शनिवार, 9 अगस्त 2014

नवगीत : जैसे कोई नन्हा बच्चा छूता है पानी

मेरी नज़रें तुमको छूतीं
जैसे कोई नन्हा बच्चा
छूता है पानी

रंग रूप से मुग्ध हुआ मन
सोच रहा है कितना अद्भुत
रेशम जैसा तन है
जो तुमको छूकर उड़ती हैं
कितना मादक उन प्रकाश की
बूँदों का यौवन है

रूप नदी में छप छप करते
चंचल मन को सूझ रही है
केवल शैतानी

पोथी पढ़कर सुख की दुख की
धीरे धीरे मन का बच्चा
ज्ञानी हो जाएगा
तन का आधे से भी ज्यादा
हिस्सा होता केवल पानी
तभी जान पाएगा

जीवन मरु में तुम्हें हमेशा
साथ रखेगा जब समझेगा
अपनी नादानी

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

अनुवाद : टोमास ट्रांसट्रोमर की कविता ‘तेज़ मीठी धुन’

एक काले दिन के बाद मैं हाइडन* की धुन बजाता हूँ
और मेरी हथेलियाँ गुनगुनी हो जाती हैं।

चाबियाँ दबना चाहती हैं। नाज़ुक हथौड़े गिरते हैं।
अनुनाद हरा, सजीव और शांत है।

संगीत कहता है कि आजादी का अस्तित्व है
और एक व्यक्ति शहंशाह का कर अदा करने से इनकार कर देता है।

मैं अपने हाथ अपनी हाइडनजेबों** के भीतर डालता हूँ
और शांति से दुनिया देखने वाला आदमी होने का नाटक करता हूँ।

मैं हाइडनझंडा** लहराता हूँ जो कहता है
हम आत्मसमर्पण नहीं करेंगे मगर हमें शांति चाहिए।

संगीत ढलान पर बना शीशे का घर है
जहाँ पत्थर उड़ते हैं, पत्थर लुढ़कते हैं
और पत्थर आर पार निकल जाते हैं
लेकिन एक भी शीशा नहीं टूटता।
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*आस्ट्रिया के एक संगीतकार जिन्हें सिम्फनी और स्ट्रिंग क्वार्टेट का पिता कहा जाता है। टॉमस ट्रांसटोमर एक अच्छे पियानो प्लेयर भी हैं।

**टोमास ट्रांसट्रोमर द्वारा प्रयोग किए गए शब्द
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मूल कविता निम्नवत है।

Allegro

Jag spelar Haydn efter en svart dag
och känner en enkel värme i händerna.

Tangenterna vill. Milda hammare slår.
Klangen är grön, livlig och stilla.

Klangen säger att friheten finns
och att någon inte ger kejsaren skatt.

Jag kör ner händerna i mina haydnfickor
och härmar en som ser lugnt på världen.

Jag hissar haydnflaggan – det betyder:
»Vi ger oss inte. Men vill fred.«

Musiken är ett glashus på sluttningen
där stenarna flyger, stenarna rullar.

Och stenarna rullar tvärs igenom
men varje ruta förblir hel.

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

नवगीत : आसमाँ अधेड़ हो गया

मेघ श्वेत श्याम कह रहे
आसमाँ
अधेड़ हो गया

कोशिशें हजार कीं मगर
रेत पर बरस नहीं सका
जब चली जिधर चली हवा
मेघ साथ ले गई सदा

बारहा यही हुआ मगर
इन्द्र ने
कभी न की दया

सागरों का दोष कुछ नहीं
वायु है गुलाम सूर्य की
स्वप्न ही रही समानता
उम्र बीतती चली गई

एक ही बचा है रास्ता
सूर्य
खोज लाइये नया

सोमवार, 21 जुलाई 2014

ग़ज़ल : ज्ञान थोड़ा बयान ज़्यादा है

आजकल ये रुझान ज़्यादा है
ज्ञान थोड़ा बयान ज़्यादा है

है मिलावट, फ़रेब, लूट यहाँ
धर्म कम है दुकान ज्यादा है

चोट दिल पर लगी, चलो, लेकिन
देश अब सावधान ज़्यादा है

दूध पानी से मिल गया जब से
झाग थोड़ा उफ़ान ज़्यादा है

पाँव भर ही ज़मीं मिली मुझको
पर मेरा आसमान ज़्यादा है

ये नई राजनीति है ‘सज्जन’
काम थोड़ा बखान ज़्यादा है

बुधवार, 9 जुलाई 2014

ग़ज़ल : जाल सहरा पे डाले गए

जाल सहरा पे डाले गए
यूँ समंदर खँगाले गए

रेत में धर पकड़ सीपियाँ
मीन सारी बचा ले गए

जो जमीं ले गए हैं वही
सूर्य, बादल, हवा ले गए

सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ
वक्त पर जो झुका ले गए

मैं चला जब तो चलता गया
फूट कर खुद ही छाले गए

जानवर बन गए क्या हुआ
धर्म अपना बचा ले गए

खुद को मालिक समझते थे वो
अंत में जो निकाले गए

सोमवार, 23 जून 2014

प्रेमगीत : आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने

पलकों ने चुम्बन के गीत सुने
आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने

साँसें यूँ साँसों से गले मिलीं
अंग अंग नस नस में डूब गया
हाथों ने हाथों से बातें की
और त्वचा ने सीखा शब्द नया

रोम रोम सिहरन के वस्त्र बुने

मेघों से बरस पड़ी मधु धारा
हवा मुई पी पीकर बहक गई
बाँसों के झुरमुट में चाँद फँसा
काँप काँप तारे गिर पड़े कई

रात नये सूरज की कथा गुने

बुधवार, 28 मई 2014

नवगीत : कब सीखा पीपल ने भेदभाव करना

धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?

फल हों रसदार या
सुगंधित हों फूल
आम साथ हों
या फिर जंगली बबूल

कब सीखा
चिन्ता के
पतझर में झरना

कीट, विहग, जीव-जन्तु
देशी-परदेशी
बुद्ध, विष्णु, भूत, प्रेत
देव या मवेशी

जाने ये
दुनिया में
सबके दुख हरना

जितना ऊँचा है ये
उतना विस्तार
दुनिया के बोधि वृक्ष
इसका परिवार

कालजयी
क्या जाने
मौसम से डरना

शुक्रवार, 23 मई 2014

ग़ज़ल : पेड़ ऊँचा है, न इसकी छाँव ढूँढो

कामयाबी चाहिए तो पाँव ढूँढो
पेड़ ऊँचा है, न इसकी छाँव ढूँढो

शहर से जो माँग लोगे वो मिलेगा
शर्त इतनी है यहाँ मत गाँव ढूँढो

जीत लोगे युद्ध सब, इतना करो तुम
जो न हो नियमों में ऐसा दाँव ढूँढो

दौड़ते रहना, यहाँ जिन्दा रहोगे
भीड़ में मत बैठने को ठाँव ढूँढो

नभ मिलेगा, गर करो हल्का स्वयं को
और उड़ने के लिए पछियाँव ढूढो

शनिवार, 10 मई 2014

कविता : ग्रेविटॉन

यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण
तभी तो ये दोनों मोड़ देते हैं दिक्काल के धागों से बुनी चादर
कम कर देते हैं समय की गति

इन्हें कैद करके नहीं रख पातीं स्थान और समय की विमाएँ
ये रिसते रहते हैं एक ब्रह्मांड से दूसरे ब्रह्मांड में
ले जाते हैं आकर्षण उन स्थानों तक
जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती

अब तक किये गये सारे प्रयोग
असफल रहे इन दोनों का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण खोज पाने में
लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इनको महसूस करता है
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण

शुक्रवार, 2 मई 2014

कविता : पूँजीवादी मशीनरी का पुर्ज़ा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ

मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने
मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था
इसलिए जल्द ही सुनहरे सपनों के चुम्बक से खींचकर
मुझे मेरी जमीन से अलग कर दिया गया

अध्यापकों ने कभी डरा-धमका कर तो कभी बहला-फुसला कर
मेरी अशुद्धियों को दूर किया
अशुद्धियाँ जैसे मिट्टी, हवा और पानी
जो मेरे शरीर और मेरी आत्मा का हिस्सा थे

तरह तरह की प्रतियोगिताओं की आग में गलाकर
मेरे भीतर से निकाल दिया गया भावनाओं का कार्बन
(वही कार्बन जो पत्थर और इंसान के बीच का एक मात्र फर्क़ है)

मुझमें मिलाया गया तरह तरह की सूचनाओं का क्रोमियम
ताकि हवा, पानी और मिट्टी
मेरी त्वचा तक से कोई अभिक्रिया न कर सकें

अंत में मूल वेतन और मँहगाई भत्ते से बने साँचे में ढालकर
मुझे बनाया गया सही आकार और सही नाप का

मैं अपनी निर्धारित आयु पूरी करने तक
लगातार, जी जान से इस मशीनरी की सेवा करता रहूँगा
बदले में मुझे इस मशीनरी के
और ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सों में काम करने का अवसर मिलेगा

मेरे बाद ठीक मेरे जैसा एक और पुर्जा आकर मेरा स्थान ले लेगा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ
मेरे लिए इंसान में मौजूद कार्बन
ऊर्जा का स्रोत भर है।