खट्टी मीठी यादें
समय का अचार और मुरब्बा हैं
हमें क्यों बेहूदा लगते हैं वो शब्द
जो हमारी भाषा के शब्दकोश में नहीं होते
प्रेम को महान बनाने के चक्कर में
उसे हिजड़ा बना दिया गया
हिजड़े सारी दुनिया को हिजड़ा बनाना चाहते हैं
मूर्तियाँ सोने का मुकुट पहनकर
भूखे इंसानों को सपने में रोटी दिखाती हैं
भूख से मरता हुआ इंसान कूड़े में फेंकी जूठन भी खाता है
सच अगर कड़वा है
तो उस पर शहद डालने की बजाय
खुद को उसके स्वाद का अभ्यस्त बनाना बेहतर है
अँधेरे कमरे में बंद आदमी
न जिंदा होता है न मुर्दा
क्या मेरे खून में दौड़ते हुए कीड़े
तुम्हारा प्यार भी खा जाएँगें
ईश्वर से चमत्कार की आशा करना
खुद को मीठा जहर देने की तरह है
शायद मेरे मर जाने से दुनिया ज्यादा बेहतर हो जाएगी
तुमने बनाए कुछ नियम और दूर खड़े हो गए
कैसे भगवान हो तुम!
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 24 अप्रैल 2012
शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012
ग़ज़ल : है मरना डूब के मेरा मुकद्दर भूल जाता हूँ
है मरना डूब के मेरा मुकद्दर भूल जाता हूँ
तेरी आँखों में भी सागर है अक्सर भूल जाता हूँ
ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी तिलिस्मी है
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ
हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाकी है
पहुँचकर घर के दरवाजे पे दफ़्तर भूल जाता हूँ
तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ
न जीता हूँ न मरता हूँ तेरी आदत लगी ऐसी
दवा हो या जहर दोनों मैं लाकर भूल जाता हूँ
गुरुवार, 19 अप्रैल 2012
कविता : नाभिकीय विखंडन एवं संलयन
लगभग एक साथ खोजे गए
नाभिकीय विखंडन और नाभिकीय संलयन
मगर हमने सबसे पहले सीखा
विखंडन की ऊर्जा का इस्तेमाल
किंतु बचे रहने और इंसान बने रहने के लिए
हमें जल्दी ही सीखना होगा
संलयन की ऊर्जा का सही इस्तेमाल
नाभिकीय विखंडन और नाभिकीय संलयन
मगर हमने सबसे पहले सीखा
विखंडन की ऊर्जा का इस्तेमाल
किंतु बचे रहने और इंसान बने रहने के लिए
हमें जल्दी ही सीखना होगा
संलयन की ऊर्जा का सही इस्तेमाल
बुधवार, 11 अप्रैल 2012
कविता : सिस्टम
मच्छर आवाज़ उठाता है
‘सिस्टम’ ताली बजाकर मार देता है
और ‘मीडिया’ को दिखाता है भूखे मच्छर का खून
अपना खून कहकर
मच्छर बंदूक उठाते हैं
‘सिस्टम’ ‘मलेरिया’ ‘मलेरिया’ चिल्लाता है
और सारे घर में जहर फैला देता है
अंग बागी हो जाते हैं
‘सिस्टम’ सड़न पैदा होने का डर दिखालाता है
बागी अंग काटकर जला दिए जाते हैं
उनकी जगह तुरंत उग आते हैं नये अंग
‘सिस्टम’ के पास नहीं है खून बनाने वाली मज्जा
जिंदा रहने के लिए वो पीता है खून
जिसे हम ‘डोनेट’ करते हैं अपनी मर्जी से
हर बीमारी की दवा है
‘सिस्टम’ के पास
हर नया विषाणु इसके प्रतिरक्षा तंत्र को और मजबूत करता है
‘सिस्टम’ अजेय है
‘सिस्टम’ सारे विश्व पर राज करता है
क्योंकि ये पैदा हुआ था
दुनिया जीतने वाली जाति के
सबसे तेज और कमीने दिमागों में
‘सिस्टम’ ताली बजाकर मार देता है
और ‘मीडिया’ को दिखाता है भूखे मच्छर का खून
अपना खून कहकर
मच्छर बंदूक उठाते हैं
‘सिस्टम’ ‘मलेरिया’ ‘मलेरिया’ चिल्लाता है
और सारे घर में जहर फैला देता है
अंग बागी हो जाते हैं
‘सिस्टम’ सड़न पैदा होने का डर दिखालाता है
बागी अंग काटकर जला दिए जाते हैं
उनकी जगह तुरंत उग आते हैं नये अंग
‘सिस्टम’ के पास नहीं है खून बनाने वाली मज्जा
जिंदा रहने के लिए वो पीता है खून
जिसे हम ‘डोनेट’ करते हैं अपनी मर्जी से
हर बीमारी की दवा है
‘सिस्टम’ के पास
हर नया विषाणु इसके प्रतिरक्षा तंत्र को और मजबूत करता है
‘सिस्टम’ अजेय है
‘सिस्टम’ सारे विश्व पर राज करता है
क्योंकि ये पैदा हुआ था
दुनिया जीतने वाली जाति के
सबसे तेज और कमीने दिमागों में
गुरुवार, 5 अप्रैल 2012
कविता : विज्ञान के विद्यार्थी की प्रेम कविता
बिना किसी बाहरी बल के
लोलक के दोलन का आयाम बढ़ता ही जा रहा था
लवण और पानी मिलाने पर अम्ल और क्षार बना रहे थे
आवृत्तियाँ न मिलने पर भी अनुनाद हो रहा था
गुरुत्वाकर्षण बल दो पिंडों के बीच की दूरी पर निर्भर नहीं था
निर्वात में ध्वनि की तरंगें गूँज रही थीं
जब तुम कुर्सी पर बैठकर ‘आब्जर्वेशन’ लिख रहीं थीं
और मैं तुम्हारे बगल ‘प्रैक्टिकल बुक’ थामे खड़ा था
लोलक के दोलन का आयाम बढ़ता ही जा रहा था
लवण और पानी मिलाने पर अम्ल और क्षार बना रहे थे
आवृत्तियाँ न मिलने पर भी अनुनाद हो रहा था
गुरुत्वाकर्षण बल दो पिंडों के बीच की दूरी पर निर्भर नहीं था
निर्वात में ध्वनि की तरंगें गूँज रही थीं
जब तुम कुर्सी पर बैठकर ‘आब्जर्वेशन’ लिख रहीं थीं
और मैं तुम्हारे बगल ‘प्रैक्टिकल बुक’ थामे खड़ा था
मंगलवार, 3 अप्रैल 2012
ग़ज़ल : न दोष कुछ तेरी कटार का है
बह्र
:
1212 1212 112
न
दोष कुछ तेरी कटार का है
मुझे
ही शौक आर पार का है
बिना
गुनाह रब के पास गया
कुसूर
ये ही मेरे यार का है
मुझे
जहान या ख़ुदा का नहीं
लिहाज
है तो तेरे प्यार का है
क्यूँ
रब की चीज पे गुरूर करे
तेरा
हसीं बदन उधार का है
लो
नौकरों ने देश लूट लिया
कुसूर
मालिकों के प्यार का है
शनिवार, 31 मार्च 2012
कविता : देवताओं और राक्षसों का देश
ये देवताओं और राक्षसों का देश है
यहाँ गान्धारी न्याय करती है
न्याय का देवता किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होता
तीन तरह के अम्लों का गठबंधन
राज करता है
सेना के पास
खद्दर में लिपटा झूठ का गोला बारूद है
सेनापति को सच बोलने के जुर्म में फाँसी दी जाती है
साहित्यिक कुँए का मेढक
सारी दुनिया घूमकर वापस कुँए में आ जाता है
आइने के सामने आइना रखते ही
वो घबराकर झूठ बोलने लगता है
धरती का मुँह देख देखकर
सूरज अपनी आग काबू में रखता है
शब्द एक दूसरे से जुड़कर तलवार बनाते हैं
विलोम शब्दों का कत्ल करने के लिए
ये देवताओं और राक्षसों का देश है
यहाँ गान्धारी न्याय करती है
न्याय का देवता किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होता
तीन तरह के अम्लों का गठबंधन
राज करता है
सेना के पास
खद्दर में लिपटा झूठ का गोला बारूद है
सेनापति को सच बोलने के जुर्म में फाँसी दी जाती है
साहित्यिक कुँए का मेढक
सारी दुनिया घूमकर वापस कुँए में आ जाता है
आइने के सामने आइना रखते ही
वो घबराकर झूठ बोलने लगता है
धरती का मुँह देख देखकर
सूरज अपनी आग काबू में रखता है
शब्द एक दूसरे से जुड़कर तलवार बनाते हैं
विलोम शब्दों का कत्ल करने के लिए
ये देवताओं और राक्षसों का देश है
मंगलवार, 27 मार्च 2012
कविता : ब्रह्मांड और समय बनाम महाकाव्य और उपन्यास
ब्रह्मांड कागज़ का गुब्बारा है
ऊर्जा और द्रव्य अक्षर हैं
हम सब शब्द हैं
कागज़ का गुब्बारा फूल रहा है
स्वर से अलग व्यंजन का अस्तित्व नहीं होता
समय बदल रहा है शब्दों के अर्थ
पैदा हो रहे हैं नए महाकाव्य और उपन्यास
कुछ भी नष्ट नहीं होता
शब्द अक्षरों में टूटकर करते हैं नई नई यात्राएँ
कुछ शब्दों को होता है होने का अहसास
समय हँसता है
फट जाएगा एक दिन कागज़ का गुब्बारा
नए गुब्बारे पर नया समय फिर से लिखेगा
महाकाव्य और उपन्यास
इस बात से बेखबर
कि ये सारे महाकाव्य और उपन्यास
पहले भी लिखे जा चुके हैं
ऊर्जा और द्रव्य अक्षर हैं
हम सब शब्द हैं
कागज़ का गुब्बारा फूल रहा है
स्वर से अलग व्यंजन का अस्तित्व नहीं होता
समय बदल रहा है शब्दों के अर्थ
पैदा हो रहे हैं नए महाकाव्य और उपन्यास
कुछ भी नष्ट नहीं होता
शब्द अक्षरों में टूटकर करते हैं नई नई यात्राएँ
कुछ शब्दों को होता है होने का अहसास
समय हँसता है
फट जाएगा एक दिन कागज़ का गुब्बारा
नए गुब्बारे पर नया समय फिर से लिखेगा
महाकाव्य और उपन्यास
इस बात से बेखबर
कि ये सारे महाकाव्य और उपन्यास
पहले भी लिखे जा चुके हैं
सोमवार, 26 मार्च 2012
क्षणिका : सूरज
धरती के लिए सूरज देवता है
उसकी चमक, उसका ताप
जीवन के लिए एकदम उपयुक्त हैं
कभी पूछो जाकर बाकी ग्रहों से
उनके लिए क्या है सूरज?
उसकी चमक, उसका ताप
जीवन के लिए एकदम उपयुक्त हैं
कभी पूछो जाकर बाकी ग्रहों से
उनके लिए क्या है सूरज?
रविवार, 18 मार्च 2012
हास्य ग़ज़ल : उदर में खार बन उगता तुम्हारी माँ का हर व्यंजन
न पक्की छत अगर बनती तो मैं छप्पर बना लेता
जगह देती तो तेरे दिल में अपना घर बना लेता
मैं अक्सर सोचता हूँ इडलियाँ ये देख गालों की
के मौला काश खुद को आज मैं साँभर बना लेता
तुम इतने ध्यान से समझोगी गर मालूम ये होता
मैं अपने आप को एक्ज़ाम का पेपर बना लेता
बता देती के तेरा बाप रखता है दुनाली भी
तो घर के सामने तेरे मैं इक बंकर बना लेता
उदर में खार बन उगता तुम्हारी माँ का हर व्यंजन
न गर मैं सींच दारू से इसे बंजर बना लेता
जगह देती तो तेरे दिल में अपना घर बना लेता
मैं अक्सर सोचता हूँ इडलियाँ ये देख गालों की
के मौला काश खुद को आज मैं साँभर बना लेता
तुम इतने ध्यान से समझोगी गर मालूम ये होता
मैं अपने आप को एक्ज़ाम का पेपर बना लेता
बता देती के तेरा बाप रखता है दुनाली भी
तो घर के सामने तेरे मैं इक बंकर बना लेता
उदर में खार बन उगता तुम्हारी माँ का हर व्यंजन
न गर मैं सींच दारू से इसे बंजर बना लेता
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