मंगलवार, 16 नवंबर 2010

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ
सेवा के कुछ फूलों में हम मन की महक मिलाएँ

बेघर करके बेचारों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव जाड़ा आता है
करने उनपर घात
कम से कम हम एक ईंट इक वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे अधनंगे जो उनके प्राण बचाएँ

मंदिर मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने अब मिल स्वेद बहाएँ

शनिवार, 6 नवंबर 2010

पाँच दोहे तेल पर

तन मन जलकर तेल का, आया सबके काम।
दीपक बाती का हुआ, सारे जग में नाम॥

तन जलकर काजल बना, मन जल बना प्रकाश।
ऐसा त्यागी तेल सा, मैं भी होता काश॥

बाती में ही समाकर, जलता जाए तेल।
करे प्रकाशित जगत को, दोनों का यह मेल॥

पीतल, चाँदी, स्वर्ण के दीप करें अभिमान।
तेल और बाती मगर, सबमें एक समान॥

देख तेल के त्याग को, बाती भी जल जाय।
दीपक धोखा देत है, तम को तले छुपाय॥

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

बूढ़ा घर और दीपावाली

गाँव का बूढ़ा घर
जर्जर
जीवन की कुछेक आखिरी साँसें
ले रहा है
रोज गिनता है
दीपावाली आने में
बचे हुए दिन
अब तो दीपावली में ही
आते हैं
उसके आँगन में खेलकर
बड़े हुए बच्चे
अपने पुश्तैनी घर में
दीपक जलाने
ताकि उस घर पर उनका हक
बना रहे
और बूढ़ा घर
किसी बेघर को आश्रय न दे दे।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

माँ

बच्चा जब माँ को रोते देखता है
तो बच्चा भी
उसके दुख से दुखी होकर रोता है,
बच्चे के लिए माँ का दुख ही सबसे बड़ा दुख है,
इसके आगे वो कुछ सोच समझ नहीं सकता।

बड़ा होने पर जब बच्चा
दुखी होकर रोता है,
तो माँ भी उसके दुख से दुखी होकर रोती है;
बच्चे के दुख के आगे
माँ भी कुछ सोच समझ नहीं पाती;
छोटे बच्चे की तरह।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

जिंदगी की दौड़

जो पीते थे
वो पिलाकर

जो खाते थे
वो खिलाकर

जो चोर थे
वो चुराकर

जो तेल लगाते थे
वो तेल लगाकर

जो चालू थे
वो सबको बेवकूफ बनाकर

जिंदगी की दौड़ में आगे निकल गए
और धनवान बन गए

जिनको इनमें से कुछ भी नहीं आता था
वो जिंदगी की दौड़ में बहुत पीछे रह गए
और इंसान बन गए।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

आँवले जैसी हो तुम

आँवले जैसी हो तुम
जब तक पास रहती हो
खटास बनी रहती है
पर जब चली जाती हो
और मै संग संग बिताए
पलों की याद का पानी पीता हूँ
तो धीरे धीरे मीठास घुलने लगती है
उन पलों की
मेरे मुँह में
मेरे तन में
मेरे मन में
मेरे जीवन में।

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

सूर्य और सुबह

जवान होता सूरज
जब अपना जादुई रंग रूप
नवयौवना
सुबह को दिखलाता है
तो सुबह शर्म से लाल होकर
उसके मोहपाश में बँधी
खिंचती चली जाती है
और दोनों के प्राण
एक दूसरे में मिल जाते हैं
इस मिलन से सृष्टि होती है दिन की
दिन के प्रकाश से ही धरती पर जीवन चलता है
और इस तरह
सृष्टि के कण कण में
सूर्य और सुबह के
अमर प्रेम की ऊर्जा से
जीवन पलता है।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

सुहाग की निशानियाँ

सुहाग की निशानियाँ
याद दिलाती रहतीं हैं
नववधू को उसके पति की,
इन निशानियों को उसे हमेशा पहनना पड़ता है
धीरे धीरे वो इन निशानियों की आदी हो जाती है
और उसे ध्यान भी नहीं रहता
कि उसने ये निशानियाँ भी पहनी हुई हैं;

एक दिन अचानक जब उसका सुहाग
परलोक सिधार जाता है
तब उसे वो सारी निशानियाँ उतारनी पड़ती हैं
ताकि उनकी अनुपस्थिति उसे पति की याद दिलाती रहे
मरते दम तक;

पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है,
वाह रे पुरुषों के बनाए रिवाज,
वाह!

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

इक कमल था

इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

लाख आईं तितलियाँ
ले पर रँगीले
कई आये भौंर
कर गुंजन सजीले
मंदिरों ने याचना की सर्वदा
देवताओं ने चिरौरी की सदा,
साथ उसने
पंक का ही था दिया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

कीच की सेवा
थी उसकी बंदगी
कीच की खुशियाँ
थीं उसकी जिंदगी
कीच के दुख दर्द में वह संग खड़ा
कीच के उत्थान की ही जंग लड़ा
कीच में ही
सकल जीवन कट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

एक दिन था
जब कमल मुरझा गया
कीच ने
बाँहों में तब उसको लिया
प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर
पंक ने छिड़का जो नीची कर नज़र
कीच सारा
कमल ही से पट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

बैकुंठवासी श्याम!

उतर आओ फिर धरा पर, छोड़ कर आराम
बैकुंठवासी श्याम!

अब सुदामा कृष्ण के सेवक से भी दुत्कार खाते,
झूठ के दम पर युधिष्टिर अब यहाँ हैं राज्य पाते;
गर्भ में ही मार देते कंस नन्हीं देवियों को,
और अर्जुन से सखा अब कहाँ मिलते हैं किसी को;
प्रेम का बहुरूप धरके,
आगया है काम

देवता डरने लगे हैं देख मानव भक्ति भगवन,
कर्म कोई और करता फल भुगतता दूसरा जन;
योग सस्ता होके अब बाजार में बिकने लगा है,
ज्ञान सारा देह के सुख को बढ़ाने में लगा है;
नये युग को नई गीता,
चाहिए घनश्याम

कौरवों और पांडवों के स्वार्थरत गठबन्धनों से,
हस्तिनापुर कसमसाता और भारत त्रस्त फिर से;
द्रौपदी का चीर खींचा जा रहा हर इक गली में,
धरके लाखों रूप आना ही पड़ेगा इस सदी में;
बोझ कलियुग का तभी,
प्रभु पाएगा सच थाम