किसी जमाने में मैंने एक हास्य कविता लिखी थी। वही आज चिपका रहा हूँ। आनंद लीजिए।
एक रात मैं बिस्तर पर करवटें बदल रहा होता हूँ
तभी दो यमदूत आकर मुझे बतलाते हैं
‘चल उठ जा बेटे, तुझे यमराज बुलाते हैं’।
मैं तुरंत बोल पड़ता हूँ,
‘यारों मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई है?
अभी तो मेरी उमर केवल तीस साल ही हुई है,
लोग कहते हैं मेरी किस्मत में दो शादियाँ लिखी गई हैं
और अभी तो पहली भी नई नई हुई है।
देखो अगर दस-बीस हजार में काम बनता हो तो बना लो,
और किसी को ले जाना इतना ही जरूरी हो,
तो शर्मा जी को उठा लो।’
वो बोले, ‘हमें पुलिस समझ रक्खा है क्या,
कि हम बेकसूरों को उठा ले जायेंगें,
और यमराज को,
अपने देश का अन्धा कानून मत समझ,
कि वो निर्दोष को भी फाँसी पे लटकायेंगें।”
मेरे बहुत गिड़गिड़ाने के बाद भी,
वो मुझे अपने साथ ले जाते हैं;
और थोड़ी देर बाद,
यमराज मुझे अपने सामने नजर आते हैं।
मुझे देखकर,
यमराज थोड़ा सा कसमसाते हैं और कहते हैं,
‘कोई एक पूण्य तो बता दे जो तूने किया है,
तेरे पापों की गणना करने में,
मेरे सुपर कम्यूटर को भी दस मिनट लगा है।’
मैं बोला, ‘क्या बात कर रहे हैं सर,
बिजली बनाना भी तो एक पूण्य का काम है
यमलोक के तैंतीस प्रतिशत बल्बों पर हमारा ही नाम है।’
यह सुनकर यमराज बोले, ‘हुम्म,
चल अच्छा तू ही बता दे
तू स्वर्ग जाएगा या नर्क जाएगा
मैं बोला प्रभो पहले ये बताइए कि ऐश, कैटरीना, बिपासा एटसेट्रा कहाँ जाएँगी
यमराज बोले, “बेटा, स्वर्ग में नारियों के लिए ५०% का आरक्षण है
उसका लाभ उठाते हुए वो स्वर्ग में जगह पाएँगीं।
अबे सुन,
सुना है तू कविताएँ भी लिखता है,
चल आज तो थोड़ा पूण्य कमा ले,
किसी ने आज तक मेरी स्तुति नहीं लिखी,
तू तो मेरी स्तुति रचकर मुझे सुना ले।”
फिर मैं शुरू करता हूँ यमराज को मक्खन लगाना,
और उनकी स्तुति में ये कविता सुनाना,
“इन्द्र जिमि जंभ पर, बाणव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं,
तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंश पर,
त्यों भैंसे की पीठ पर, देखो यमराज हैं।”
स्तुति सुनकर यमराज थोड़ा सा शर्माते हैं,
और मेरे पास आकर मुझे बतलाते हैं,
“यार ये तो मजाक चल रहा था,
अभी तेरी आयु पूरी नहीं हुई है,
तुझे हम यहाँ इसलिये लाए हैं, क्योंकि,
हमें एक यंग एण्ड डायनेमिक,
सिविल इंजीनियर की जरूरत आ पड़ी है।”
मैं बोला, “प्रभो मेरे डिपार्टमेन्ट में एक से एक,
यंग, डायनेमिक, इंटेलिजेंट, स्मार्ट, इक्सपीरिएंस्ड
सिविल इंजीनियर्स खड़े हैं।
आप हाथ मुँह धोकर मेरे ही पीछे क्यों पड़े हैं।”
वो बोले, “वत्स,
तेरा रेकमेण्डेसन लेटर बहुत ऊपर से आया है,
तुझे भगवान राम की स्पेशल रिक्वेस्ट पर बुलवाया है।”
मैं बोला, “अगर मैं हाइली रेकमेन्डेड हूँ,
तो मेरा और टाइम वेस्ट मत कीजिए,
औ मुझे यहाँ किसलिए बुलाया है फटाफट बता दीजिए।”
यह सुनकर यमराज बोले,
“क्या बताएँ वत्स,
कलियुग में पाप बहुत बढ़ते जा रहे हैं,
पिछले चालीस-पचास सालों से,
लोग नर्क में भीड़ बढ़ा रहे हैं,
दरअसल हम नर्क को,
थोड़ा एक्सपैंड करके उसकी कैपेसिटी बढ़ाना चाहते हैं,
इसलिए स्वर्ग का एक पार्ट,
डिमालिश करके वहाँ नर्क बनाना चाहते हैं।”
मैं बोला प्रभो
“इसमें सिविल इंजीनियर की क्या जरूरत है,
विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों को बुला लीजिए,
या फिर लालू प्रसाद यादव को,
स्वर्ग का मुख्यमंत्री बना दीजिए,
मैं सिविल इंजीनियर हूँ,
मैं स्वर्ग को नर्क कैसे बना सकता हूँ,
हाँ अगर नर्क को स्वर्ग बनाना हो,
तो मैं अपनी सारी जिंदगी लगा सकता हूँ।”
मैं आगे बोला,
“प्रभो नर्क में सारे धर्मों के लोग आते होंगे,
क्या वो नर्क में,
पाकिस्तान बनाने की मांग नहीं उठाते होंगे।”
तो यमराज बोले, “वत्स पहले तो ऐसा नहीं था,
पर जब से आपके कुछ नेता नर्क में आए हैं,
अलग अलग धर्म बहुल क्षेत्रों को मिलाकर,
पाकनर्किस्तान बनाने की मांग लगातार उठाये हैं,
पर उनको ये पता नहीं है,
कि हम पाकनर्किस्तान कभी नहीं बनायेंगे,
नर्क तो पहले से ही इतना गन्दा है,
हम उसका स्टैण्डर्ड और नहीं गिराएँगे,
और ऐसा नर्क बनाने की जरूरत भी क्या है,
ऐसा नर्क तो हिन्दुस्तान की बगल में,
पहले से ही बना हुआ है।”
वो ये बता ही रहे थे कि तभी,
प्रभो श्री राम दौड़ते हुए आते हैं,
और आकर मेरे सामने खड़े हो जाते हैं,
मैं बोला, “प्रभो जब आपको ही आना था
तो धरती पर ही आ जाते,
मुझे यमलोक तो न बुलाते
और जब आ ही रहे थे, तो अकेले क्यों आये,
माता सीता को साथ क्यों नहीं लाए,
लव-कुश भी नहीं आये मैं गले किसे लगाऊँगा,
और लक्ष्मण जी व हनुमान जी को,
क्या मैं बुलाने जाऊँगा।”
यह सुनकर श्री राम बोले,
“मजाक अच्छा कर लेते हैं कविवर,
पर मेरी समस्या होती जा रही है बद से बदतर,
विश्व हिन्दू परिषद वाले मेरे पीछे पड़े हुए हैं,
मन्दिर वहीं बनायेंगे के सड़े हुए नारे पे अड़े हुए हैं,
पर वो ये नहीं समझते,
कि यदि हम मन्दिर वहाँ बनवायेंगे,
तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा,
मगर विश्व भर में लाखों बेकसूर मारे जाएँगे,
यार तुम तो कवि हो लगे हाथों कोई कल्पना कर ड़ालो,
और मेरी इस पर्वताकार समस्या को प्लीज हल कर डालो।”
मैं बोला, “प्रभो बस इतनी सी बात,
वहाँ एक सर्वधर्म पूजास्थल बनवा दीजिए,
और उसकी प्लानिंग मुझसे करा लीजिए,
एक बहुत बड़ी सफेद संगमरमर की,
मल्टीस्टोरी बिल्डिंग वहाँ बनवाइये,
और दुनिया में जितने भी धर्म हैं,
उतने कमरे उसमें लगवाइये,
और कमरों में क्या क्या हो ध्यान से सुन लीजिए,
किसी कमरे में बुद्ध मुस्कुराते हुए खड़े हों,
तो किसी कमरे में ईशा सूली पे चढ़े हों,
किसी में महावीर ध्यान लगा रहे हों,
तो किसी में खड़े नानक मुस्कुरा रहे हों,
किसी में पैगम्बर खड़े मन में कुछ गुन रहे हों,
तो किसी में कबीर कपड़े बुन रहे हों,
और जहाँ आप जन्मे थे वहाँ एक बड़ा सा हाल हो,
बहुत ही शान्त, स्वच्छ और सुरम्य वहाँ का माहौल हो,
बीच में एक झूले पर,
आपके बचपन की मनमोहिनी मूरत हो,
जो भी देखे देखता ही रह जाये,
कुछ ऐसी आपकी सूरत हो,
सारे धर्मों के हेड आफ डिपार्मेन्टस,
डीनस और डायरेक्टरस की मूर्तियाँ वहाँ पर लगी हों,
और जितनी मूर्तियाँ हों,
उतनी ही डोरियाँ आपके झूले से निकली हों,
सब के सब मिलकर आपको झूला झुला रहे हों,
और लोरी गा-गाकर सुला रहे हों,
उस मन्दिर में लोग कुछ लेकर नहीं,
बल्कि खाली हाथ जाएँ,
उसे देखें, सोचें, समझें, हँसे, रोयें
और शान्ति से वापस चले आएँ,
पर प्रभो मेरे देश के नेता अगर आपको ऐसा करने देंगें,
तो अगले लोकसभा चुनावों का मुद्दा वो कहाँ खोजेंगे।”
इतना सुनकर भगवन बोले,
“वत्स आपका आइडिया तो अच्छा है,
अतः अपने इस आइडिये के लिये,
कोई वरदान माँग लीजिए।”
मैं बोला, “प्रभो,
मेरी मात्र पाँच सौ पचपन पृष्ठों की एक कविता सुन लीजिए।”
फिर भगवन के ‘तथास्तु’ कहने पर,
मैंने सुनाना शुरु किया,
“कुर्सियाँ आकाश में उड़ने लगी हैं,
गायें चारागाह से मुड़ने लगी हैं,
लड़कियाँ बेबात के रोने लगी हैं,
भैंसें चारा खाके अब सोने लगी हैं,
कल मैंने था खा लिया इक मीठा पान,
देख लो हैं पक गये खेतों में धान।”
और तभी भगवान हो जाते हैं अन्तर्धान,
और होती है आकाशवाणी, “ये आकाशवाणी का विष्णुलोक केन्द्र है,
आपको सूचित किया जाता है, कि आपको दिया गया वरदान वापस ले लिया गया है,
और आपसे ये अनुरोध किया जाता है कि जितनी जल्दी हो सके यमलोक से निकल जाइये,
और दुबारा अपनी सूरत यहाँ मत दिखलाइये।”
यह सुनकर मैं यमराज से बोला, “मुझे वापस पृथ्वीलोक पहुँचा दीजिए।”
यमराज बोले, “कविवर, अपनी आँखें बन्द करके दो सेकेंड बाद खोल लीजिए।”
मैं आँखें खोलता हूँ तो देखता हूँ कि सूरज निकल आया है,
मेरे कमरे में कहीं धूप कहीं छाया है,
धड़ी सुबह के साढ़े आठ बजा रही है,
और जीएम साहब प्रोजेक्ट में ही हैं ये याद दिला रही हैं,
मैं सर झटककर पूरी तरह जागता हूँ,
और तौलिया लेकर बाथरूम की तरफ भागता हूँ,
रास्ते में मेरी समझ में आता है कि मैं सपना देख रहा था
और इतने बड़े-बड़े लोगों के सामने इतनी लम्बी-लम्बी फेंक रहा था।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शनिवार, 18 जून 2011
सोमवार, 13 जून 2011
ग़ज़ल : रेत सी मजलूम की तकदीर है
रेत सी मजलूम की तकदीर है
हर लहर से मिट रही तदबीर है
सूर्य चढ़ते ही मिटा देता सदा
भाषणों की बर्फ़ सी तहरीर है
देश बेआवाज़ बँटता जा रहा
हर सियासतदाँ गज़ब शमशीर है
घाव दिल के वक्त भर देता मगर
धड़कनों के साथ बढ़ती पीर है
सींचती जबसे सियासत क्यारियाँ
फूल भी हाथों को देता चीर है
कब तलक फैशन बताओगे इसे
पाँव में जो लोक के जंजीर है
फ्रेम अच्छा है, बदल दो तंत्र पर,
हो गई अश्लील ये तस्वीर है
हर लहर से मिट रही तदबीर है
सूर्य चढ़ते ही मिटा देता सदा
भाषणों की बर्फ़ सी तहरीर है
देश बेआवाज़ बँटता जा रहा
हर सियासतदाँ गज़ब शमशीर है
घाव दिल के वक्त भर देता मगर
धड़कनों के साथ बढ़ती पीर है
सींचती जबसे सियासत क्यारियाँ
फूल भी हाथों को देता चीर है
कब तलक फैशन बताओगे इसे
पाँव में जो लोक के जंजीर है
फ्रेम अच्छा है, बदल दो तंत्र पर,
हो गई अश्लील ये तस्वीर है
शुक्रवार, 10 जून 2011
कविता : नाभिक
कैसा रिश्ता है ये
क्यूँ जबरन बाँध रक्खा है
इन नन्हें नन्हें पाईऑनों ने
मुझे तुमसे
तुम न्यूट्रॉन, मैं प्रोटॉन
हमारे बीच कोई आकर्षण नहीं था
मगर हमें जबरन इतने करीब लाया गया
कि हम एक दूसरे से बँध गए
इन नन्हें नन्हें पाईऑनों के कारण
बेचारा इलेक्ट्रॉन
आज भी चक्कर लगा रहा है
हम दोनों के चारों तरफ़
मेरे प्रेमाकर्षण में बँधा
कभी कभी मैं सोचता हूँ
चला जाऊँ सब कुछ छोड़कर
इस नाभिक को तोड़कर
और गले लगा लूँ इलेक्ट्रॉन को
फिर सोचता हूँ
कि मैं और इलेक्ट्रॉन तो एक दूसरे को सोखकर
नष्ट हो जाएँगें
मगर तुम और पाइऑन अकेले रह जाओगे
नष्ट हो जाएगा नाभिक
और नाभिकों से बनी यह सृष्टि
मगर क्यूँ है यह सृष्टि ऐसी
क्यूँ पैदा करता है आकर्षण
ईश्वर उनके बीच
जो कभी मिल नहीं सकते
और अगर कभी मिल भी गए
तो दोनों ही नष्ट हो जाते हैं
क्यूँ जबरन बाँध रक्खा है
इन नन्हें नन्हें पाईऑनों ने
मुझे तुमसे
तुम न्यूट्रॉन, मैं प्रोटॉन
हमारे बीच कोई आकर्षण नहीं था
मगर हमें जबरन इतने करीब लाया गया
कि हम एक दूसरे से बँध गए
इन नन्हें नन्हें पाईऑनों के कारण
बेचारा इलेक्ट्रॉन
आज भी चक्कर लगा रहा है
हम दोनों के चारों तरफ़
मेरे प्रेमाकर्षण में बँधा
कभी कभी मैं सोचता हूँ
चला जाऊँ सब कुछ छोड़कर
इस नाभिक को तोड़कर
और गले लगा लूँ इलेक्ट्रॉन को
फिर सोचता हूँ
कि मैं और इलेक्ट्रॉन तो एक दूसरे को सोखकर
नष्ट हो जाएँगें
मगर तुम और पाइऑन अकेले रह जाओगे
नष्ट हो जाएगा नाभिक
और नाभिकों से बनी यह सृष्टि
मगर क्यूँ है यह सृष्टि ऐसी
क्यूँ पैदा करता है आकर्षण
ईश्वर उनके बीच
जो कभी मिल नहीं सकते
और अगर कभी मिल भी गए
तो दोनों ही नष्ट हो जाते हैं
रविवार, 5 जून 2011
कविता : विद्रोह
विरोध कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
कि कायम रहे
अणुओं का कंपन
अणुओं का कंपन कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
विद्रोह का तापमान
वरना ठंढा होते होते
हर पदार्थ
अंततः विरोध करना बंद कर देता है
और बन जाता है अतिचालक
उसके बाद
मनमर्जी से बहती है बिजली
बिना कोई नुकसान झेले
अनंत काल तक
इसके लिए जरूरी है
कि कायम रहे
अणुओं का कंपन
अणुओं का कंपन कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
विद्रोह का तापमान
वरना ठंढा होते होते
हर पदार्थ
अंततः विरोध करना बंद कर देता है
और बन जाता है अतिचालक
उसके बाद
मनमर्जी से बहती है बिजली
बिना कोई नुकसान झेले
अनंत काल तक
शुक्रवार, 3 जून 2011
कविता: इंद्रियाँ और दिमाग़
इंद्रियाँ तो कठपुतलियाँ हैं
सबसे ऊपर बैठे दिमाग़ की
उसी के इशारों पर नाचती हैं
इंद्रियों को तो पता भी नहीं होता
कि वो आखिर कर क्या रही हैं
आवश्यकता से अधिक सुख सुविधाएँ
जिन्हें वो गलत तरीके से इकट्ठा कर रही हैं
उन्हें या तो निकम्मा बना देंगी
या रोगी
और अगर पकड़ी गईं
तो सारी सजा मिलेगी इंद्रियों को
बलि की बकरियाँ हैं इंद्रियाँ।
इंद्रियाँ करें भी तो क्या करें
आदिकाल से
नियम ही ऐसे बनते आये हैं
जिससे सारी सजा इंद्रियों को ही मिले,
हर देवता, हर महात्मा ने
हमेशा यही कहा है
कि इंद्रियों पर नियंत्रण रखो
दिमाग़ की तरफ़ तो
कभी भूल कर भी उँगली नहीं उठाई गई
कैसे उठाई जाती
उँगली भी तो आखिरकार
दिमाग़ के नियंत्रण में थी।
मगर कलियुग आने का
पुराने नियमों से विश्वास उठने का
एक फायदा तो हुआ है
अब यदा कदा कोई कोई उँगली
दिमाग़ की तरफ भी उठने लगी है,
ज्यादातर तो तोड़ दी जाती हैं
या जहर फैल जाएगा कहकर काट दी जाती हैं
मगर क्या करे दिमाग़
अनिश्चितता का सिद्धांत तो वो भी नहीं बदल सकता
कि उठने वाली हर उँगली तोड़ी नहीं जा सकती,
कोई न कोई उँगली बची रह ही जाएगी
तथा उस उँगली की सफलता को देखकर
उसके साथ और भी उँगलियाँ उठ खड़ी होंगी,
अन्ततः दिमाग को
उँगलियों की सम्मिलित शक्ति के सामने
सर झुकाना ही पड़ेगा
अपनी असीमित शक्ति का दुरुपयोग
रोकना ही पड़ेगा।
सबसे ऊपर बैठे दिमाग़ की
उसी के इशारों पर नाचती हैं
इंद्रियों को तो पता भी नहीं होता
कि वो आखिर कर क्या रही हैं
आवश्यकता से अधिक सुख सुविधाएँ
जिन्हें वो गलत तरीके से इकट्ठा कर रही हैं
उन्हें या तो निकम्मा बना देंगी
या रोगी
और अगर पकड़ी गईं
तो सारी सजा मिलेगी इंद्रियों को
बलि की बकरियाँ हैं इंद्रियाँ।
इंद्रियाँ करें भी तो क्या करें
आदिकाल से
नियम ही ऐसे बनते आये हैं
जिससे सारी सजा इंद्रियों को ही मिले,
हर देवता, हर महात्मा ने
हमेशा यही कहा है
कि इंद्रियों पर नियंत्रण रखो
दिमाग़ की तरफ़ तो
कभी भूल कर भी उँगली नहीं उठाई गई
कैसे उठाई जाती
उँगली भी तो आखिरकार
दिमाग़ के नियंत्रण में थी।
मगर कलियुग आने का
पुराने नियमों से विश्वास उठने का
एक फायदा तो हुआ है
अब यदा कदा कोई कोई उँगली
दिमाग़ की तरफ भी उठने लगी है,
ज्यादातर तो तोड़ दी जाती हैं
या जहर फैल जाएगा कहकर काट दी जाती हैं
मगर क्या करे दिमाग़
अनिश्चितता का सिद्धांत तो वो भी नहीं बदल सकता
कि उठने वाली हर उँगली तोड़ी नहीं जा सकती,
कोई न कोई उँगली बची रह ही जाएगी
तथा उस उँगली की सफलता को देखकर
उसके साथ और भी उँगलियाँ उठ खड़ी होंगी,
अन्ततः दिमाग को
उँगलियों की सम्मिलित शक्ति के सामने
सर झुकाना ही पड़ेगा
अपनी असीमित शक्ति का दुरुपयोग
रोकना ही पड़ेगा।
सोमवार, 30 मई 2011
कविता : बड़ी अजीब हैं तुम्हारी यादें
बड़ी अजीब हैं तुम्हारी यादें
दिमाग के थोड़े से आयतन में
छुपकर बैठी रहती हैं
तुम्हारी ठोस यादें
बस अकेलेपन की गर्मी मिलने की देर है
बढ़ने लगता है इनके अणुओं का आयाम
और ये द्रव बनकर बाहर निकलने लग जाती हैं
धीरे धीरे
जैसे जैसे
बढ़ती है अकेलेपन की गर्मी
ये गैस का रूप धारण कर लेती हैं
और भर जाती हैं दिमाग के पूरे आयतन में
अपना दबाव धीरे धीरे बढ़ाते हुए
एक दिन ऐसा भी आएगा
जब अकेलेपन की गर्मी इतनी बढ़ जाएगी
कि दिमाग की दीवारें
इन गैसों का दबाव सह नहीं पाएँगी
और ये गैसें
दिमाग की दीवारों को फाड़कर बाहर निकल जाएँगी
उस दिन तुम्हारी यादों को
मुक्ति मिल जाएगी
और मुझे शांति
मगर ये दुनिया कहेगी
कि मैं तुम्हारे प्यार में पागल हो गया।
दिमाग के थोड़े से आयतन में
छुपकर बैठी रहती हैं
तुम्हारी ठोस यादें
बस अकेलेपन की गर्मी मिलने की देर है
बढ़ने लगता है इनके अणुओं का आयाम
और ये द्रव बनकर बाहर निकलने लग जाती हैं
धीरे धीरे
जैसे जैसे
बढ़ती है अकेलेपन की गर्मी
ये गैस का रूप धारण कर लेती हैं
और भर जाती हैं दिमाग के पूरे आयतन में
अपना दबाव धीरे धीरे बढ़ाते हुए
एक दिन ऐसा भी आएगा
जब अकेलेपन की गर्मी इतनी बढ़ जाएगी
कि दिमाग की दीवारें
इन गैसों का दबाव सह नहीं पाएँगी
और ये गैसें
दिमाग की दीवारों को फाड़कर बाहर निकल जाएँगी
उस दिन तुम्हारी यादों को
मुक्ति मिल जाएगी
और मुझे शांति
मगर ये दुनिया कहेगी
कि मैं तुम्हारे प्यार में पागल हो गया।
सोमवार, 23 मई 2011
ग़ज़ल : सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं
चंदा तारे बन रातों में नभ को जाती हैं।
सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं।
आँखों में जब तक बूँदें तब तक इनका हिस्सा,
निकलें तो खारा पानी बनकर खो जाती हैं।
सागर की करतूतें बादल तट पर लिख जाते,
लहरें आकर पल भर में सबकुछ धो जाती हैं।
भिन्न उजाले में लगती हैं यूँ तो सब शक्लें,
किंतु अँधेरे में जाकर इक सी हो जाती हैं।
हवा सुगंधित हो जाये कितना भी पर ‘सज्जन’,
मीन सभी मरतीं जल से बाहर जो जाती हैं।
सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं।
आँखों में जब तक बूँदें तब तक इनका हिस्सा,
निकलें तो खारा पानी बनकर खो जाती हैं।
सागर की करतूतें बादल तट पर लिख जाते,
लहरें आकर पल भर में सबकुछ धो जाती हैं।
भिन्न उजाले में लगती हैं यूँ तो सब शक्लें,
किंतु अँधेरे में जाकर इक सी हो जाती हैं।
हवा सुगंधित हो जाये कितना भी पर ‘सज्जन’,
मीन सभी मरतीं जल से बाहर जो जाती हैं।
मंगलवार, 17 मई 2011
कविता : हम-तुम
हम-तुम
जैसे सरिया और कंक्रीट
दिन भर मैं दफ़्तर का तनाव झेलता हूँ
और तुम घर चलाने का दबाव
इस तरह हम झेलते हैं
जीवन का बोझ
साझा करके
किसी का बोझ कम नहीं है
न मेरा न तुम्हारा
झेल लेंगें हम
आँधी, बारिश, धूप, भूकंप, तूफ़ान
अगर यूँ ही बने रहेंगे
इक दूजे का सहारा
जैसे सरिया और कंक्रीट
दिन भर मैं दफ़्तर का तनाव झेलता हूँ
और तुम घर चलाने का दबाव
इस तरह हम झेलते हैं
जीवन का बोझ
साझा करके
किसी का बोझ कम नहीं है
न मेरा न तुम्हारा
झेल लेंगें हम
आँधी, बारिश, धूप, भूकंप, तूफ़ान
अगर यूँ ही बने रहेंगे
इक दूजे का सहारा
शनिवार, 14 मई 2011
ग़ज़ल: मेरी किस्मत में है तेरा प्यार नहीं
मेरी किस्मत में है तेरा प्यार नहीं
तेरी नफ़रत किंतु मुझे स्वीकार नहीं
दिल में बनकर चोट बसी जो तू मेरे
निकली फिर क्यूँ बन आँसू की धार नहीं
तुझसे होकर दूर मरा तो कबका मैं
रूह मगर क्यूँ जाने को तैयार नहीं
तुझको नफ़रत के बदले में नफ़रत दूँ
मान यकीं मैं इतना भी खुद्दार नहीं
जान मिरी हाजिर है तेरी खिदमत में
आता मुझ पर तेरा क्यूँ एतबार नहीं
तेरी नफ़रत किंतु मुझे स्वीकार नहीं
दिल में बनकर चोट बसी जो तू मेरे
निकली फिर क्यूँ बन आँसू की धार नहीं
तुझसे होकर दूर मरा तो कबका मैं
रूह मगर क्यूँ जाने को तैयार नहीं
तुझको नफ़रत के बदले में नफ़रत दूँ
मान यकीं मैं इतना भी खुद्दार नहीं
जान मिरी हाजिर है तेरी खिदमत में
आता मुझ पर तेरा क्यूँ एतबार नहीं
मंगलवार, 10 मई 2011
प्यार की वैज्ञानिक व्याख्या
क्या?
प्यार की वैज्ञानिक व्याख्या चाहिए
तो सुनो
ब्रह्मांड का हर कण
तरंग जैसा भी व्यवहार करता है
और उसकी तरंग का कुछ अंश
भले ही वह नगण्य हो
ब्रह्मांड के कोने कोने तक फैला होता है
आकर्षण और कुछ नहीं
इन्हीं तरंगों का व्यतिकरण है
और जब कभी इन तरंगों की आवृत्तियाँ
एक जैसी हो जाती हैं
तो तन और मन के कम्पनों का आयाम
इतना बढ़ जाता है
कि आत्मा तक झंकृत हो उठती है
इस क्रिया को विज्ञान अनुनाद कहता हैं
और आम इंसान
प्यार
इसलिए अगर सच्चा प्यार चाहिए
तो शरीर नहीं
आवृत्ति मिलाने की कोशिश करो
मगर यह काम
जितना आसान दिखता है
उतना है नहीं
क्योंकि हो सकता है
कि जिससे तुम्हारी तरंगों की आवृत्ति मिले
वो पत्थर हो, पेड़ हो
अथवा
वो इस धरती पर हो ही नहीं
प्यार की वैज्ञानिक व्याख्या चाहिए
तो सुनो
ब्रह्मांड का हर कण
तरंग जैसा भी व्यवहार करता है
और उसकी तरंग का कुछ अंश
भले ही वह नगण्य हो
ब्रह्मांड के कोने कोने तक फैला होता है
आकर्षण और कुछ नहीं
इन्हीं तरंगों का व्यतिकरण है
और जब कभी इन तरंगों की आवृत्तियाँ
एक जैसी हो जाती हैं
तो तन और मन के कम्पनों का आयाम
इतना बढ़ जाता है
कि आत्मा तक झंकृत हो उठती है
इस क्रिया को विज्ञान अनुनाद कहता हैं
और आम इंसान
प्यार
इसलिए अगर सच्चा प्यार चाहिए
तो शरीर नहीं
आवृत्ति मिलाने की कोशिश करो
मगर यह काम
जितना आसान दिखता है
उतना है नहीं
क्योंकि हो सकता है
कि जिससे तुम्हारी तरंगों की आवृत्ति मिले
वो पत्थर हो, पेड़ हो
अथवा
वो इस धरती पर हो ही नहीं
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