रविवार, 19 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल : हर दिन गोरी को नहलाता है साबुन

बह्र : 22 22 22 22 22 2
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चुप रहकर सब सहता जाता है साबुन
इसीलिये गोरी को भाता है साबुन

आशिक, शौहर दोनों खूब तरसते हैं
हर दिन गोरी को नहलाता है साबुन

बनी रहे सुन्दरता इसीलिए खुद को
थोड़ा थोड़ा रोज मिटाता है साबुन

सब कहते आशिक पर ख़ुद की नज़रों में
केवल अपना फ़र्ज़ निभाता है साबुन

इश्क़ अगर करना है सीखो साबुन से
मिट जाने तक साथ निभाता है साबुन

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

कविता : तितली और रेशम का कीड़ा

रेशमी परों वाली तितलियाँ हँसती हैं
और आवाज़ के रंग बिरंगे फूलों से
बगीचा महक उठता है

रेशम को दबाकर रखोगे
तो केवल उसकी कोमलता के बारे में जान पाओगे
कभी खींच कर देखना
रेशम स्टील से ज्यादा मज़बूत होता है

कोठियों की तो घास भी रेशम जैसी होती है

रेशम पहनने वाले नहीं जानते
कि इसे रेशम के कीड़ों ने अपनी सुरक्षा के लिए बुना था
और इसी को पाने के लिए
हज़ारों मेहनतकश कीड़ों को उबाल कर मार डाला गया

रेशम उतना ही पुराना है जितना सबसे पुराना धर्मग्रन्थ
इसीलिए ईश्वर रेशमी कपड़े पहनता है
और धर्मग्रन्थों में रेशम पहनने को पाप नहीं माना जाता

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल : ले गया इश्क़ मुआँ आज बयाना मुझसे

बह्र : 2 1 2 2 -1 1 2 2- 1 1 2 2 – 2 2

ले गया इश्क़ मुआँ आज बयाना मुझसे
अब ये माँगेगा शब-ओ-रोज़ बकाया मुझसे

दफ़्न कर दूँगा मैं दिल में सभी अरमाँ लेकिन
पहले उट्ठे तो इन अश्क़ों का जनाज़ा मुझसे

दर-ओ-दीवार पे चलने लगीं लाखों फ़िल्में
खुल गया क्यूँ तेरी यादों का पिटारा मुझसे

जी किया और वो उड़ के गया महबूब के पास
लाख बेहतर है इक आज़ाद परिंदा मुझसे

आतिश-ए-इश्क़ में जल जल के नया हो तू भी
कह गया रात यही बात पतंगा मुझसे

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

कविता : बच्चे

बच्चों को शरारत करने दो बच्चों की तरह
बच्चों को बच्चों की तरह खुलकर हँसने और रोने दो

बच्चों को बात करने दो बच्चों की तरह
बच्चों को बच्चों की तरह लड़ने दो

बच्चों को खेलने दो बच्चों की तरह
बच्चों को बच्चों की तरह जिद करने दो

बच्चों को बच्चों की तरह सोने दो
गहरी नींद में

बच्चों को बच्चों की तरह सीखने दो
समय के शिक्षक से

बच्चे कभी बड़े नहीं होते
यदि उनको ज़बरन बड़ा करने की कोशिश की जाय
तो बच्चे बचपन में ही मर जाते हैं

बुधवार, 24 सितंबर 2014

ग़ज़ल : बदनाम न हो जाय तो किस काम का शायर

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

जो कह न सके सच वो महज़ नाम का शायर
बदनाम न हो जाय तो किस काम का शायर

इंसान का मासूम का मज़लूम का कहिए
अल्लाह का शायर नहीं मैं राम का शायर

कुछ भी हो सजा सच की है मंजूर पर ऐ रब 
मुझको न बनाना कभी हुक्काम का शायर

मज़लूम के दुख दर्द से अश’आर कहूँगा
कहता है जमाना तो कहे वाम का शायर

बच्चे हैं मेरे शे’र तो मक़्ता है मेरी जान
कहते हैं मेरे यार मुझे शाम का शायर

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

कविता : हे ईश्वर! अगर तुम न होते

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होती पुनर्जन्म की अवधारणा
तब मजलूम न ठहराते अपनी गरीबी, अपने दुखों के लिए
पूर्वजन्म के कर्मों को जिम्मेदार
और हर गली, हर सड़क पर तब तक चलता विद्रोह
जब तक गरीबी और दुख जड़ से खत्म न हो जाते

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होती स्वर्ग या नर्क की परिकल्पना
तब कैसे मजदूरों का हक मारकर बड़ा सा मंदिर बनवाने वाला पूँजीपति
स्वर्ग जाने या दुबारा किसी पूँजीपति के घर में जन्म लेने के बारे में सोच पाता

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो दुनिया में न होता पापों से मुक्ति पाने का तरीका
तब सारे पापी अपने पापों के बोझ तले घुट घुटकर मर जाते

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होती किस्मत की संकल्पना
तब कैसे कोई बलात्कारी या कोई अत्याचारी या ये समाज खुद से कह पाता
कि इस लड़की की किस्मत में यही लिखा था

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होता कहीं कोई धर्मस्थल
और वो सारे संसाधन जो धर्मस्थलों में व्यर्थ पड़े हैं
काम आते मजलूमों के

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होता कहीं कोई धर्म
न होती कहीं कोई जाति
धरती पर सिर्फ़ इंसान होता और इंसानियत होती

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो दुनिया कितनी अच्छी होती

शनिवार, 13 सितंबर 2014

ग़ज़ल : चीथड़ों को कचरे सा कोठियाँ समझती हैं

बह्र : 212 1222 212 1222 (फाइलुन मुफाईलुन फाइलुन मुफाईलुन)
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सूट बूट को नायक झुग्गियाँ समझती हैं
चीथड़ों को कचरे सा कोठियाँ समझती हैं

आरियों के दाँतों को पल में तोड़ देता है
पत्थरों की कोमलता छेनियाँ समझती हैं

है लिबास उजला पर दूध ने दही बनकर
घी कहाँ छुपाया है मथनियाँ समझती हैं

सर्दियों की ख़ातिर ये गुनगुना तमाशा भर
धूप जानलेवा है गर्मियाँ समझती हैं

कोठियों के भीतर तक ये पहुँच न पायें पर
है कहाँ छुपी शक्कर चींटियाँ समझती हैं

सोमवार, 1 सितंबर 2014

कविता : बहुत कम बचे हैं इंसान

सबसे ताकतवर देश की सबसे ताकतवर कुर्सी पर बैठता है
ताकत से बना आदमी

सबसे शानदार दफ़्तर की सबसे शानदार कुर्सी पर बैठता है
पैसों से बना आदमी

सबसे अच्छे विश्वविद्यालय की सबसे अच्छी कुर्सी पर बैठता है
किताबों से बना आदमी

थोड़ा पैसा, थोड़ी किताब और थोड़ी ताकत से बनता है
बुर्ज़ुआ

थोड़ी किताब, थोड़ी कला, थोड़ा अभिनय, थोड़ा घमंड और थोड़ी अमरत्व की लालसा
इनसे मिलजुलकर बनता है कलाकार
और इन्हीं की मात्रा में थोड़ा घट बढ़ से बन जाता है साहित्यकार

झूठ और पागलपन से बनता है
धर्मगुरु

सबसे बड़े झूठ और सबसे हसीन स्वप्न से बनता है
आतंकवादी

हाड़मांस और पैसों से बनता है
खिलाड़ी

थोड़ा थोड़ा सबकुछ मिलाकर बनता है
मध्यमवर्ग

हड्डियों और आँसुओं से बनता है
गरीब

बहुत कम बचे हैं 
भावनाओं से बने इंसान
मगर इनका नाम कहीं नहीं आता
लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

ग़ज़ल : ख़ुदा के साथ यहाँ राम हमनिवाला है

बह्र : मफ़ाइलुन फ़यलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन (1212 1122 1212 22)

ख़ुदा के साथ यहाँ राम हमनिवाला है
ये राजनीति का सबसे बड़ा मसाला है

जो आपके लिये मस्जिद है या शिवाला है
वो मेरे वास्ते मस्ती की पाठशाला है

सभी रकीब हुये खत्म आपके, अब तो
वो आपको ही डसेगा मियाँ, जो पाला है 

छुपा के राज़ यकीनन रखा है दिल में कोई
तभी तो आप के मुँह पे जड़ा ये ताला है

लगे जो आपको बासी व गैर की जूठन
वही तो देश के मज़लूम का निवाला है

सोमवार, 25 अगस्त 2014

कविता : अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का हत्यारा

बचपन से ही कड़ी मेहनत करनी पड़ती है
जमा देने वाली ठंड, उबाल देने वाली गर्मी और बहा ले जाने वाली बरसात
इन सबका सीना तान कर मुकाबला करना पड़ता है

अपने ही हाथों अपने नाते रिश्तेदारों का गला घोंटना पड़ता है
दुनिया के सबसे अच्छे अभिनेता से भी अच्छा अभिनय करना पड़ता है

आत्मा हत्याओं के बोझ तले न दब जाए
इसलिए किसी एक धर्म में अटूट आस्था रखनी पड़ती है
और क्षमा माँगनी पड़ती है ईश्वर से
हर हत्या के बाद

सारे सुबूतों को बड़ी सावधानी से मिटाना पड़ता है
लेकिन सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं है
विज्ञान की आधुनिकतम खोजों और तकनीकों को इस्तेमाल किये बगैर
असंभव है अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का हत्यारा होना
इसीलिए करोड़ों में से कोई एक
बन पाता है अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का हत्यारा

आम आदमी डर कर या चमत्कृत होकर
पूजा करता आया है ऐसे हत्यारों की
हमेशा हमेशा से