क्या?
कैसी लगती हो तुम मुझे?
बता दूँ?
पर विज्ञान का विद्यार्थी हूँ
तुम हँसने लग जाओगी मेरी उपमा पर
पहले वादा करो हँसोगी नहीं
पक्का वादा?
ठीक है
तो मुझे लगता है तुम कृष्ण विवर जैसी हो
अरे हाँ बाबा ‘ब्लैक होल’
क्यूँ?
क्यूँकि जब भी मैं तुम्हारे पास आता हूँ
ऐसा लगता है तुम मुझसे मेरा अस्तित्व छीनने लग गई हो
जैसे मेरा अस्तित्व तुम्हारे अस्तित्व में घुलने लग गया हो
ठीक वैसा ही अनुभव
जैसा किसी पिण्ड को कृष्ण विवर के पास पहुँचने पर होता है
मेरा शरीर तो शरीर
मेरा मन भी तुम्हारे पास आकर
तुम्हारा ही होकर रह जाता है
चाहकर भी तुम्हें छोड़कर जा नहीं पाता
ठीक वैसे जैसे कृष्ण विवर को छोड़कर द्रव्य तो क्या
प्रकाश की तरंगे भी बाहर नहीं निकल पातीं
जब तुम्हें अपनी बाँहों में लेकर
तुम्हारी आँखों में झाँकता हूँ
तो मुझे लगता है जैसे समय रुक गया हो
ठीक वैसे ही जैसे कृष्ण विवर के पास
उसके घटना क्षितिज के पार जाने पर
समय रुक जाता है
दिक्काल का अस्तित्व समाप्त हो जाता है
और इसके बाद क्या होता है
ये दुनिया का कोई सिद्धांत अब तक नहीं बता पाया
क्या?
हाँ ऐसा हो सकता है
कृष्ण विवर दिक्काल की प्रेयसी हो सकता है
क्यूँकि मेरा जो हाल
तुम्हारा साथ करता है
वही सब कृष्ण विवर के कारण दिक्काल के साथ होता है
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
बुधवार, 3 अगस्त 2011
सोमवार, 1 अगस्त 2011
कविता : कालजयी प्रेम
अगर हमारे जीवन में ऐसा यंत्र बना
जो मानव शरीर को परमाणुओं में बदलकर
सुदूर स्थानों पर भेज दे
तो तुम्हारी मृत्यु के पश्चात
मैं तुम्हें बाँहों में भरकर
परमाणुओं में बदल जाऊँगा
तुम्हारे हर परमाणु से
मेरा एक परमाणु जुड़ जाएगा
और वह यंत्र हमारे
हर परमाणु जोड़े को
ब्रह्मांड के सुदूर कोनों में भेज देगा
हमारा हर परमाणु जोड़ा
क्वांटम जुड़ाव के द्वारा
काल का अस्तित्व समाप्त होने तक
दूसरे जोड़ों से जुड़ा रहेगा
और इस तरह
हमारा प्रेम
सर्वव्यापी और कालजयी हो जाएगा
जो मानव शरीर को परमाणुओं में बदलकर
सुदूर स्थानों पर भेज दे
तो तुम्हारी मृत्यु के पश्चात
मैं तुम्हें बाँहों में भरकर
परमाणुओं में बदल जाऊँगा
तुम्हारे हर परमाणु से
मेरा एक परमाणु जुड़ जाएगा
और वह यंत्र हमारे
हर परमाणु जोड़े को
ब्रह्मांड के सुदूर कोनों में भेज देगा
हमारा हर परमाणु जोड़ा
क्वांटम जुड़ाव के द्वारा
काल का अस्तित्व समाप्त होने तक
दूसरे जोड़ों से जुड़ा रहेगा
और इस तरह
हमारा प्रेम
सर्वव्यापी और कालजयी हो जाएगा
बुधवार, 27 जुलाई 2011
कविता : हम तुम और ईश्वर
तब
जब सारे आयाम एक बिंदु मात्र थे
समय भी
तब
जब सृष्टि में केवल और केवल घनीभूत ऊर्जा थी
तब भी
जब इस बिंदु का विस्तार होना शुरू हुआ
और समय ने चलना सीखा
तब भी
जब इस अनंततम सूक्ष्म आयतन में
उपस्थित अनंत अनिश्चितताओं ने
ऊर्जा के गुच्छे बनाने शुरू किए
तब भी
जब इन गुच्छों ने घनीभूत होकर
मूलकण बनाने शुरू किए
तब भी
जब मूलकणों ने मिलकर विभिन्न परमाणु बनाए
तब भी
जब इन परमाणुओं ने गुरुत्वाकर्षण के कारण
इकट्ठा होकर प्रारम्भिक गैसों के बादल बनाने शुरू किए
तब भी
जब गुरुत्व से सिकुड़ने के कारण इन गैसों का तापमान बढ़ा
और तारे बने
तब भी
जब दो तारे पास से गुजरे
और उनके आकर्षण से
कुछ द्रव्य इधर उधर बिखरने से ग्रह बने
तब भी
जब एक ग्रह के ठंढ़े होने पर
हाइड्रोजन और आक्सीजन ने मिलकर पानी बनाया
तब भी
जब इस पानी में जीवन पनपा
तब भी
जब जीवन की जटिलता ने बढ़कर मानव बनाया
तब तक
जब तक तुम्हारे और मेरे माता-पिता धरती पर नहीं आए
हम एक थे
और खोए हुए थे इस महामिलन के महाआनंद में
पर ईश्वर कैसे यह बर्दाश्त करता
कि उसके अलावा किसी और को
परमानंद की प्राप्ति हो
बस हमारे तुम्हारे परमाणु
एक एक करके अलग होने लगे
और बनाने लगे दो अलग अलग मानव शरीर
क्या करूँ?
कैसे समझाऊँ लोगों को?
कि जिसे वो दो अलग अलग शरीर कहते हैं
वो केवल दो अलग अलग गुच्छे हैं परमाणुओं के
और उन गुच्छों का
हर परमाणु चाहता है अपने साथी से जुड़ जाना
सांसारिक संबंधों से
हमारे अरबवें हिस्से के परमाणु भी
शायद ही स्पर्श कर पाएँ
एक दूसरे को
बहुत बड़ी सजा है ये मानव होना
जिससे मरने के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती
क्योंकि बच्चों के रूप में हमारे कुछ परमाणु
इंसानी रूप में बचे रह जाते हैं
और दुबारा मिलने के लिए करना पड़ता है
समय द्वारा
एक पूरे वंश को मिटाने का इंतजार
शायद इसीलिए हमारे धर्मग्रंथों में
ईश्वर को दंड देने के लिए
उसे मानव बनने का श्राप दिया गया है
शायद इसीलिए
बढ़ते उन्मुक्त संबंधों के
इस युग में अब तक
ईश्वर की हिम्मत नहीं हुई
मानव बनकर जन्म लेने की
जब सारे आयाम एक बिंदु मात्र थे
समय भी
तब
जब सृष्टि में केवल और केवल घनीभूत ऊर्जा थी
तब भी
जब इस बिंदु का विस्तार होना शुरू हुआ
और समय ने चलना सीखा
तब भी
जब इस अनंततम सूक्ष्म आयतन में
उपस्थित अनंत अनिश्चितताओं ने
ऊर्जा के गुच्छे बनाने शुरू किए
तब भी
जब इन गुच्छों ने घनीभूत होकर
मूलकण बनाने शुरू किए
तब भी
जब मूलकणों ने मिलकर विभिन्न परमाणु बनाए
तब भी
जब इन परमाणुओं ने गुरुत्वाकर्षण के कारण
इकट्ठा होकर प्रारम्भिक गैसों के बादल बनाने शुरू किए
तब भी
जब गुरुत्व से सिकुड़ने के कारण इन गैसों का तापमान बढ़ा
और तारे बने
तब भी
जब दो तारे पास से गुजरे
और उनके आकर्षण से
कुछ द्रव्य इधर उधर बिखरने से ग्रह बने
तब भी
जब एक ग्रह के ठंढ़े होने पर
हाइड्रोजन और आक्सीजन ने मिलकर पानी बनाया
तब भी
जब इस पानी में जीवन पनपा
तब भी
जब जीवन की जटिलता ने बढ़कर मानव बनाया
तब तक
जब तक तुम्हारे और मेरे माता-पिता धरती पर नहीं आए
हम एक थे
और खोए हुए थे इस महामिलन के महाआनंद में
पर ईश्वर कैसे यह बर्दाश्त करता
कि उसके अलावा किसी और को
परमानंद की प्राप्ति हो
बस हमारे तुम्हारे परमाणु
एक एक करके अलग होने लगे
और बनाने लगे दो अलग अलग मानव शरीर
क्या करूँ?
कैसे समझाऊँ लोगों को?
कि जिसे वो दो अलग अलग शरीर कहते हैं
वो केवल दो अलग अलग गुच्छे हैं परमाणुओं के
और उन गुच्छों का
हर परमाणु चाहता है अपने साथी से जुड़ जाना
सांसारिक संबंधों से
हमारे अरबवें हिस्से के परमाणु भी
शायद ही स्पर्श कर पाएँ
एक दूसरे को
बहुत बड़ी सजा है ये मानव होना
जिससे मरने के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती
क्योंकि बच्चों के रूप में हमारे कुछ परमाणु
इंसानी रूप में बचे रह जाते हैं
और दुबारा मिलने के लिए करना पड़ता है
समय द्वारा
एक पूरे वंश को मिटाने का इंतजार
शायद इसीलिए हमारे धर्मग्रंथों में
ईश्वर को दंड देने के लिए
उसे मानव बनने का श्राप दिया गया है
शायद इसीलिए
बढ़ते उन्मुक्त संबंधों के
इस युग में अब तक
ईश्वर की हिम्मत नहीं हुई
मानव बनकर जन्म लेने की
शनिवार, 23 जुलाई 2011
ग़ज़ल : लाश तेरे वादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
बह्र : २१२ १२२२ २१२
१२२२
लाश तेरे वादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
रोज़ दफ़्न करता हूँ रोज़ खोद लाता हूँ
क्या कमी रहे तुझ बिन ईंट और गारे में
रोज़ घर बनाता हूँ रोज़ ही गिराता हूँ
है तू ही ख़ुदा मेरा तू ही मेरा कातिल है
रोज़ सर झुकाता हूँ रोज़ सर कटाता हूँ
इस नगर में तुझसे ज़्यादा हसीन हैं लाखों
रोज़ याद करता हूँ रोज़ भूल जाता हूँ
दर्द, रंज, तनहाई, अश्क, तंज, रुसवाई
रोज़ मैं कमाता हूँ रोज़ ही उड़ाता हूँ
सोमवार, 18 जुलाई 2011
कविता : खहर
मुझे लगा
वो क्या अहमियत रखता है मेरे लिए
मैं इतना विशाल
और वो
मात्र एक अदना सा शून्य
और मैंने स्वयं को उससे विभाजित कर लिया
परिणाम?
‘खहर’ हो गया हूँ मैं
मुझमें
कुछ भी जोड़ो
कुछ भी घटाओ
कितने से भी गुणा करो
कितने से भी भाग दो
कोई फर्क नहीं पड़ता
अब मैं एक अनिश्चित संख्या हूँ
भटक रहा हूँ
अनंत के आसपास कहीं
वो क्या अहमियत रखता है मेरे लिए
मैं इतना विशाल
और वो
मात्र एक अदना सा शून्य
और मैंने स्वयं को उससे विभाजित कर लिया
परिणाम?
‘खहर’ हो गया हूँ मैं
मुझमें
कुछ भी जोड़ो
कुछ भी घटाओ
कितने से भी गुणा करो
कितने से भी भाग दो
कोई फर्क नहीं पड़ता
अब मैं एक अनिश्चित संख्या हूँ
भटक रहा हूँ
अनंत के आसपास कहीं
बुधवार, 6 जुलाई 2011
ग़ज़ल : मुहब्बत जो गंगा लहर हो गई
मुहब्बत जो गंगा-लहर हो गई
वो काशी की जैसे सहर हो गई
लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
दवा आते आते जहर हो गई
लुटी एक चंचल नदी बाँध से
तो वो सीधी सादी नहर हो गई
चला सारा दिन दूसरों के लिए
जरा सा रुका दोपहर हो गई
समंदर के दिल ने सहा जलजला
तटों पर सुनामी कहर हो गई
जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
शहर ने छुआ तो शहर हो गई
तुझे देख जल भुन गई यूँ ग़ज़ल
हिले हर्फ़ सब, बेबहर हो गई
वो काशी की जैसे सहर हो गई
लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
दवा आते आते जहर हो गई
लुटी एक चंचल नदी बाँध से
तो वो सीधी सादी नहर हो गई
चला सारा दिन दूसरों के लिए
जरा सा रुका दोपहर हो गई
समंदर के दिल ने सहा जलजला
तटों पर सुनामी कहर हो गई
जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
शहर ने छुआ तो शहर हो गई
तुझे देख जल भुन गई यूँ ग़ज़ल
हिले हर्फ़ सब, बेबहर हो गई
सोमवार, 4 जुलाई 2011
कविता : मुक्त इलेक्ट्रॉन
ज्यादातर पदार्थों के
ज्यादातर इलेक्ट्रान
पहले से ही नियत कक्षाओं में
नाभिक के इर्द गिर्द
घूमते घूमते
अपनी सारी जिंदगी बिता देते हैं
पर कुछ पदार्थों के
कुछ इलेक्ट्रान ऐसे भी होते हैं
जो नाभिक के आकर्षण से हारकर
लकीर का फकीर बनने के बजाय
खोज करते हैं नए रास्तों की
पसंद करते हैं संघर्ष करना
धारा के विरुद्ध बहना
इन्हें कहा जाता है ‘मुक्त इलेक्ट्रॉन’
ऐसे ही इलेक्ट्रान पैदा कर पाते हैं विद्युत ऊर्जा
जो अंधकार को करती है रौशन
जिससे फलती फूलती हैं
नई सभ्यताएँ
और प्रगति करती है मानवता
ज्यादातर इलेक्ट्रान
पहले से ही नियत कक्षाओं में
नाभिक के इर्द गिर्द
घूमते घूमते
अपनी सारी जिंदगी बिता देते हैं
पर कुछ पदार्थों के
कुछ इलेक्ट्रान ऐसे भी होते हैं
जो नाभिक के आकर्षण से हारकर
लकीर का फकीर बनने के बजाय
खोज करते हैं नए रास्तों की
पसंद करते हैं संघर्ष करना
धारा के विरुद्ध बहना
इन्हें कहा जाता है ‘मुक्त इलेक्ट्रॉन’
ऐसे ही इलेक्ट्रान पैदा कर पाते हैं विद्युत ऊर्जा
जो अंधकार को करती है रौशन
जिससे फलती फूलती हैं
नई सभ्यताएँ
और प्रगति करती है मानवता
गुरुवार, 30 जून 2011
कविता : काश मैं जीत पाता
काश मैं गोड़ पाता
दिमाग के उन ऊपजाऊ कोनों को
जहाँ हमेशा खर-पतवार ही उगता है
काश मैं सींच पाता
दिमाग के उस रेगिस्तान को
जहाँ सिर्फ बबूल ही उगता है
काश मैं जीत पाता
दिमाग के अँधेरे कोने में बसे
उस राक्षस से
जो सामने आते ही
आधी ताकत ले लेता है
और मेरी ही ताकत से
मुझे हरा कर अपना गुलाम बना लेता है
काश मैं जीत पाता!
काश इंसान जीत पाता!
दिमाग के उन ऊपजाऊ कोनों को
जहाँ हमेशा खर-पतवार ही उगता है
काश मैं सींच पाता
दिमाग के उस रेगिस्तान को
जहाँ सिर्फ बबूल ही उगता है
काश मैं जीत पाता
दिमाग के अँधेरे कोने में बसे
उस राक्षस से
जो सामने आते ही
आधी ताकत ले लेता है
और मेरी ही ताकत से
मुझे हरा कर अपना गुलाम बना लेता है
काश मैं जीत पाता!
काश इंसान जीत पाता!
रविवार, 26 जून 2011
ग़ज़ल : जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए
चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए
आज फिर नाज़ हो आया है ख़ुदी पे मुझको
आज खुद से भी जरा आँख मिलाई जाए
खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए
आज मस्जिद में न था रब मैं ढूँढ़कर हारा
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए
चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए
आज फिर नाज़ हो आया है ख़ुदी पे मुझको
आज खुद से भी जरा आँख मिलाई जाए
खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए
आज मस्जिद में न था रब मैं ढूँढ़कर हारा
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए
शुक्रवार, 24 जून 2011
कविता : माँ की गाली
कभी माँ थी मैं तुम्हारी
आज केवल
एक स्त्री देह रह गई
क्योंकि तुमने
गुस्से में ही सही
दूसरों को गाली देने के लिए ही सही
‘माँ’ शब्द को
अपशब्दों से जोड़कर
नए शब्दों को
पैदा करना सीख लिया है
आज केवल
एक स्त्री देह रह गई
क्योंकि तुमने
गुस्से में ही सही
दूसरों को गाली देने के लिए ही सही
‘माँ’ शब्द को
अपशब्दों से जोड़कर
नए शब्दों को
पैदा करना सीख लिया है
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