मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

कविता : घटना क्षितिज

समय
हम दोनों को बहा ले गया है
एक दूसरे के घटना क्षितिज (event horizon) के पार

अब हमारे साथ घटने वाली घटनाएँ
एक दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकतीं

यह जानने का अब हमारे तुम्हारे पास कोई जरिया नहीं बचा
कि कैसी हो मेरे बिना तुम
और तुम्हारे बिना मैं

अब अगर हम महसूस कर सकें
एक दूसरे का दर्द
बिना सूचनाओं के आदान प्रदान के
तब समझना
कि जो संबंध हममें और तुममें था
वह कोई आकर्षण बल नहीं
बल्कि एक क्वांटम जुड़ाव (quantum entanglement) था
जो जुड़ गया था
ब्रह्मांड में हमारी उत्पत्ति के साथ ही
और जिसे समय भी खत्म नहीं कर सकता

यदि ऐसा हुआ
तब समझना
कि हमें फिर मिलने से कोई नहीं रोक सकता
हमारा मिलना
केवल समय की बात है
और समय बीतने के साथ ही
बढ़ती जा रही है
हमारे मिलन की संभावना

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

कविता : मैं देख रहा हूँ

मैं खड़ा हूँ
कृष्ण विवर (black hole) के घटना क्षितिज (event horizon) के ठीक बाहर
मुझे रोक रक्खा है किसी अज्ञात बल ने
और मैं देख रहा हूँ
धरती पर समय को तेजी से भागते हुए

मैं देख रहा हूँ
रंग, रूप, वंश, धन,
जाति, धर्म, देश, तन,
बुद्धि, मृत्यु, समय
सारी सीमाओं को मिटते हुए

मैं देख रहा हूँ
सारी सीमाएँ तोड़कर
मानवता के विराट होते अस्तित्व को
इतना विराट
कि धरती की बड़ी से बड़ी समस्या
इसके सामने अस्तित्वहीन हो गई है

मैं देख रहा हूँ
सूरज को धीरे धीरे ठंढा पड़ते
और इंसानों को दूसरा सौरमंडल तलाशते

मैं देख रहा हूँ
आकाशगंगा के हर ग्रह पर
इंसानी कदमों के निशान बनते

मैं देख रहा हूँ
उत्तरोत्तर विस्तारित होते
दिक्काल (space and time) के धागों को टूटते हुए
ब्रह्मांड की इस चतुर्विमीय (four dimensional) चादर को फटते हुए
और
इंसानों को दिक्काल में एक सुरंग बनाते हुए
जो जोड़ रही है अपने ब्रह्मांड को
एक नए समानांतर ब्रह्मांड (parallel universe) से
जहाँ जीवन की संभावनाएँ
अभी पैदा होनी शुरू ही हुई हैं

मैं देख रहा हूँ
इस ब्रह्मांड के नष्ट हो जाने पर भी
इंसान जिंदा है
और जिंदा है इंसानियत
अपने संपूर्ण अर्जित ज्ञान के साथ
एक नए ब्रह्मांड में

मैं देख रहा हूँ
एक सपना

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल : अच्छे बच्चे सब खाते हैं

अच्छे बच्चे सब खाते हैं
कहकर जूठन पकड़ाते हैं

कर्मों से दिल छलनी कर वो
बातों से फिर बहलाते हैं

खत्म बुराई कैसे होगी
अच्छे जल्दी मर जाते हैं

जीवन मेले में सच रोता
चल उसको गोदी लाते हैं

कैसे समझाऊँ आँखों को
आँसू इतना क्यूँ आते हैं

कह तो देते हैं कुछ पागल
पर कितने सच सह पाते हैं

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल : एक ऐसा भी करीबी यार होना चाहिए

एक ऐसा भी करीबी यार होना चाहिए
आइना लेकर खड़ा हर बार होना चाहिए

घी अकेला क्या करेगा आग के बिन होम में
है ग़ज़ल तो भाव का शृंगार होना चाहिए

कह रहे हैं छंद तुलसी, सूर, मीरा के सदा
इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिए

लाख हो खुशबू चमन में भूख मिट पाती नहीं
कुछ गुलों को भी यहाँ फलदार होना चाहिए

इस कदर बदबू सियासत से उठे लगता यही
हर सियासतदाँ यहाँ बीमार होना चाहिए

टूटटर अब खून के रिश्ते हमें सिखला रहे
प्रेम हर संबंध का आधार होना चाहिए

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

कविता : सामान्य वर्ग के सामान्य बाप का सामान्य बेटा

मैं हूँ सामान्य वर्ग का एक सामान्य अधेड़
न, न, अभी उम्र पचास की नहीं हुई
केवल पैंतीस की ही है
मगर अधेड़ जैसा लगने लगा हूँ

मेरी गलती यही है
कि मैं विलक्षण प्रतिभा का स्वामी नहीं हूँ
न ही किसी पुराने जमींदार की औलाद हूँ
एक सामान्य से किसान का बेटा हूँ मैं

बचपन में न मेरे बापू ने मेरी पढ़ाई पर ध्यान दिया
न मैंने
नौंवी कक्षा में मुझे समझ में आया
कि इस दुनिया में मेरे लिए कहीं आशा बाकी है
तो वह पढ़ाई में ही है
तब मैंने पढ़ना शुरू किया
मगर बहुत मेहनत करने के बाद भी
हाई स्कूल में सेकेंड डिवीजन पास हुआ

फिर मैंने और मेहनत की
इंटर, बीए, एमए भी पास किया
मगर सब सेकेंड डिवीजन

फिर मैंने विभिन्न नौकरियों के लिए
इम्तेहान देने शुरू किए
मगर मैं सामान्य वर्ग का हूँ
हाँ एक बार आईएएस का प्री जरूर क्वालीफाई किया था मैंने
तब मेरी माँ ने मिठाई बाँटी थी
उसकी आँखों में आशा की एक किरण जागी थी

तीस साल का होते ही
सारे इम्तेहानों के लिए बूढ़ा हो गया मैं
सामान्य वर्ग का हूँ ना
वरना पाँच साल तो और मिल ही जाते

फिर मैंने शहर में कोचिंग पढ़ाना शुरू किया
मगर वहाँ अध्यापक कम
और मैनेजर साहब का घरेलू नौकर ज्यादा था
और तनख़्वाह में तो खाना भी मुश्किल से खा पाता था

मैं घर चला आया
बगल के गाँव की अनपढ़ रधिया से बापू ने ब्याह दिया
और मैंने शुरू किया गाँव के बाजार में
चाट बेचना

रधिया पानीपूरी बड़ा अच्छा बनाती है
दिन भर में सारी बिक जाती है
और हम लोगों को पेट भर खाना मिल जाता है
एक बेटा हुआ मेरे
उसको मैंने अभी से एबीसीडी पढ़ाना शुरू कर दिया है
वो कहते हैं ना
घिसते रहने से रस्सी भी पत्थर पर निशान छोड़ देती है
शायद वो बचपन से घिस घिस कर पढ़ ले
तो कोई छोटी मोटी नौकरी मिल जाए उसे
बेचारा सामान्य वर्ग के सामान्य बाप का सामान्य बेटा

रविवार, 18 सितंबर 2011

ग़ज़ल : छाँव से सटकर खड़ी है धूप ‘सज्जन’

छाँव से सटकर खड़ी है धूप ‘सज्जन’
शत्रु पर सबसे बड़ी है धूप ‘सज्जन’

संगमरमर की सतह से लौट जाती
टीन के पीछे पड़ी है धूप ‘सज्जन’

गर्मियों में लग रही शोला बदन जो
सर्दियों में फुलझड़ी है धूप ‘सज्जन’

भूल से ना रेत पर बरसात कर दें
बादलों से जा लड़ी है धूप ‘सज्जन’

फिर किसी मजलूम की ये जान लेगी
आज कुछ ज्यादा कड़ी है धूप ‘सज्जन’

प्यार शबनम से इसे जबसे हुआ है
यूँ लगे मोती जड़ी है धूप ‘सज्जन’

खोल कर सब खिड़कियाँ आने इसे दो
इस शहर में दो घड़ी है धूप ‘सज्जन’

जिस्म में चुभकर बना देती विटामिन
ज्यों गुरूजी की छड़ी है घूप ‘सज्जन’

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

कविता : आदर्श पदार्थ

आदर्श पदार्थ
केवल एक कल्पना है

लेकिन आदर्श पदार्थ की कल्पना किए बिना
लगभग असंभव है
सामान्य पदार्थ के गुणों को समझना
और सामान्य पदार्थ के गुणों को समझे बिना
असंभव है
वैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उन्नति

आदर्श पदार्थ
हर परिस्थिति में
दिए गए नियमों के अनुसार कार्य करता है
समीकरणों में बँधा रहता है
मगर सामान्य परिस्थियों में
नहीं पाए जाते आदर्श पदार्थ

सामान्य ताप और दाब पर
पाए जाते हैं सामान्य पदार्थ
और इन्हीं से निर्मित होते हैं
पुल, हवाई जहाज, इमारतें, कम्प्यूटर, समाज......
यानि इस धरती पर मौजूद सारी वस्तुएँ
यहाँ तक कि वह ताप और दाब भी
जिस पर आदर्श पदार्थ अस्तित्व में आ सकते हैं
इन्हीं सामान्य पदार्थों से प्राप्त किए जाते हैं

किंतु अक्सर
सामान्य पदार्थों को समझने के लिए
प्रयोग की जाती हैं
आदर्श पदार्थों के लिए बनाई गई समीकरणें
सामान्य पदार्थों के लिए उचित संशोधन लगाए बिना

क्यूँकि संशोधित करने के बाद
प्राप्त समीकरणें को समझना
मुश्किल हो जाता है
और सब में इतना साहस नहीं होता
कि वो इन मुश्किल समीकरणों को समझने की कोशिश करें

मगर जब तक
आम इंसान इन जटिल समीकरणों से
डरते रहेंगे
दूर भागते रहेंगे
आसान समीकरणों और उनके आसान हल की तलाश में
तब तक वो करते रहेंगे आश्चर्य
इस बात पर
कि सामान्य पदार्थ
आदर्शों जैसा व्यवहार क्यों नहीं करते

उन्हें यह छोटी सी बात भी समझ नहीं आएगी
कि जिस ताप और दाब पर
आदर्श पदार्थ अस्तित्व में आ सकते हैं
उसपर संभव ही नहीं होता
जिंदा रह पाना

रविवार, 11 सितंबर 2011

ग़ज़ल : होलोग्राम लगा नकली, कहते सब मैं ही असली

होलोग्राम लगा नकली
कहते सब मैं ही असली

देखी सोने की चिड़िया
कोषों की तबियत मचली

जो कुछ छोड़ा भँवरों ने
उसको खाती है तितली

जिंदा कर देंगे सड़ मत
कह गिद्धों ने लाश छली

मंत्री जी की फ़ाइल से
केवल मँहगाई निकली

कब तक सच मानूँ इसको
“दुर्घटना से देर भली”

अब पानी बदलो ‘सज्जन’
या मर जाएगी मछली

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

ग़ज़ल : दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में

दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में
मजा नहीं आया तुमको बिरयानी खाने में

पल भर के गुस्से से सारी बात बिगड़ जाती
सदियाँ लग जाती हैं बिगड़ी बात बनाने में

खाओ जी भर लेकिन इसको मत बर्बाद करो
एक लहू की बूँद जली है हर इक दाने में

उनसे नज़रें टकराईं तो जो नुकसान हुआ
आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में

अपने हाथों वो देते हैं सुबहो शाम दवा
क्या रक्खा है ‘सज्जन’ अब अच्छा हो जाने में

शनिवार, 3 सितंबर 2011

गिरना

गिरना एक ऐसी प्रक्रिया है
जिसमें वस्तु अपनी विशेष स्थिति के कारण प्राप्त ऊर्जा
जो शायद बरसों की मेहनत के बाद उसे मिली हो
बड़ी तेजी से खो बैठती है

गिरना यदि जल्द रोका न जाय
तो वस्तु के गिरने का वेग उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है
और वस्तु को गिरने में रोमांच का अनुभव होने लगता है

गिरने की इस प्रक्रिया को
तरल पदार्थ जैसे खारा पानी नहीं रोक सकता
न ही रोक सकती है कोई इससे कमजोर वस्तु
यह प्रक्रिया तभी रुकती है
जब वस्तु किसी ठोस और मजबूत तल से टकराती है

तब या तो वस्तु टूटकर बिखर जाती है
या विकृत हो जाती है
और गिरने की इस प्रक्रिया में
वस्तु बढ़ा देती है
अपने आसपास के वातावरण की अराजकता

एक न एक दिन
हर वस्तु को गिरना पड़ता है
क्योंकि कोई भी सहारा हर समय साथ नहीं देता

गिरना हमेशा हमेशा के लिए रोका नहीं जा सकता
पर इतना ध्यान रखने की जरूरत है
कि जब कोई वस्तु गिरे
तो इतना नीचे न गिरने पाए
कि उसका वेग अनियंत्रित हो जाए