मंगलवार, 15 नवंबर 2011

कविता : हम नहीं समझना चाहते

हम चाहते हैं स्वस्थ शरीर
मगर हम नहीं समझना चाहते
शरीर की आंतरिक संरचना
आंतरिक अंगों की कार्यप्रणाली
शारीरिक रसायनों का विज्ञान
हम चाहते हैं केवल खुशबूदार साबुन से नहाना
शरीर को तरह तरह से सजाना
और ऊपर से इत्र छिड़ककर
ये मान लेना
कि बाकी सब ऊपर वाले के हाथ में है

हम चाहते हैं स्वस्थ समाज
मगर हम नहीं समझना चाहते
व्यक्ति और समूह का मनोविज्ञान
हम नहीं जानना चाहते
कि कैसे पूरी होंगी
हर व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएँ
रोटी, कपड़ा, मकान और प्रेम
हम जानते हैं नियम और कानून बनाना
और ये मान लेना
कि सभी लोग हर हाल में
नियम और कानूनों का पालन करेंगे

हम चाहते हैं सर्वज्ञ होना
परमसत्य का ज्ञान पाना
मगर हम नहीं समझना चाहते
क्वांटम यांत्रिकी
श्रोडिंगर की समीकरणें
अनिश्चितता का सिद्धांत
पदार्थ की द्वैती प्रकृति
विशिष्ट और सामान्य सापेक्षिकता
और ये मान लेते हैं कि ऊपर वाले ने
इस वस्तु को ऐसा ही बनाया होगा

हम चाहते हैं अमर होना
मगर हम नहीं मानना चाहते
कि केवल
गतिशील रहने को
अपने जैसे प्रतिरूप बना देने को
तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ भर देने को
सूचनाओं के विश्लेषण की क्षमता रखने को
नहीं कहते जिंदा रहना
क्योंकि ये सब तो यंत्र भी कर लेते हैं
और हम ये मान लेते हैं
कि जीवन मृत्यु तो ऊपर वाले के हाथ में है

हम नहीं समझना चाहते
इतनी छोटी सी बात
कि अगर ऊपर वाले को सब कुछ
अपनी इच्छा से ही करना होता
हर बात में अपना दखल ही रखना होता
इंसानों के मन में अपने प्रति अगाध श्रद्धा ही देखनी होती
सदा सर्वदा अपनी पूजा ही करवानी होती
तो उसने इंसान के जेहन में
कभी ये प्रश्न पैदा ही न होने दिया होता
कि “ऐसा क्यों होता है?”

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

कविता : वो रही कविता!

वो रही कविता!
बिना किनारे की नदी
जो बहा ले जाती है
डुबा देती है
मगर जान नहीं लेती

वो रही कविता!
बिना ओजोन की पृथ्वी
जो जला देती है कोमच चमड़ी
और त्वचा को मजबूर करती है उत्परिवर्ततित होने पर
ताकि वो पराबैंगनी विकिरण को
सह सकने की क्षमता पैदा करे खुद में

वो रही कविता!
आ रही है गोली की तरह
चीर जाएगी दिल और दिमाग समेत
शरीर का हर एक अंग
मगर कहीं से भी खून नहीं बहेगा

वो रही कविता!
जीवन रक्षक कपड़े मत पहनना
त्वचा पर रक्षक क्रीम मत लगाना
बंकरों में छुप कर मत बैठना
और यदि ऐसी कोई घटना तुम्हारे साथ नहीं घट रही है
तो तुम कविता नहीं पढ़ रहे हो
केवल रास्ता ढूँढ रहे हो
शब्दों के कचरे में से बाहर निकलने का

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

ग़ज़ल : टूट जाए तो आसमाँ चमके

दिल है तारा रहे जहाँ चमके
टूट जाए तो आसमाँ चमके

है मुहब्बत भी जुगनुओं जैसी
जैसे जैसे हो ये जवाँ, चमके

क्या वो आया मेरे मुहल्ले में
आजकल क्यूँ मेरा मकाँ चमके

जब भी उसका ये जिक्र करते हैं
होंठ चमकें मेरी जुबाँ चमके

वो शरारे थे या के लब मौला
छू गए तन जहाँ जहाँ, चमके

ख्वाब ने दूर से उसे देखा
रात भर मेरे जिस्मोजाँ चमके

ज्यों ही चर्चा शुरू हुई उसकी
जो कहानी थी बेनिशाँ, चमके

एक बिजली थी, मुझको झुलसाकर
कौन जाने वो अब कहाँ चमके

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

कविता : सगाई के बाद और शादी से पहले

हवा में तैरते हैं प्रेम-गीत
धूप लेकर आती है रेशमी छुवन
रात सजती है रोज नई दुल्हन सी
गेंदे के फूल से उठती है गुलाब की खुशबू
साँस लेने लगती हैं मंदिर की मूर्तियाँ
कण कण में दिखने लगता है ईश्वर
हर पल मन शुक्रिया अदा करता है ईश्वर का
मानव तन देने के लिए
सगाई के बाद और शादी से पहले

नवयुवकों!
इस समय की हर बूँद को
यादों के घड़े में इकट्ठा करके रखना
क्योंकि इस समय की हर बूँद
वक्त गुजरने के साथ
बनती जाती है दुनिया की सबसे नशीली शराब
जो काम आती है उस समय
जब ऊब होने लगती है
समय से

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

कविता : लुटेरों

लुटेरों!
तुम्हारी प्रवृत्ति है
कमजोरों को लूटना
जहाँ भी तुम्हें दिखेंगे
हाइड्रोजन परमाणु जैसे कमजोर
तुम अपना आवेश साझा करने के बहाने
उनसे जुड़ोगे
और खींच लोगे उनका आवेश भी
अपने पास

लुटेरों!
क्या कर सकते हैं तुम्हारा
नियम और कानून
जब ईश्वर ने ही पक्षपात किया है
तुम्हें अतिरिक्त आवेश दिया है
तुम निकाल ही लोगे कोई न कोई रास्ता
लूटने का
क्योंकि तुम जब तक जीवित रहोगे
तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं बदलेगी

लुटेरों!
क्यों नहीं हो सकते तुम
आक्सीजन की तरह
क्यों तुम अपना पेट भर जाने के बाद
बचा हुआ आवेश
दूसरे लुटे हुए हाइड्रोजन परमाणुओं के साथ
साझा नहीं करते
क्यूँ नहीं कायम करते तुम
हाइड्रोजन बंध की तरह
अमीर और गरीब के बीच
एक नया संबंध
जिसके कारण पृथ्वी पर जीवन ने जन्म लिया

लुटेरों!
यकीन मानो
ऐसा करके तुम पानी की तरह
तरल और सरल हो जाओगे
कई प्यास से मरती सभ्यताओं को
तुम नया जीवन दोगे
यकीन मानो
व्यर्थ है ये अतिरिक्त आवेश
तुम्हारे लिए


लुटेरों!
कर लो ऐसा
वरना रह जाओगे
हाइड्रोजन सल्फाइड की तरह
एक जहरीली गैस बनकर
और सृष्टि रहने तक
लोग घृणा करेंगे
तुम्हारी गंध से भी

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

कविता : घटना क्षितिज

समय
हम दोनों को बहा ले गया है
एक दूसरे के घटना क्षितिज (event horizon) के पार

अब हमारे साथ घटने वाली घटनाएँ
एक दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकतीं

यह जानने का अब हमारे तुम्हारे पास कोई जरिया नहीं बचा
कि कैसी हो मेरे बिना तुम
और तुम्हारे बिना मैं

अब अगर हम महसूस कर सकें
एक दूसरे का दर्द
बिना सूचनाओं के आदान प्रदान के
तब समझना
कि जो संबंध हममें और तुममें था
वह कोई आकर्षण बल नहीं
बल्कि एक क्वांटम जुड़ाव (quantum entanglement) था
जो जुड़ गया था
ब्रह्मांड में हमारी उत्पत्ति के साथ ही
और जिसे समय भी खत्म नहीं कर सकता

यदि ऐसा हुआ
तब समझना
कि हमें फिर मिलने से कोई नहीं रोक सकता
हमारा मिलना
केवल समय की बात है
और समय बीतने के साथ ही
बढ़ती जा रही है
हमारे मिलन की संभावना

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

कविता : मैं देख रहा हूँ

मैं खड़ा हूँ
कृष्ण विवर (black hole) के घटना क्षितिज (event horizon) के ठीक बाहर
मुझे रोक रक्खा है किसी अज्ञात बल ने
और मैं देख रहा हूँ
धरती पर समय को तेजी से भागते हुए

मैं देख रहा हूँ
रंग, रूप, वंश, धन,
जाति, धर्म, देश, तन,
बुद्धि, मृत्यु, समय
सारी सीमाओं को मिटते हुए

मैं देख रहा हूँ
सारी सीमाएँ तोड़कर
मानवता के विराट होते अस्तित्व को
इतना विराट
कि धरती की बड़ी से बड़ी समस्या
इसके सामने अस्तित्वहीन हो गई है

मैं देख रहा हूँ
सूरज को धीरे धीरे ठंढा पड़ते
और इंसानों को दूसरा सौरमंडल तलाशते

मैं देख रहा हूँ
आकाशगंगा के हर ग्रह पर
इंसानी कदमों के निशान बनते

मैं देख रहा हूँ
उत्तरोत्तर विस्तारित होते
दिक्काल (space and time) के धागों को टूटते हुए
ब्रह्मांड की इस चतुर्विमीय (four dimensional) चादर को फटते हुए
और
इंसानों को दिक्काल में एक सुरंग बनाते हुए
जो जोड़ रही है अपने ब्रह्मांड को
एक नए समानांतर ब्रह्मांड (parallel universe) से
जहाँ जीवन की संभावनाएँ
अभी पैदा होनी शुरू ही हुई हैं

मैं देख रहा हूँ
इस ब्रह्मांड के नष्ट हो जाने पर भी
इंसान जिंदा है
और जिंदा है इंसानियत
अपने संपूर्ण अर्जित ज्ञान के साथ
एक नए ब्रह्मांड में

मैं देख रहा हूँ
एक सपना

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल : अच्छे बच्चे सब खाते हैं

अच्छे बच्चे सब खाते हैं
कहकर जूठन पकड़ाते हैं

कर्मों से दिल छलनी कर वो
बातों से फिर बहलाते हैं

खत्म बुराई कैसे होगी
अच्छे जल्दी मर जाते हैं

जीवन मेले में सच रोता
चल उसको गोदी लाते हैं

कैसे समझाऊँ आँखों को
आँसू इतना क्यूँ आते हैं

कह तो देते हैं कुछ पागल
पर कितने सच सह पाते हैं

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल : एक ऐसा भी करीबी यार होना चाहिए

एक ऐसा भी करीबी यार होना चाहिए
आइना लेकर खड़ा हर बार होना चाहिए

घी अकेला क्या करेगा आग के बिन होम में
है ग़ज़ल तो भाव का शृंगार होना चाहिए

कह रहे हैं छंद तुलसी, सूर, मीरा के सदा
इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिए

लाख हो खुशबू चमन में भूख मिट पाती नहीं
कुछ गुलों को भी यहाँ फलदार होना चाहिए

इस कदर बदबू सियासत से उठे लगता यही
हर सियासतदाँ यहाँ बीमार होना चाहिए

टूटटर अब खून के रिश्ते हमें सिखला रहे
प्रेम हर संबंध का आधार होना चाहिए

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

कविता : सामान्य वर्ग के सामान्य बाप का सामान्य बेटा

मैं हूँ सामान्य वर्ग का एक सामान्य अधेड़
न, न, अभी उम्र पचास की नहीं हुई
केवल पैंतीस की ही है
मगर अधेड़ जैसा लगने लगा हूँ

मेरी गलती यही है
कि मैं विलक्षण प्रतिभा का स्वामी नहीं हूँ
न ही किसी पुराने जमींदार की औलाद हूँ
एक सामान्य से किसान का बेटा हूँ मैं

बचपन में न मेरे बापू ने मेरी पढ़ाई पर ध्यान दिया
न मैंने
नौंवी कक्षा में मुझे समझ में आया
कि इस दुनिया में मेरे लिए कहीं आशा बाकी है
तो वह पढ़ाई में ही है
तब मैंने पढ़ना शुरू किया
मगर बहुत मेहनत करने के बाद भी
हाई स्कूल में सेकेंड डिवीजन पास हुआ

फिर मैंने और मेहनत की
इंटर, बीए, एमए भी पास किया
मगर सब सेकेंड डिवीजन

फिर मैंने विभिन्न नौकरियों के लिए
इम्तेहान देने शुरू किए
मगर मैं सामान्य वर्ग का हूँ
हाँ एक बार आईएएस का प्री जरूर क्वालीफाई किया था मैंने
तब मेरी माँ ने मिठाई बाँटी थी
उसकी आँखों में आशा की एक किरण जागी थी

तीस साल का होते ही
सारे इम्तेहानों के लिए बूढ़ा हो गया मैं
सामान्य वर्ग का हूँ ना
वरना पाँच साल तो और मिल ही जाते

फिर मैंने शहर में कोचिंग पढ़ाना शुरू किया
मगर वहाँ अध्यापक कम
और मैनेजर साहब का घरेलू नौकर ज्यादा था
और तनख़्वाह में तो खाना भी मुश्किल से खा पाता था

मैं घर चला आया
बगल के गाँव की अनपढ़ रधिया से बापू ने ब्याह दिया
और मैंने शुरू किया गाँव के बाजार में
चाट बेचना

रधिया पानीपूरी बड़ा अच्छा बनाती है
दिन भर में सारी बिक जाती है
और हम लोगों को पेट भर खाना मिल जाता है
एक बेटा हुआ मेरे
उसको मैंने अभी से एबीसीडी पढ़ाना शुरू कर दिया है
वो कहते हैं ना
घिसते रहने से रस्सी भी पत्थर पर निशान छोड़ देती है
शायद वो बचपन से घिस घिस कर पढ़ ले
तो कोई छोटी मोटी नौकरी मिल जाए उसे
बेचारा सामान्य वर्ग के सामान्य बाप का सामान्य बेटा