उतर आओ फिर धरा पर, छोड़ कर आराम
बैकुंठवासी श्याम!
अब सुदामा कृष्ण के सेवक से भी दुत्कार खाते,
झूठ के दम पर युधिष्टिर अब यहाँ हैं राज्य पाते;
गर्भ में ही मार देते कंस नन्हीं देवियों को,
और अर्जुन से सखा अब कहाँ मिलते हैं किसी को;
प्रेम का बहुरूप धरके,
आगया है काम
देवता डरने लगे हैं देख मानव भक्ति भगवन,
कर्म कोई और करता फल भुगतता दूसरा जन;
योग सस्ता होके अब बाजार में बिकने लगा है,
ज्ञान सारा देह के सुख को बढ़ाने में लगा है;
नये युग को नई गीता,
चाहिए घनश्याम
कौरवों और पांडवों के स्वार्थरत गठबन्धनों से,
हस्तिनापुर कसमसाता और भारत त्रस्त फिर से;
द्रौपदी का चीर खींचा जा रहा हर इक गली में,
धरके लाखों रूप आना ही पड़ेगा इस सदी में;
बोझ कलियुग का तभी,
प्रभु पाएगा सच थाम
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
रविवार, 17 अक्तूबर 2010
अन्धविश्वास
अन्धविश्वास का पिता है,
डर;
डर की जनक हैं
सृष्टि में फैली
अनिश्चितताएँ;
अनिश्चितताओं का जन्मदाता है
ईश्वर;
इस तरह
यह सिद्ध होता है कि
ईश्वर
अन्धविश्वास का
प्रपितामह है।
डर;
डर की जनक हैं
सृष्टि में फैली
अनिश्चितताएँ;
अनिश्चितताओं का जन्मदाता है
ईश्वर;
इस तरह
यह सिद्ध होता है कि
ईश्वर
अन्धविश्वास का
प्रपितामह है।
शनिवार, 16 अक्तूबर 2010
गजल : क्यूँ है
बेवफा मेरे ही दिल में ये तेरा घर क्यूँ है
जी रहा आज भी आशिक वहीं मर मर क्यूँ है।
वो नहीं जानती रोजा न ही कलमा न नमाँ
ये बता फिर उसी चौखट पे तेरा दर क्यूँ है।
जानते हैं सभी बस प्रेम में बसता है तू
फिर जमीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दिर क्यूँ है।
तू नहीं साँप न ही साँप का बच्चा है तो
तेरी हर बात में फिर ज़हर सा असर क्य़ूँ है।
एक चट्टान के टुकड़े हैं ये सारे ‘सज्जन’
तब इक कंकड़ इक पत्थर इक शंकर क्यूँ है।
रोज लिख देते हैं हम प्यार पे ग़ज़लें कितनी
हर तरफ़ फिर भी ये नफ़रत का ही मंजर क्यूँ है।
जी रहा आज भी आशिक वहीं मर मर क्यूँ है।
वो नहीं जानती रोजा न ही कलमा न नमाँ
ये बता फिर उसी चौखट पे तेरा दर क्यूँ है।
जानते हैं सभी बस प्रेम में बसता है तू
फिर जमीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दिर क्यूँ है।
तू नहीं साँप न ही साँप का बच्चा है तो
तेरी हर बात में फिर ज़हर सा असर क्य़ूँ है।
एक चट्टान के टुकड़े हैं ये सारे ‘सज्जन’
तब इक कंकड़ इक पत्थर इक शंकर क्यूँ है।
रोज लिख देते हैं हम प्यार पे ग़ज़लें कितनी
हर तरफ़ फिर भी ये नफ़रत का ही मंजर क्यूँ है।
बुधवार, 13 अक्तूबर 2010
पानी
पानी ने जबसे उसके तन को छुआ है,
तब से पानी बौराया हुआ है,
भागता ही रहा है
दौड़ता ही रहा है
नाली, नाले, नदी, सागर, आसमान, जमीन
और जाने कहाँ कहाँ जा जाकर
उस मादक स्पर्श को
ढूँढता ही फिर रहा है;
बेचारे पानी को क्या पता
ऐसा पागल कर देने वाला स्पर्श
कभी कभी ही मिलता है जिंदगी में
और वो भी बड़ी किस्मत से,
उसके बाद
अस्तित्व रहने तक
तरह तरह के स्पर्शों में
उस स्पर्श को दुबारा पाने की,
लालसा ही रह जाती है बस।
तब से पानी बौराया हुआ है,
भागता ही रहा है
दौड़ता ही रहा है
नाली, नाले, नदी, सागर, आसमान, जमीन
और जाने कहाँ कहाँ जा जाकर
उस मादक स्पर्श को
ढूँढता ही फिर रहा है;
बेचारे पानी को क्या पता
ऐसा पागल कर देने वाला स्पर्श
कभी कभी ही मिलता है जिंदगी में
और वो भी बड़ी किस्मत से,
उसके बाद
अस्तित्व रहने तक
तरह तरह के स्पर्शों में
उस स्पर्श को दुबारा पाने की,
लालसा ही रह जाती है बस।
शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010
घास
घास कहीं भी उग आती है
जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व मिल जाँय,
इसीलिए उसे बेशर्म कहा जाता है,
इतनी बेइज्जती की जाती है;
घास का कसूर ये है
कि उसे जानवरों को खिलाया जाता है
इसीलिए उसकी बेइज्जती करने के लिए
मुहावरे तक बना दिये गए हैं
कोई निकम्मा हो तो उसे कहते हैं
वो घास छील रहा है;
जिस दिन घास असहयोग आन्दोलन करेगी
उगना बन्द कर देगी
और लोगों को अपने हिस्से का खाना
जानवरों को देना पड़ेगा
अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए;
उस दिन पता चलेगा सबको घास का महत्व
उसी दिन बदलेगी लोगों की सोच
और सदियों से चले आ रहे मुहावरे।
जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व मिल जाँय,
इसीलिए उसे बेशर्म कहा जाता है,
इतनी बेइज्जती की जाती है;
घास का कसूर ये है
कि उसे जानवरों को खिलाया जाता है
इसीलिए उसकी बेइज्जती करने के लिए
मुहावरे तक बना दिये गए हैं
कोई निकम्मा हो तो उसे कहते हैं
वो घास छील रहा है;
जिस दिन घास असहयोग आन्दोलन करेगी
उगना बन्द कर देगी
और लोगों को अपने हिस्से का खाना
जानवरों को देना पड़ेगा
अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए;
उस दिन पता चलेगा सबको घास का महत्व
उसी दिन बदलेगी लोगों की सोच
और सदियों से चले आ रहे मुहावरे।
गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010
दीवारें
सब देखती और सुनती रहती हैं दीवारें
सारे कुकर्म दीवारों की आड़ में ही किए जाते हैं
और एक दिन इन्हीं कुकर्मों के बोझ से
टूटकर गिर जाती हैं दीवारें
और फिर बनाई जाती हैं नई दीवारें
नए कुकर्मों के लिए;
पता नहीं कब बोलना सीखेंगी ये दीवारें
मगर जिस भी दिन दीवारें बोल उठेंगी
वो दिन दीवारों की आड़ में
सदियों से फलती फूलती
इस सभ्यता
इस व्यवस्था
का आखिरी दिन होगा।
सारे कुकर्म दीवारों की आड़ में ही किए जाते हैं
और एक दिन इन्हीं कुकर्मों के बोझ से
टूटकर गिर जाती हैं दीवारें
और फिर बनाई जाती हैं नई दीवारें
नए कुकर्मों के लिए;
पता नहीं कब बोलना सीखेंगी ये दीवारें
मगर जिस भी दिन दीवारें बोल उठेंगी
वो दिन दीवारों की आड़ में
सदियों से फलती फूलती
इस सभ्यता
इस व्यवस्था
का आखिरी दिन होगा।
मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010
दुख
खुशी प्रकट करने के तो हजारों तरीके हैं
पर दुख प्रकट करने का बस एक ही तरीका है
और ये तरीका किसी को सिखाना नहीं पड़ता
सब जन्म से ही सीखकर आते हैं
आँसू बहाना
और ज्यादा दुख हो तो चिल्लाना
दुख में सारे इंसान एक जैसा ही व्यवहार करते हैं
दुख सारे इंसानों को एक सूत्र में बाँधता है
रिश्तेदारों को करीब लाता है
जिंदगी में कभी ना कभी
दुख झेलना बड़ा जरूरी है
तभी इंसान दूसरों को इंसान समझता है
और जो लोग अपनो के दुख में खुश होते हैं
वो इंसान नहीं होते
और उनके कभी इंसान बनने की
संभावना भी नहीं होती।
पर दुख प्रकट करने का बस एक ही तरीका है
और ये तरीका किसी को सिखाना नहीं पड़ता
सब जन्म से ही सीखकर आते हैं
आँसू बहाना
और ज्यादा दुख हो तो चिल्लाना
दुख में सारे इंसान एक जैसा ही व्यवहार करते हैं
दुख सारे इंसानों को एक सूत्र में बाँधता है
रिश्तेदारों को करीब लाता है
जिंदगी में कभी ना कभी
दुख झेलना बड़ा जरूरी है
तभी इंसान दूसरों को इंसान समझता है
और जो लोग अपनो के दुख में खुश होते हैं
वो इंसान नहीं होते
और उनके कभी इंसान बनने की
संभावना भी नहीं होती।
रविवार, 3 अक्तूबर 2010
ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ
कभी-कभी मेरा दिल करता है
ईश्वर के लम्बे-लम्बे बालों को पकड़कर
उसके थोबड़े को सामने लाकर
घूँसे मार मार कर
ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ
उसके दाँत तोड़ दूँ
उसका सर पकड़कर
दीवाल पर तब तक मारूँ
जब तक कि वह ये न कहे
कि “मुझसे गलती हो गई है
उसकी जान मैंने भूलवश ली है
मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था
मैं समय को फिर उसी बिन्दु पर ले आता हूँ
जहाँ मैंने उसकी जान ली थी
सब कुछ फिर से वैसा हो जाएगा
समय फिर वहीं से आगे बढ़ेगा
बस इस बार मैं उसकी जान नहीं लूँगा।”
ईश्वर के लम्बे-लम्बे बालों को पकड़कर
उसके थोबड़े को सामने लाकर
घूँसे मार मार कर
ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ
उसके दाँत तोड़ दूँ
उसका सर पकड़कर
दीवाल पर तब तक मारूँ
जब तक कि वह ये न कहे
कि “मुझसे गलती हो गई है
उसकी जान मैंने भूलवश ली है
मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था
मैं समय को फिर उसी बिन्दु पर ले आता हूँ
जहाँ मैंने उसकी जान ली थी
सब कुछ फिर से वैसा हो जाएगा
समय फिर वहीं से आगे बढ़ेगा
बस इस बार मैं उसकी जान नहीं लूँगा।”
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
भगवान के घर में भी लूट पाट है
भगवान के घर में भी लूट पाट है
अत्याचार है,
बुराइयाँ हैं,
बलात्कार है,
भ्रष्टाचार है,
और भगवान भी
इन्हें खत्म कर पाने में असमर्थ है
वरना क्या जरूरत है भगवान को
अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुलाने की
और बुरे लोगों को इस दुनिया में जिन्दा छोड़ने की।
अत्याचार है,
बुराइयाँ हैं,
बलात्कार है,
भ्रष्टाचार है,
और भगवान भी
इन्हें खत्म कर पाने में असमर्थ है
वरना क्या जरूरत है भगवान को
अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुलाने की
और बुरे लोगों को इस दुनिया में जिन्दा छोड़ने की।
बुधवार, 29 सितंबर 2010
न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा
न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा,
आजकल एक जैसे रातोदिन, बातोसदा।
कसाई भी हुआ है आज बेईमान बड़ा,
बिका है कोई, बँधा कोई, सर से कोई जुदा।
लगी थी भीड़ वहाँ अंधे, बहरे, गूँगों की,
न जाने कौन गिरा, कौन बचा, कौन लदा।
देर है मौके की, माहौल और कीमत की,
‘बिकाऊ है’ ये हर इक ईंशाँ के ईमाँ पे गुदा।
नहीं कुचल के गरीबों को कौन आगे बढ़ा,
वो तुम हो, या के मैं हूँ, या के वो है, या के ख़ुदा।
आजकल एक जैसे रातोदिन, बातोसदा।
कसाई भी हुआ है आज बेईमान बड़ा,
बिका है कोई, बँधा कोई, सर से कोई जुदा।
लगी थी भीड़ वहाँ अंधे, बहरे, गूँगों की,
न जाने कौन गिरा, कौन बचा, कौन लदा।
देर है मौके की, माहौल और कीमत की,
‘बिकाऊ है’ ये हर इक ईंशाँ के ईमाँ पे गुदा।
नहीं कुचल के गरीबों को कौन आगे बढ़ा,
वो तुम हो, या के मैं हूँ, या के वो है, या के ख़ुदा।
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