शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

कल रात

कल रात दिल्ली की सड़कों पर
हुआ एक बलात्कार
आज रात भर
उन्हीं सड़कों पर
घूमती रही पुलिस,
दो चार दिन की बात है
फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा
इतिहास एक बार फिर
स्वयं को दोहराएगा

बुधवार, 24 नवंबर 2010

चश्मा

कुछ दिनों पहले उसके पास
दो सौ रूपए का चश्मा था
बार बार उसके हाथों से गिर जाता था
और वो बड़ी शान से सबसे कहता था
मेहनत की कमाई है
खरोंच तक नहीं आएगी।

आज वो चार हजार का चश्मा पहनता है
मगर वो चश्मा जरा सा भी
किसी चीज से छू जाता है
तो वह तुरंत उलट पलट कर
ये देखने लगता है
कि कहीं चश्मे में
कोई खरोंच तो नहीं आ गई।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।

इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।

पाँव तुम्हारा चूम चूम कर
धान मुँआँ पकता है
छूकर तेरी कमर
बाजरा लहराता फिरता है
तेरे बालों से मक्का
रेशम चोरी करता है
तेरा अधर चूमने को,
गन्ना रस से भरता है;
सरपत पकड़ दुपट्टा तेरा खींचतान करता है।

बारिश ने जबरन तेरा
यह कोमल गात छुआ है
उस पर मेरा गुस्सा
अब तक ठंढा नहीं हुआ है
तिस पर जाड़ा मेरा
दुश्मन बन आने वाला है
तुझको कंबल से ढक
घर में बिठलाने वाला है;
इतने दिन बिन देखे मर जाऊँगा ये लगता है।

कबसे सोच रहा था अबके
क्वार तुझे मैं ब्याहूँ
तेरे तन के फूलों में निज
मन की महक मिलाऊँ
नन्हीं नन्हीं कलियों से
घर, आँगन, बाग सजाऊँ
पर पत्थर-दिल पागल
आदमखोरों से डर जाऊँ
गए दशहरे कई जाति का रावण ना मरता है।

बुधवार, 17 नवंबर 2010

बस इतना अधिकार मुझे दो

नहीं चाहता साथ तुम्हारे
नाचूँ, गाऊँ, झूमूँ, घूमूँ
नहीं चाहता तुमको देखूँ,
छूँलूँ, कसलूँ या फिर चूमूँ

नहीं चाहता तुम अपना जीवन
दो या फिर प्यार मुझे दो
अंत समय चंदन बन जाऊँ
बस इतना अधिकार मुझे दो

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ
सेवा के कुछ फूलों में हम मन की महक मिलाएँ

बेघर करके बेचारों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव जाड़ा आता है
करने उनपर घात
कम से कम हम एक ईंट इक वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे अधनंगे जो उनके प्राण बचाएँ

मंदिर मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने अब मिल स्वेद बहाएँ

शनिवार, 6 नवंबर 2010

पाँच दोहे तेल पर

तन मन जलकर तेल का, आया सबके काम।
दीपक बाती का हुआ, सारे जग में नाम॥

तन जलकर काजल बना, मन जल बना प्रकाश।
ऐसा त्यागी तेल सा, मैं भी होता काश॥

बाती में ही समाकर, जलता जाए तेल।
करे प्रकाशित जगत को, दोनों का यह मेल॥

पीतल, चाँदी, स्वर्ण के दीप करें अभिमान।
तेल और बाती मगर, सबमें एक समान॥

देख तेल के त्याग को, बाती भी जल जाय।
दीपक धोखा देत है, तम को तले छुपाय॥

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

बूढ़ा घर और दीपावाली

गाँव का बूढ़ा घर
जर्जर
जीवन की कुछेक आखिरी साँसें
ले रहा है
रोज गिनता है
दीपावाली आने में
बचे हुए दिन
अब तो दीपावली में ही
आते हैं
उसके आँगन में खेलकर
बड़े हुए बच्चे
अपने पुश्तैनी घर में
दीपक जलाने
ताकि उस घर पर उनका हक
बना रहे
और बूढ़ा घर
किसी बेघर को आश्रय न दे दे।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

माँ

बच्चा जब माँ को रोते देखता है
तो बच्चा भी
उसके दुख से दुखी होकर रोता है,
बच्चे के लिए माँ का दुख ही सबसे बड़ा दुख है,
इसके आगे वो कुछ सोच समझ नहीं सकता।

बड़ा होने पर जब बच्चा
दुखी होकर रोता है,
तो माँ भी उसके दुख से दुखी होकर रोती है;
बच्चे के दुख के आगे
माँ भी कुछ सोच समझ नहीं पाती;
छोटे बच्चे की तरह।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

जिंदगी की दौड़

जो पीते थे
वो पिलाकर

जो खाते थे
वो खिलाकर

जो चोर थे
वो चुराकर

जो तेल लगाते थे
वो तेल लगाकर

जो चालू थे
वो सबको बेवकूफ बनाकर

जिंदगी की दौड़ में आगे निकल गए
और धनवान बन गए

जिनको इनमें से कुछ भी नहीं आता था
वो जिंदगी की दौड़ में बहुत पीछे रह गए
और इंसान बन गए।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

आँवले जैसी हो तुम

आँवले जैसी हो तुम
जब तक पास रहती हो
खटास बनी रहती है
पर जब चली जाती हो
और मै संग संग बिताए
पलों की याद का पानी पीता हूँ
तो धीरे धीरे मीठास घुलने लगती है
उन पलों की
मेरे मुँह में
मेरे तन में
मेरे मन में
मेरे जीवन में।