब इनकार किया है
मज़लूमों की ख़ातिर मन में दर्द बहुत है फिर भी ‘सज्जन’
तन की सुविधा का चमचा हूँ मैंने कब इनकार किया है
मंगलवार, 6 जनवरी 2015
कविता : तुम्हारे प्रेम के बिना
चित्र : चुम्बन (पाब्लो पिकासो)
हमारे होंठ हमारा प्यार हैं
खाते समय कभी न कभी
होंठ कट ही जाते हैं
शुक्र है कि लार
में जीवित नहीं रह पाते सड़न पैदा करने वाले विषाणु
इसलिए होंठों पर लगे घाव जल्दी भर जाते हैं
क्रमिक विकास में
हमने
होंठों को बचा कर
रखना सीख लिया है
कितनी सारी ग़ज़लें
जबरन कहे गए मत्ले के साथ जीती हैं
कितने सारे मत्ले
भर्ती के अश’आर संग निबाहते हैं
मुकम्मल ग़ज़लें
दुनियाँ में होती ही कितनी हैं
हमारा प्यार
मुकम्मल ग़ज़ल हो
मैंने इतनी बड़ी
ख़्वाहिश कभी नहीं की
बस एक शे’र ऐसा हो
जिसे दुनिया अपने
दिल-ओ-दिमाग से निकाल न
सके
जिसका मिसरा-ए-ऊला मैं होऊँ और
मिसरा-ए-सानी तुम
तुम्हारा जिस्म एक
भूलभुलैया है
हर बार तुम्हारी
आत्मा तक पहुँचते पहुँचते मैं राह भटक जाता हूँ
तुम्हारे हाथों पर
किसी और की लगाई मेरे नाम की मेंहदी नहीं हूँ मैं
जिसे चार कपड़े और
चार बर्तन, चार दिन में हमेशा के लिए मिटा देंगे
मैं तुम्हारी आत्मा
की तलाश में निकला वो मुसाफिर हूँ
जो कभी अपनी मंजिल
तक नहीं पहुँच पाएगा
लेकिन ये जानते हुए
भी तुम्हारी आत्मा हमेशा जिसका इंतजार करेगी
तुमको छू कर आता
हुआ प्रकाश
मेरी आँख का पानी
है
बादल आँसू बहाते
हैं और रेगिस्तान रोता है
रोने वालों की
आँखें अक्सर सूखी रहती हैं
आँसू बहाने वाले
अक्सर रोते नहीं
तुमको सोते हुए
देखना
तुममें घुलना है
कपड़े तुम्हारे जिस्म से उतरते ही मर जाते
हैं
साँस तुम्हारे जिस्म से निकलते ही भभक
उठती है
चूड़ियाँ तुम्हारे हाथों से निकलकर गूँगी
हो जाती हैं
तुम गहने पहनना छोड़ दो तो क्या इस्तेमाल
रह जाएगा अनमोल पत्थरों का
तुम न होती तो पुरुष अपने झूठे अहंकार के
लिए लड़ भिड़ कर कब का खत्म हो गए होते
तुम्हारे छूने भर से बेजुबान चीजें
गुनगुनाने लगती हैं
जीवन तुम्हारी छुवन में है
ईश्वर तक पहुँचने
के रास्ते का एकमात्र द्वार तुम्हारे दिल में है
तुम्हारे दिल तक पहुँचने के रास्ते में ढेर सारे मंदिर,
मस्जिद,
धर्मग्रंथ,
धर्मगुरु
“ईश्वर
ले लो, ईश्वर
ले लो, सस्ता
सुंदर और टिकाऊ ईश्वर ले लो” की आवाज लगाते रहते हैं
“नारी
नरक का द्वार है” मानव इतिहास का सबसे भयानक झूठ
है
हर शिव ये जानता है
कि कामदेव के बिना सृष्टि का चलना असंभव है
किंतु हर शिव
कामदेव को भस्म करने का नाटक रचता है
परिणाम?
कामदेव अदृश्य और
अजेय हो कर वापस आता है
एक गाँव में किसी
घर के पिछवाड़े एक कुआँ था। न जाने कौन घर की चीजें जैसे कपड़े, खाना
इत्यादि ले जाकर कुएँ में डाल देता था। सब खोज खोजकर
हार गए लेकिन कारण का पता नहीं चला। अंत में सबने मान लिया कि उस कुएँ में कोई भूत
रहता है। कई भूत भगाने वाले बुलाये गये पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। कुछ सालों बाद
घरवालों ने वो कुआँ ही बंद करवा दिया। ये प्रेत कथा उस गाँव के लोग तरह तरह से
सुनते सुनाते थे और बच्चों को डराते थे। पर उस गाँव की एक औरत ऐसी थी जो इस
कहानी का सच जानती थी। दर’असल जिस
घर के पिछवाड़े वो कुआँ था उस घर की एक लड़की
गाँव के ही एक लड़के से प्रेम करती थी। जब घर वालों को पता चला तो उन्होंने
लड़की का घर से निकलना बंद करवा दिया और लड़के को बहुत मारा पीटा। लेकिन प्रेम फिर भी बढ़ता
गया और उसके साथ ही बढ़ते गए घर वालों के अत्याचार। तंग आकर लड़की ने उसी कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी। लड़की की माँ को लगता
था कि अकाल मृत्यु मरने के कारण उसकी बेटी की आत्मा कुएँ में भटकती रहती है इसलिए
वो सबसे छुपाकर उसके लिए जब तब कपड़े, खाना और अन्य जरूरत के सामान उस कुएँ में
डाल आती थी।
प्रेत कथाएँ दर’असल विकृत प्रेम कथाएँ है। प्रेत कथाओं पर यकीन मत करना।
जैसे नाभिक का सारा
आकर्षण अर्थहीन है इलेक्ट्रान के बिना
जैसे सूर्य का सारा
प्रकाश बेमतलब है धरती के बिना
जैसे ये ब्रह्मांड
निरर्थक है इंसान के बिना
वैसे ही मेरे होने
का कोई मतलब नहीं है
तुम्हारे प्रेम
के बिना
शुक्रवार, 2 जनवरी 2015
ग़ज़ल : दूर जाना चाहता तो ले के मेला चल
बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २
तेज़ चलना चाहता है तो अकेला चल
दूर जाना चाहता तो ले के मेला चल
खा के मीठा हर जगह से आ गया है तू
स्वस्थ रहना है तुझे तो खा करेला चल
सूर्य चढ़ने दे जरा, इस काँच के घर में
साँप ख़ुद मर जाएँगें, तू फेंक ढेला, चल
जिन्दगी अनजान राहों से गुजरती है
एक भटकेगा यकीनन हो दुकेला चल
चल रही आकाशगंगा चल रहे तारे
चल रहा जग तू भी अपना ले झमेला चल
सोमवार, 15 दिसंबर 2014
ग़ज़ल : सूखी यादें जब झड़ती हैं
सूखी यादें जब झड़ती हैं
जाकर आँखों में गड़ती हैं
अच्छा है थोड़ा खट्टापन
खट्टी चीजें कम सड़ती हैं
फ्रिज में जिनको हम रख देते
बातें वो और बिगड़ती हैं
हैं जाल सरीखी सब यादें
तड़पो तो और जकड़ती हैं
जब प्यार जताना हो ‘सज्जन’
नज़रें आपस में लड़ती हैंसोमवार, 1 दिसंबर 2014
कविता : आग
प्रकाश केवल त्वचा ही दिखा सकता है
आग त्वचा को जलाकर दिखा सकती है भीतर का मांस
मांस को जलाकर दिखा सकती है भीतर की हड्डियाँ
और हड्डियों को भस्म कर दिखा सकती है
शरीर की नश्वरता
आग सारे भ्रम दूर कर देती है
आग परवाह नहीं करती कि जो सच वो सामने ला रही है
वो नंगा है, कड़वा है, बदसूरत है या घिनौना है
इसलिए चेतना सदा आग से डरती रही है
आग को छूट दे दी जाय
तो ये कुछ ही समय में मिटा सकती है
अमीर और गरीब के बीच का अंतर
आग के विरुद्ध सब पहले इकट्ठा होते हैं
घरवाले
फिर मुहल्लेवाले
और कोशिश करते हैं कि पानी डालकर कम कर दें आग का
तापमान
या काट दें प्राणवायु से इसका संबंध
आग यदि सही तापमान पर पहुँच जाय
तो सृष्टि को रचने वाले चार स्वतंत्र बलों की तरह
लोकतंत्र के चारों खम्भे भी इसके विरुद्ध इकट्ठे हो
जाते हैं
गरीब आग से डरते हैं
पूँजीपति और राजनेता आग का इस्तेमाल करते हैं
सबसे पुराने वेद की सबसे पहली ऋचा ने
आग की वंदना की
ताकि वो शांत रहे
जिससे धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज पनप सकें
और इस तरह बाँटा जा सके मनुष्य को मनुष्य से
सूरज की आग ने करोड़ों वर्षों में गढ़ा है मनुष्य को
जब तक आग रहेगी मनुष्य रहेगा
आग बुझ गई तो धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज
मिलकर भी बचा नहीं पाएँगें मनुष्य को
धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज को
सबसे ज्यादा डर बच्चों से लगता है
क्योंकि बच्चे आग से नहीं डरते
बच्चे ही बचा सकते हैं इंसानियत को
धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज से
मनुष्य को मशीन हो जाने से
क्योंकि ब्रह्मांड में केवल बच्चे ही हैं
जो आग से खेल सकते हैं
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