बुधवार, 26 मार्च 2014

कविता : कालजयी कचरा

ध्यान से देखो
वो पॉलीथीन जैसी रचना है
हल्की, पतली, पारदर्शी

पॉलीथीन में उपस्थित परमाणुओं की तरह
उस रचना के शब्द भी वही हैं
जो अत्यन्त विस्फोटक और ज्वलनशील वाक्यों में होते हैं

वो रचना
किसी बाजारू विचार को
घर घर तक पहुँचाने के लिए इस्तेमाल की जायेगी

उस पर बेअसर साबित होंगे आलोचना के अम्ल और क्षार
समय जैसा पारखी भी धोखा खा जाएगा
प्रकृति की सारी विनाशकारी शक्तियाँ मिलकर भी
उसे नष्ट नहीं कर सकेंगी

वो पॉलीथीन जैसी रचना
एक दिन कालजयी कचरा बन जाएगी
और सामाजिक पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाएगी 

शनिवार, 22 मार्च 2014

ग़ज़ल : सत्य लेकिन हजम नहीं होता

बह्र : २१२२ १२१२ २२

झूठ में कोई दम नहीं होता
सत्य लेकिन हज़म नहीं होता

अश्क बहना ही कम नहीं होता
दर्द, माँ की कसम नहीं होता

मैं अदम* से अगर न टकराता
आज खुद भी अदम नहीं होता

दर्द--दिल की दवा जो रखते हैं
उनके दिल में रहम नहीं होता

शेर में बात अपनी कह देते
आपका सर कलम नहीं होता

*अदम = शून्य, अदम गोंडवी

गुरुवार, 20 मार्च 2014

ग़ज़ल : जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

बह्र  : २१२ २१२ २१२ २१२

ये ख़ुराफ़ात करने से क्या फ़ायदा
जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

हाय से बाय तक चंद पल ही लगें
यूँ मुलाकात करने से क्या फ़ायदा

हार कर जीत ले जो सभी का हृदय
उसकी शहमात करने से क्या फ़ायदा

आँसुओं का लिखा कौन समझा यहाँ?
आँख दावात करने से क्या फ़ायदा

ये जमीं सह सके जो बस उतना बरस
और बरसात करने से क्या फ़ायदा

कुछ नया कह सको गर तो सज्जनसुने
फिर वही बात करने से क्या फ़ायदा

शनिवार, 8 मार्च 2014

ग़ज़ल : परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

गगन का स्नेह पाते हैं, हवा का प्यार पाते हैं
परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैं

फ़लक पर झूमते हैं, नाचते हैं, गीत गाते हैं
जो उड़ते हैं उन्हें उड़ने के ख़तरे कब डराते हैं

परिंदों की नज़र से एक पल गर देख लो दुनिया
न पूछोगे कभी, उड़कर परिंदे क्या कमाते है

फ़लक पर सब बराबर हैं यहाँ नाज़ुक परिंदे भी
लड़ें गर सामने से तो विमानों को गिराते हैं

जमीं कहती, नई पीढ़ी के पंक्षी भूल मत जाना
परिंदे शाम ढलते घोसलों में लौट आते हैं

मंगलवार, 4 मार्च 2014

कविता : विकास का कचरा

शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है
सरसों के तेल की खाली बोतल

दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली
शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है
पानी की एक लीटर की खाली बोतल

दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं
उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके

डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर
हवा के झोंके के सहारे भागकर
कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे हैं

सिगरेट और अगरबत्ती के खाली पैकेटों के बीच
जोरदार झगड़ा हो रहा है
दोनों एक दूसरे पर बदबू फैलाने का आरोप लगा रहे हैं

यहाँ आकर पता चलता है
कि सरकार की तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद
धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही हैं पॉलीथीन की थैलियाँ

एक गाय जूठन के साथ साथ पॉलीथीन की थैलियाँ भी खा रही है

एक आवारा कुत्ता बकरे की हड्डियाँ चबा रहा है
वो नहीं जानता कि जिसे वो हड्डियों का स्वाद समझ रहा है
वो दर’असल उसके अपने मसूड़े से रिस रहे खून का स्वाद है

कुछ मैले-कुचैले नर कंकाल कचरे में अपना जीवन खोज रहे हैं

पास से गुज़रने वाली सड़क पर
आम आदमी जल्द से जल्द इस जगह से दूर भाग जाने की कोशिश रहा है
क्योंकि कचरे से आने वाली बदबू उसके बर्दाश्त के बाहर है

एक कवि कचरे के बगल में खड़ा होकर उस पर थूकता है
और नाक मुँह सिकोड़ता हुआ आगे निकल जाता है
उस कवि से अगर कोई कह दे
कि उसके थूकने से थोड़ा सा कचरा और बढ़ गया है
तो कवि निश्चय ही उसका सर फोड़ देगा

ये विकास का कचरा है

शनिवार, 1 मार्च 2014

ग़ज़ल : नयन में प्यार का गौहर सम्हाल रक्खा है


बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

सभी से आँख चुराकर सम्हाल रक्खा है
नयन में प्यार का गौहर सम्हाल रक्खा है

कहेगा आज भी पागल व बुतपरस्त मुझे
वो जिसके हाथ का पत्थर सम्हाल रक्खा है

तेरे चमन से न जाए बहार इस खातिर
हृदय में आज भी पतझर सम्हाल रक्खा है

चमन मेरा न बसा, घर किसी का बस जाए
ये सोच जिस्म का बंजर सम्हाल रक्खा है

तेरे नयन के समंदर में हैं भँवर, तूफाँ
किसी के प्यार ने लंगर सम्हाल रक्खा है

तुझे पसंद जो आया सनम वही मैंने
ग़ज़ल में आज भी तेवर सम्हाल रक्खा है

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

नवगीत : बस प्यार तुम्हारा

घूमूँगा बस प्यार तुम्हारा
तन मन पर पहने
पड़े रहेंगे बंद कहीं पर
शादी के गहने

चिल्लाते हैं गाजे बाजे
चीख रहे हैं बम
जेनरेटर करता है बक बक
नाच रही है रम

गली मुहल्ले मजबूरी में
लगे शोर सहने

सब को खुश रखने की खातिर
नींद चैन त्यागे
देहरी, आँगन, छत, कमरे सब
लगातार जागे

कौन रुकेगा, दो दिन इनसे
सुख दुख की कहने

शालिग्राम जी सर पर बैठे
पैरों पड़ी महावर
दोनों ही उत्सव की शोभा
फिर क्यूँ इतना अंतर

मैं खुश हूँ, यूँ ही आँखो से
दर्द लगा बहने

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

मेरी पहली किताब ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ का विमोचन

आप सबको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मेरी पहली किताब ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ का विमोचन दिनांक 22-02-2014 को सत्य प्रकाश मिश्र सभागार, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद में हुआ। समारोह की तस्वीरें निम्नवत  हैं। जिन मित्रों को ये ग़ज़ल संग्रह चाहिए वे कृपया अपना डाक का पता मुझे [email protected] पर भेज दें।













मंगलवार, 28 जनवरी 2014

मेरी पहली किताब (ग़ज़ल संग्रह) : ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर


मेरी पहली किताब, जो एक ग़ज़ल संग्रह है, अंजुमन प्रकाशन से छप चुकी है। दिनांक 22-02-2014 को इसका विमोचन सत्य प्रकाश मिश्र सभागार, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद में होना तय हुआ है। आप सभी सादर आमंत्रित हैं। कार्यक्रम का विवरण निम्नवत है।


वर्तमान में यह पुस्तक बिक्री के लिए उपलब्ध है। किताब का मूल्य भारत में मात्र रू 20/- है। पर ये किताब अकेली बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं है। इसके लिए आपको आठ पुस्तकों का एक सेट खरीदना होगा जिसकी कीमत बीस रूपये प्रति पुस्तक के हिसाब से रू 160/- रूपया (डाकखर्च रू 60/- अतिरिक्त) है। यह सेट निम्नांकित कड़ी से खरीदा जा सकता है।

http://www.ebay.in/itm/ws/eBayISAPI.dll?ViewItem&item=251447766737#ht_500wt_1414

अगर आप दिनांक 22-02-2014 को इलाहाबाद में ही हैं तो ये सेट विमोचन समारोह के दौरान खरीदकर रू 60/- का डाकखर्च बचा सकते हैं।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

ग़ज़ल : ओढ़नी नोच डाली गई

बह्र : २१२ २१२ २१२
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जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई

एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई

रीझ उठी नाचते मोर पे
मोरनी नोच डाली गई

खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई

देव मानव के चिर द्वंद्व में 
उर्वशी नोच डाली गई