घास कहीं भी उग आती है
जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व मिल जाँय,
इसीलिए उसे बेशर्म कहा जाता है,
इतनी बेइज्जती की जाती है;
घास का कसूर ये है
कि उसे जानवरों को खिलाया जाता है
इसीलिए उसकी बेइज्जती करने के लिए
मुहावरे तक बना दिये गए हैं
कोई निकम्मा हो तो उसे कहते हैं
वो घास छील रहा है;
जिस दिन घास असहयोग आन्दोलन करेगी
उगना बन्द कर देगी
और लोगों को अपने हिस्से का खाना
जानवरों को देना पड़ेगा
अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए;
उस दिन पता चलेगा सबको घास का महत्व
उसी दिन बदलेगी लोगों की सोच
और सदियों से चले आ रहे मुहावरे।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010
गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010
दीवारें
सब देखती और सुनती रहती हैं दीवारें
सारे कुकर्म दीवारों की आड़ में ही किए जाते हैं
और एक दिन इन्हीं कुकर्मों के बोझ से
टूटकर गिर जाती हैं दीवारें
और फिर बनाई जाती हैं नई दीवारें
नए कुकर्मों के लिए;
पता नहीं कब बोलना सीखेंगी ये दीवारें
मगर जिस भी दिन दीवारें बोल उठेंगी
वो दिन दीवारों की आड़ में
सदियों से फलती फूलती
इस सभ्यता
इस व्यवस्था
का आखिरी दिन होगा।
सारे कुकर्म दीवारों की आड़ में ही किए जाते हैं
और एक दिन इन्हीं कुकर्मों के बोझ से
टूटकर गिर जाती हैं दीवारें
और फिर बनाई जाती हैं नई दीवारें
नए कुकर्मों के लिए;
पता नहीं कब बोलना सीखेंगी ये दीवारें
मगर जिस भी दिन दीवारें बोल उठेंगी
वो दिन दीवारों की आड़ में
सदियों से फलती फूलती
इस सभ्यता
इस व्यवस्था
का आखिरी दिन होगा।
मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010
दुख
खुशी प्रकट करने के तो हजारों तरीके हैं
पर दुख प्रकट करने का बस एक ही तरीका है
और ये तरीका किसी को सिखाना नहीं पड़ता
सब जन्म से ही सीखकर आते हैं
आँसू बहाना
और ज्यादा दुख हो तो चिल्लाना
दुख में सारे इंसान एक जैसा ही व्यवहार करते हैं
दुख सारे इंसानों को एक सूत्र में बाँधता है
रिश्तेदारों को करीब लाता है
जिंदगी में कभी ना कभी
दुख झेलना बड़ा जरूरी है
तभी इंसान दूसरों को इंसान समझता है
और जो लोग अपनो के दुख में खुश होते हैं
वो इंसान नहीं होते
और उनके कभी इंसान बनने की
संभावना भी नहीं होती।
पर दुख प्रकट करने का बस एक ही तरीका है
और ये तरीका किसी को सिखाना नहीं पड़ता
सब जन्म से ही सीखकर आते हैं
आँसू बहाना
और ज्यादा दुख हो तो चिल्लाना
दुख में सारे इंसान एक जैसा ही व्यवहार करते हैं
दुख सारे इंसानों को एक सूत्र में बाँधता है
रिश्तेदारों को करीब लाता है
जिंदगी में कभी ना कभी
दुख झेलना बड़ा जरूरी है
तभी इंसान दूसरों को इंसान समझता है
और जो लोग अपनो के दुख में खुश होते हैं
वो इंसान नहीं होते
और उनके कभी इंसान बनने की
संभावना भी नहीं होती।
रविवार, 3 अक्तूबर 2010
ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ
कभी-कभी मेरा दिल करता है
ईश्वर के लम्बे-लम्बे बालों को पकड़कर
उसके थोबड़े को सामने लाकर
घूँसे मार मार कर
ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ
उसके दाँत तोड़ दूँ
उसका सर पकड़कर
दीवाल पर तब तक मारूँ
जब तक कि वह ये न कहे
कि “मुझसे गलती हो गई है
उसकी जान मैंने भूलवश ली है
मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था
मैं समय को फिर उसी बिन्दु पर ले आता हूँ
जहाँ मैंने उसकी जान ली थी
सब कुछ फिर से वैसा हो जाएगा
समय फिर वहीं से आगे बढ़ेगा
बस इस बार मैं उसकी जान नहीं लूँगा।”
ईश्वर के लम्बे-लम्बे बालों को पकड़कर
उसके थोबड़े को सामने लाकर
घूँसे मार मार कर
ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ
उसके दाँत तोड़ दूँ
उसका सर पकड़कर
दीवाल पर तब तक मारूँ
जब तक कि वह ये न कहे
कि “मुझसे गलती हो गई है
उसकी जान मैंने भूलवश ली है
मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था
मैं समय को फिर उसी बिन्दु पर ले आता हूँ
जहाँ मैंने उसकी जान ली थी
सब कुछ फिर से वैसा हो जाएगा
समय फिर वहीं से आगे बढ़ेगा
बस इस बार मैं उसकी जान नहीं लूँगा।”
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
भगवान के घर में भी लूट पाट है
भगवान के घर में भी लूट पाट है
अत्याचार है,
बुराइयाँ हैं,
बलात्कार है,
भ्रष्टाचार है,
और भगवान भी
इन्हें खत्म कर पाने में असमर्थ है
वरना क्या जरूरत है भगवान को
अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुलाने की
और बुरे लोगों को इस दुनिया में जिन्दा छोड़ने की।
अत्याचार है,
बुराइयाँ हैं,
बलात्कार है,
भ्रष्टाचार है,
और भगवान भी
इन्हें खत्म कर पाने में असमर्थ है
वरना क्या जरूरत है भगवान को
अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुलाने की
और बुरे लोगों को इस दुनिया में जिन्दा छोड़ने की।
बुधवार, 29 सितंबर 2010
न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा
न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा,
आजकल एक जैसे रातोदिन, बातोसदा।
कसाई भी हुआ है आज बेईमान बड़ा,
बिका है कोई, बँधा कोई, सर से कोई जुदा।
लगी थी भीड़ वहाँ अंधे, बहरे, गूँगों की,
न जाने कौन गिरा, कौन बचा, कौन लदा।
देर है मौके की, माहौल और कीमत की,
‘बिकाऊ है’ ये हर इक ईंशाँ के ईमाँ पे गुदा।
नहीं कुचल के गरीबों को कौन आगे बढ़ा,
वो तुम हो, या के मैं हूँ, या के वो है, या के ख़ुदा।
आजकल एक जैसे रातोदिन, बातोसदा।
कसाई भी हुआ है आज बेईमान बड़ा,
बिका है कोई, बँधा कोई, सर से कोई जुदा।
लगी थी भीड़ वहाँ अंधे, बहरे, गूँगों की,
न जाने कौन गिरा, कौन बचा, कौन लदा।
देर है मौके की, माहौल और कीमत की,
‘बिकाऊ है’ ये हर इक ईंशाँ के ईमाँ पे गुदा।
नहीं कुचल के गरीबों को कौन आगे बढ़ा,
वो तुम हो, या के मैं हूँ, या के वो है, या के ख़ुदा।
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
कर
आयकर, गृहकर, सम्पत्तिकर, बिक्रीकर,
जलकर,
कितने गिनाऊँ?
कितने सारे रूपये,
कर के रूप में,
हर साल सबसे वसूलती है सरकार,
पर होता क्या है इन रूपयों का,
खेल के मैदानों में कुछ कुर्सियाँ और लग जाती हैं,
सरकारी दफ़्तरों का पुनर्निमाण हो जाता है,
राज्यमार्ग और चौड़े हो जाते हैं,
सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि हो जाती है,
बड़े लोगों के स्विस बैंक खातों में
थोड़ा धन और बढ़ जाता है;
एक चक्र है ये,
जिसमें अमीरों से पैसा लिया जाता है,
और अमीरों को और सुविधाएँ देने में,
खर्च कर दिया जाता है;
गरीबों के लिए,
विदेशों से गेंहू मँगाया जाता है,
जो गोदामों में ही सड़ जाता है;
ईंटों की अस्थायी सड़कें बनाई जाती हैं,
जो बारिश में टूटकर बह जाती हैं;
चापाकल लगाये जाते हैं,
जो गर्मियों में सूख जाते हैं;
जो बचता है,
वो अधिकारियों के,
सफ़ेद और काले भत्तों में खप जाता है;
सरकार अमीरों से धन वसूल तो सकती है,
पर उसे गरीबों तक पहुँचा नहीं सकती;
अब ऐसे में क्या रास्ता बचता है,
बेचारे गरीब के पास?
यही ना कि वो सीधे अमीरों के पास जाए,
और उनसे उनका धन छीन ले;
सबकुछ आइने की तरह साफ है,
फिर भी लोग आश्चर्य करते रहते हैं,
अपराध के बढ़ने पर,
विद्रोह के बढ़ने पर,
राजद्रोह के बढ़ने पर।
जलकर,
कितने गिनाऊँ?
कितने सारे रूपये,
कर के रूप में,
हर साल सबसे वसूलती है सरकार,
पर होता क्या है इन रूपयों का,
खेल के मैदानों में कुछ कुर्सियाँ और लग जाती हैं,
सरकारी दफ़्तरों का पुनर्निमाण हो जाता है,
राज्यमार्ग और चौड़े हो जाते हैं,
सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि हो जाती है,
बड़े लोगों के स्विस बैंक खातों में
थोड़ा धन और बढ़ जाता है;
एक चक्र है ये,
जिसमें अमीरों से पैसा लिया जाता है,
और अमीरों को और सुविधाएँ देने में,
खर्च कर दिया जाता है;
गरीबों के लिए,
विदेशों से गेंहू मँगाया जाता है,
जो गोदामों में ही सड़ जाता है;
ईंटों की अस्थायी सड़कें बनाई जाती हैं,
जो बारिश में टूटकर बह जाती हैं;
चापाकल लगाये जाते हैं,
जो गर्मियों में सूख जाते हैं;
जो बचता है,
वो अधिकारियों के,
सफ़ेद और काले भत्तों में खप जाता है;
सरकार अमीरों से धन वसूल तो सकती है,
पर उसे गरीबों तक पहुँचा नहीं सकती;
अब ऐसे में क्या रास्ता बचता है,
बेचारे गरीब के पास?
यही ना कि वो सीधे अमीरों के पास जाए,
और उनसे उनका धन छीन ले;
सबकुछ आइने की तरह साफ है,
फिर भी लोग आश्चर्य करते रहते हैं,
अपराध के बढ़ने पर,
विद्रोह के बढ़ने पर,
राजद्रोह के बढ़ने पर।
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
दोस्ती और प्यार
दोस्ती एक कविता है,
एक सुंदर सी कविता,
क्योंकि इसमें शब्द अपना वो अर्थ नहीं रखते,
जो शब्द कोश में होते हैं;
शब्दों का अर्थ उनमें अन्तर्निहित
भावों से समझा जाता है,
जैसे गाली प्यार को व्यक्त करती है,
अनौपचारिकता सम्मान का प्रतीक होती है,
गुस्सा अपनापन दर्शाता है;
और प्यार,
प्यार तो अनकही कविता है,
जहाँ आँखों से ही सब कुछ कह दिया जाता है,
और समझ लिया जाता है;
जहाँ इशारों ही इशारों में,
दिल का हाल बयाँ हो जाता है;
आजकल दोस्ती तो वैसी ही है,
मगर प्यार थोड़ा बदल गया है,
जब तक बार बार व्यक्त ना किया जाय,
लिख लिख कर बताया ना जाय,
लोग प्यार का विश्वास ही नहीं करते,
मुझे समझ नहीं आता,
कि बार बार लिखकर,
या कहकर,
हम अपने प्यार की सत्यता का यकीन,
आखिर दिलाते किसको हैं,
दूसरों को,
या फिर खुद को ही।
एक सुंदर सी कविता,
क्योंकि इसमें शब्द अपना वो अर्थ नहीं रखते,
जो शब्द कोश में होते हैं;
शब्दों का अर्थ उनमें अन्तर्निहित
भावों से समझा जाता है,
जैसे गाली प्यार को व्यक्त करती है,
अनौपचारिकता सम्मान का प्रतीक होती है,
गुस्सा अपनापन दर्शाता है;
और प्यार,
प्यार तो अनकही कविता है,
जहाँ आँखों से ही सब कुछ कह दिया जाता है,
और समझ लिया जाता है;
जहाँ इशारों ही इशारों में,
दिल का हाल बयाँ हो जाता है;
आजकल दोस्ती तो वैसी ही है,
मगर प्यार थोड़ा बदल गया है,
जब तक बार बार व्यक्त ना किया जाय,
लिख लिख कर बताया ना जाय,
लोग प्यार का विश्वास ही नहीं करते,
मुझे समझ नहीं आता,
कि बार बार लिखकर,
या कहकर,
हम अपने प्यार की सत्यता का यकीन,
आखिर दिलाते किसको हैं,
दूसरों को,
या फिर खुद को ही।
रविवार, 5 सितंबर 2010
मेरी नजर से भी देखो खुद को कभी
मेरी नजर से भी देखो खुद को कभी।
मेरे लिए तो तुम्हीं इस अनन्त ब्रह्मांड का केन्द्र हो,
तुमसे ही मेरे ब्रह्मांड ने जन्म लिया है,
और तुम्हीं इसको हर पल विस्तृत कर रही हो,
एक दिन ये समाप्त हो जाएगा,
तुम्हारे साथ ही।
कितनी सारी खुशियाँ दी हैं तुमने मुझे,
तारों की तरह टिमटिमाती हुई,
और वो अपना नन्हा सूर्य,
जो हमारे इस ब्रह्मांड को रोशनी से भर रहा है,
काश! तुम मेरी कल्पनाओं को देख सकतीं।
मैं कितना भी तेज भागूँ,
तुम्हारे चारों ओर ही घूमता रहूँगा,
मैं तुमसे दूर कैसे जा सकता हूँ,
तुम्हारे प्रेम के गुरुत्वाकर्षण ने मुझे बाँध रक्खा है,
मैं अपनी सारी ऊर्जा प्राप्त करता हूँ तुमसे ही।
मेरे लिए तो तुम्हीं इस अनन्त ब्रह्मांड का केन्द्र हो,
तुमसे ही मेरे ब्रह्मांड ने जन्म लिया है,
और तुम्हीं इसको हर पल विस्तृत कर रही हो,
एक दिन ये समाप्त हो जाएगा,
तुम्हारे साथ ही।
कितनी सारी खुशियाँ दी हैं तुमने मुझे,
तारों की तरह टिमटिमाती हुई,
और वो अपना नन्हा सूर्य,
जो हमारे इस ब्रह्मांड को रोशनी से भर रहा है,
काश! तुम मेरी कल्पनाओं को देख सकतीं।
मैं कितना भी तेज भागूँ,
तुम्हारे चारों ओर ही घूमता रहूँगा,
मैं तुमसे दूर कैसे जा सकता हूँ,
तुम्हारे प्रेम के गुरुत्वाकर्षण ने मुझे बाँध रक्खा है,
मैं अपनी सारी ऊर्जा प्राप्त करता हूँ तुमसे ही।
बुधवार, 1 सितंबर 2010
भूख
न जाने भूख क्यों बनाई ईश्वर ने?
और पेट क्यों दिया इंसान को?
क्या चला जाता ईश्वर का,
अगर उसने हमें ऐसी त्वचा दी होती,
जो सूर्य की रोशनी से,
सीधे ऊर्जा प्राप्त कर सके,
मुफ़्त की ऊर्जा;
अगर ऐसा होता,
तो लोगों को भूख ना लगती,
लोग दाल रोटी की फ़िकर ना करते,
तब लोग काम करते,
केवल अहंकार की तुष्टि के लिए,
एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए,
और जीवन का सारा संघर्ष,
अमीरों के बीच सिमट कर रह जाता;
क्योंकि गरीब बेचारे,
आराम से दिन भर,
धूप लिया करते,
ना कोई चिन्ता ना कोई फ़िकर,
कितना सुखी हो जाता गरीबों का जीवन;
मगर,
ईश्वर ने पेट देकर,
भूख देकर,
गरीबों के साथ छल किया है,
और अमीरों की तरफ़दारी की है,
ताकि गरीब अपने लिए,
जीवन भर,
रोटी दाल का इन्तजाम करते रह जाएँ,
और अमीर,
दिन ब दिन अमीर होते जाएँ,
गरीबों का खून चूसकर;
गरीबों के इस खून को बेचकर,
अमीर,
ईश्वर के लिए नए नए घर बनवाते जाएँ,
और गरीब,
अपने खून से बने उन घरों में,
मत्था टेककर,
अपने को धन्य समझते रहें,
ईश्वर की जयजयकार करते रहें,
और चलती रहे,
ईश्वर की दाल रोटी।
और पेट क्यों दिया इंसान को?
क्या चला जाता ईश्वर का,
अगर उसने हमें ऐसी त्वचा दी होती,
जो सूर्य की रोशनी से,
सीधे ऊर्जा प्राप्त कर सके,
मुफ़्त की ऊर्जा;
अगर ऐसा होता,
तो लोगों को भूख ना लगती,
लोग दाल रोटी की फ़िकर ना करते,
तब लोग काम करते,
केवल अहंकार की तुष्टि के लिए,
एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए,
और जीवन का सारा संघर्ष,
अमीरों के बीच सिमट कर रह जाता;
क्योंकि गरीब बेचारे,
आराम से दिन भर,
धूप लिया करते,
ना कोई चिन्ता ना कोई फ़िकर,
कितना सुखी हो जाता गरीबों का जीवन;
मगर,
ईश्वर ने पेट देकर,
भूख देकर,
गरीबों के साथ छल किया है,
और अमीरों की तरफ़दारी की है,
ताकि गरीब अपने लिए,
जीवन भर,
रोटी दाल का इन्तजाम करते रह जाएँ,
और अमीर,
दिन ब दिन अमीर होते जाएँ,
गरीबों का खून चूसकर;
गरीबों के इस खून को बेचकर,
अमीर,
ईश्वर के लिए नए नए घर बनवाते जाएँ,
और गरीब,
अपने खून से बने उन घरों में,
मत्था टेककर,
अपने को धन्य समझते रहें,
ईश्वर की जयजयकार करते रहें,
और चलती रहे,
ईश्वर की दाल रोटी।
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