धरती के अन्तर में हर क्षण,
दौड़ता रहता है,
पिघला हुआ लावा,
दहकता हुआ लोहा,
जो करता है,
एक चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण,
धरती के चारों ओर,
और यही चुम्बकीय क्षेत्र,
घातक सौर विस्फोटों से,
रक्षा करता है हमारी;
धरती माँ ने आदि काल से ही,
बड़े कष्ट झेले हैं हमारे लिए,
लगातार जलाती रही है,
अपना दिल हमारे लिए;
हम से तो माँ को ये उम्मीद थी,
कि हम अपनी रक्षा खुद करना सीख लेंगे,
अपने लिए सुरक्षा कवच खुद बना लेंगे,
और माँ बुझा सकेगी अपने दिल की आग;
मगर हमने तो आजतक,
केवल सुरक्षा कवचों को तोड़ा है,
और बढ़ाते ही गए हैं,
धरती के दिल में पिघला हुआ लावा,
न जाने कब तक सह पाएगा,
धरती का अन्तर,
इस लावे की गर्मी को;
न जाने कब तक....।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
मेढ़क
मेढ़क को अगर,
उबलते हुए पानी में डाल दिया जाय,
तो वह उछल कर बाहर आ जाता है;
मगर यदि उसे डाला जाय,
धीरे धीरे गर्म हो रहे पानी में,
तो उसका दिमाग,
उस गर्मी को सह लेता है,
और मेढ़क उबल कर मर जाता है;
छात्रों को मेढ़क काटकर,
उसके अंगों की संचरना तो समझाई जाती है,
पर उसके खून का यह गुण,
पूरी तरह गुप्त रखा जाता है,
हमारी सरकार द्वारा;
तभी तो हमारा सरकारी तंत्र,
युवा आत्माओं को,
भ्रष्टाचार की धीमी आँच से,
उबालकर मारने में,
इतना सफल है;
कुछेक खुशकिस्मत आत्माएँ ही,
इस साजिश को समझ पाती हैं,
और इससे लड़ने की कोशिश करती हैं,
पर इस गर्म हो रहे पानी से,
लड़ने का कोई फ़ायदा नहीं होता,
इस पर लगे घाव,
पल भर में भर जाते हैं,
और लड़ने वाले आखिर में,
थक कर डूब जाते हैं,
और खत्म हो जाते हैं;
एकाध आत्मा ही,
छलाँग लगाकर,
इससे बाहर निकल पाती है;
नहीं तो आप ही बताइये,
इस देश में किरन बेदी जैसी,
और आत्माएँ क्यों नहीं हैं?
उबलते हुए पानी में डाल दिया जाय,
तो वह उछल कर बाहर आ जाता है;
मगर यदि उसे डाला जाय,
धीरे धीरे गर्म हो रहे पानी में,
तो उसका दिमाग,
उस गर्मी को सह लेता है,
और मेढ़क उबल कर मर जाता है;
छात्रों को मेढ़क काटकर,
उसके अंगों की संचरना तो समझाई जाती है,
पर उसके खून का यह गुण,
पूरी तरह गुप्त रखा जाता है,
हमारी सरकार द्वारा;
तभी तो हमारा सरकारी तंत्र,
युवा आत्माओं को,
भ्रष्टाचार की धीमी आँच से,
उबालकर मारने में,
इतना सफल है;
कुछेक खुशकिस्मत आत्माएँ ही,
इस साजिश को समझ पाती हैं,
और इससे लड़ने की कोशिश करती हैं,
पर इस गर्म हो रहे पानी से,
लड़ने का कोई फ़ायदा नहीं होता,
इस पर लगे घाव,
पल भर में भर जाते हैं,
और लड़ने वाले आखिर में,
थक कर डूब जाते हैं,
और खत्म हो जाते हैं;
एकाध आत्मा ही,
छलाँग लगाकर,
इससे बाहर निकल पाती है;
नहीं तो आप ही बताइये,
इस देश में किरन बेदी जैसी,
और आत्माएँ क्यों नहीं हैं?
सोमवार, 16 अगस्त 2010
पाप - पुण्य
गंगा नदी के किनारे खड़े होकर,
एक बुढ़िया ने एक रूपये का सिक्का,
नदी में उछाला,
उसके विश्वासों के अनुसार,
उसने गंगा की गोद में पैसे बोए,
इसका फल उसे आने वाले वक्त में मिलेगा,
एक रूपये के बदले ढेर सारे रूपये मिलेंगे।
वह सिक्का नदी में गिरते पाकर,
एक लड़का उसे निकालने नदी में कूदा,
लड़के के लिए यह रोजमर्रा का काम था,
ऐसे ही उसकी जीविका चलती थी,
सिक्के निकालकर,
पर इस बार उसने डुबकी लगाई,
तो वो बाहर नहीं आया।
बेचारी बुढ़िया,
अब यह समझ ही नहीं पा रही थी,
कि उसने पूण्य किया,
या लड़के की मौत का कारण बनकर,
पाप किया;
वह खुद को कोस रही थी,
कि उसने सिक्का इतनी जोर से क्यों फेंका,
किनारे ही फेंक देती;
अब न जाने भविष्य में उसे,
पूण्य का फल मिलेगा,
या पाप का दण्ड।
एक बुढ़िया ने एक रूपये का सिक्का,
नदी में उछाला,
उसके विश्वासों के अनुसार,
उसने गंगा की गोद में पैसे बोए,
इसका फल उसे आने वाले वक्त में मिलेगा,
एक रूपये के बदले ढेर सारे रूपये मिलेंगे।
वह सिक्का नदी में गिरते पाकर,
एक लड़का उसे निकालने नदी में कूदा,
लड़के के लिए यह रोजमर्रा का काम था,
ऐसे ही उसकी जीविका चलती थी,
सिक्के निकालकर,
पर इस बार उसने डुबकी लगाई,
तो वो बाहर नहीं आया।
बेचारी बुढ़िया,
अब यह समझ ही नहीं पा रही थी,
कि उसने पूण्य किया,
या लड़के की मौत का कारण बनकर,
पाप किया;
वह खुद को कोस रही थी,
कि उसने सिक्का इतनी जोर से क्यों फेंका,
किनारे ही फेंक देती;
अब न जाने भविष्य में उसे,
पूण्य का फल मिलेगा,
या पाप का दण्ड।
रविवार, 15 अगस्त 2010
अधूरी कविता
डायरी के पन्नों में पड़ी एक अधूरी कविता,
अक्सर पूछती है मुझसे,
मुझे कब पूरा करोगे?
कभी कभी कलम उठाता हूँ,
पर आसपास का माहौल देखकर डर जाता हूँ,
अगर मैं इस कविता को पूरी कर दूँगा,
तो लोग इसे फाँसी पर लटका देंगे;
ये अधूरी कविता,
मेरी डायरी में ही पड़ी रहे तो अच्छा है,
मेरी डायरी में घुट घुट कर ही सही,
कम से कम अपनी जिंदगी तो जी लेगी,
और मैं पूरी करने के बहाने,
कभी कभी इसे देख लिया करूँगा,
जी भर कर।
अक्सर पूछती है मुझसे,
मुझे कब पूरा करोगे?
कभी कभी कलम उठाता हूँ,
पर आसपास का माहौल देखकर डर जाता हूँ,
अगर मैं इस कविता को पूरी कर दूँगा,
तो लोग इसे फाँसी पर लटका देंगे;
ये अधूरी कविता,
मेरी डायरी में ही पड़ी रहे तो अच्छा है,
मेरी डायरी में घुट घुट कर ही सही,
कम से कम अपनी जिंदगी तो जी लेगी,
और मैं पूरी करने के बहाने,
कभी कभी इसे देख लिया करूँगा,
जी भर कर।
शनिवार, 14 अगस्त 2010
चिम्पांजी
चिम्पांजी जैसे जैसे विकसित होता गया,
उसने कपड़े पहनने शुरू किए,
वो झुण्डों में रहने लगा,
वो ईश्वर से डरने लगा,
मुक्त यौनसम्बन्धों को छोड़कर विवाह करने लगा,
उसके शरीर से बाल कम होते गए,
और चिम्पांजी मनुष्य बन गया।
आजकल के छोटे होते कपड़ों,
टूटते परिवार, बढ़ता अकेलापन,
ईश्वर का घटता हुआ डर,
लगातार बढ़ते हुए उन्मुक्त यौनसम्बन्ध,
और ब्यूटी पार्लरों में बढ़ती हुई भीड़ को देखकर,
कभी कभी मुझे डर लगने लगता है,
कहीं हम फिर से चिम्पांजी तो नहीं बनते जा रहे हैं?
उसने कपड़े पहनने शुरू किए,
वो झुण्डों में रहने लगा,
वो ईश्वर से डरने लगा,
मुक्त यौनसम्बन्धों को छोड़कर विवाह करने लगा,
उसके शरीर से बाल कम होते गए,
और चिम्पांजी मनुष्य बन गया।
आजकल के छोटे होते कपड़ों,
टूटते परिवार, बढ़ता अकेलापन,
ईश्वर का घटता हुआ डर,
लगातार बढ़ते हुए उन्मुक्त यौनसम्बन्ध,
और ब्यूटी पार्लरों में बढ़ती हुई भीड़ को देखकर,
कभी कभी मुझे डर लगने लगता है,
कहीं हम फिर से चिम्पांजी तो नहीं बनते जा रहे हैं?
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
भूकम्प आने ही वाला है
बढ़ता ही जा रहा है,
अच्छाई पर बुराई का दबाव,
इकट्ठी होती जा रही है,
दबे हुए,
कुचले हुए लोगों में,
दबाव की ऊर्जा,
एक दूसरे में धँसी जा रही हैं,
भूख और पिछड़ेपन की चट्टानें,
भूकम्प आने ही वाला है,
और बदलने ही वाली है,
धरती की तस्वीर,
और मेरे भारत की तकदीर।
अच्छाई पर बुराई का दबाव,
इकट्ठी होती जा रही है,
दबे हुए,
कुचले हुए लोगों में,
दबाव की ऊर्जा,
एक दूसरे में धँसी जा रही हैं,
भूख और पिछड़ेपन की चट्टानें,
भूकम्प आने ही वाला है,
और बदलने ही वाली है,
धरती की तस्वीर,
और मेरे भारत की तकदीर।
सोमवार, 9 अगस्त 2010
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
उसके साथ साथ मैं भी नौ दिन का नवरात्री व्रत रखता,
उसे साथ लेकर मैं सुबह-सवेरे मन्दिर जाया करता,
कितना धार्मिक होता मैं भी कहीं वो मेरे साथ जो होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
घर के कामों मैं साँझ-सवेरे उसका हाथ बँटाता,
थक जाती गर वो फिरतो मैं उसके सर और पाँव दबाता,
लोरी गाकर उसे सुलाता नींद नहीं यदि उसको आती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
जग की सारी सुन्दिरयों को मैं अपनी माँ बहन समझता,
उसको छोड़ किसी को मैं सपनों में भी न देखा करता,
इन्द्रासन हिल जाता इतनी कठिन तपस्या मेरी होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
उसकी छोटी से छोटी ख्वाहिश यारों मैं पूरी करता,
जग की सारी सुख-सुविधायें मैं उसके कदमों में रखता,
चाँद-सितारे लाकर देता एक बार जो वो कह देती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
उसके साथ साथ मैं भी नौ दिन का नवरात्री व्रत रखता,
उसे साथ लेकर मैं सुबह-सवेरे मन्दिर जाया करता,
कितना धार्मिक होता मैं भी कहीं वो मेरे साथ जो होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
घर के कामों मैं साँझ-सवेरे उसका हाथ बँटाता,
थक जाती गर वो फिरतो मैं उसके सर और पाँव दबाता,
लोरी गाकर उसे सुलाता नींद नहीं यदि उसको आती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
जग की सारी सुन्दिरयों को मैं अपनी माँ बहन समझता,
उसको छोड़ किसी को मैं सपनों में भी न देखा करता,
इन्द्रासन हिल जाता इतनी कठिन तपस्या मेरी होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
उसकी छोटी से छोटी ख्वाहिश यारों मैं पूरी करता,
जग की सारी सुख-सुविधायें मैं उसके कदमों में रखता,
चाँद-सितारे लाकर देता एक बार जो वो कह देती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।
रविवार, 8 अगस्त 2010
सपने
कुछ सपने दूर से कितने अच्छे लगते हैं,
भोले-भाले, प्यारे से, आदर्शवादी सपने;
पर अक्सर पूरा होते होते,
वो न तो भोले-भाले रह जाते हैं,
न प्यारे,
और आदर्शवाद का तो पूछिये ही मत;
ऐसे सपनों के टूट जाने पर उतना दुख नहीं होता,
जितना अंतरात्मा को,
अक्सर उनके पूरे होने पर होता है;
भगवान करे,
किसी के भी,
ऐसे सपने कभी पूरे ना हों,
कभी पूरे ना हों।
भोले-भाले, प्यारे से, आदर्शवादी सपने;
पर अक्सर पूरा होते होते,
वो न तो भोले-भाले रह जाते हैं,
न प्यारे,
और आदर्शवाद का तो पूछिये ही मत;
ऐसे सपनों के टूट जाने पर उतना दुख नहीं होता,
जितना अंतरात्मा को,
अक्सर उनके पूरे होने पर होता है;
भगवान करे,
किसी के भी,
ऐसे सपने कभी पूरे ना हों,
कभी पूरे ना हों।
शनिवार, 7 अगस्त 2010
कुत्ते की मौत
एक दिन मैंने देखा,
सड़क पर जाता,
लँगड़ाता,
एक कुत्ता,
एक ट्रक तेजी से आता हुआ और,
एक हृदयविदारक चीख,
गूँजती हुई सारे वातावरण में,
मांस के कुछ लोथड़े,
सने हुए रक्त में,
बिखर गए सड़क पर;
आज, लगभग वही दृश्य,
एक नेत्रहीन धीरे-धीरे चलता हुआ,
सड़क पर,
पुकारता हुआ,
“कोई मुझे सड़क पार दो, भाई”
मैं था थोड़ी दूरी पर खड़ा,
सोचा मदद कर दूँ,
तभी मस्तिष्क से आवाज आई,
इतनी दूर क्या जाना,
कोई आसपास का व्यक्ति मदद कर ही देगा,
या फिर वो अपने आप ही कर जाएगा सड़क पार,
तभी दिखाई पड़ी तेजी से आती हुई एक कार,
एक झटके से गूँजी ब्रेकों की चरमराहट,
पर तब तक हो चुकी थी,
एक लोमहर्षक टक्कर,
खून के कुछ छींटे पड़े,
मेरे अन्तर्मन पर,
कई स्वर गूँजे एक साथ,
“पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो”
पर तब तक जा चुकी थी कार,
चारों तरफ थी बस आवाजों की बौछार,
“कैसा जमाना आ गया है”
“कोई देखकर नहीं चल सकता”
“आंखें बन्द करके चलाते हैं वाहन”;
मैं सोच रहा था,
कौन है अंधा,
वो ड्राइवर,
ये दो आंखों वाले,
वो बिन आंखों वाला,
या इन सबसे बढ़कर मैं स्वयं,
जिसने न सिर्फ देखा,
वरन महसूस भी किया,
मगर फिर भी,
नहीं किया कुछ भी,
मेरे अन्तर्मन पर पड़े हुए छींटे खून के,
कुछ पूछ रहे थे मुझसे,
और मेरे पास नहीं था कोई उत्तर,
मैं समझ नहीं पा रहा था,
कौन मरा है कुत्ते की मौत?
वह कुत्ता,
वह अन्धा,
लोगों की मानवता,
या फिर मेरे भीतर ही कहीं कुछ।
सड़क पर जाता,
लँगड़ाता,
एक कुत्ता,
एक ट्रक तेजी से आता हुआ और,
एक हृदयविदारक चीख,
गूँजती हुई सारे वातावरण में,
मांस के कुछ लोथड़े,
सने हुए रक्त में,
बिखर गए सड़क पर;
आज, लगभग वही दृश्य,
एक नेत्रहीन धीरे-धीरे चलता हुआ,
सड़क पर,
पुकारता हुआ,
“कोई मुझे सड़क पार दो, भाई”
मैं था थोड़ी दूरी पर खड़ा,
सोचा मदद कर दूँ,
तभी मस्तिष्क से आवाज आई,
इतनी दूर क्या जाना,
कोई आसपास का व्यक्ति मदद कर ही देगा,
या फिर वो अपने आप ही कर जाएगा सड़क पार,
तभी दिखाई पड़ी तेजी से आती हुई एक कार,
एक झटके से गूँजी ब्रेकों की चरमराहट,
पर तब तक हो चुकी थी,
एक लोमहर्षक टक्कर,
खून के कुछ छींटे पड़े,
मेरे अन्तर्मन पर,
कई स्वर गूँजे एक साथ,
“पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो”
पर तब तक जा चुकी थी कार,
चारों तरफ थी बस आवाजों की बौछार,
“कैसा जमाना आ गया है”
“कोई देखकर नहीं चल सकता”
“आंखें बन्द करके चलाते हैं वाहन”;
मैं सोच रहा था,
कौन है अंधा,
वो ड्राइवर,
ये दो आंखों वाले,
वो बिन आंखों वाला,
या इन सबसे बढ़कर मैं स्वयं,
जिसने न सिर्फ देखा,
वरन महसूस भी किया,
मगर फिर भी,
नहीं किया कुछ भी,
मेरे अन्तर्मन पर पड़े हुए छींटे खून के,
कुछ पूछ रहे थे मुझसे,
और मेरे पास नहीं था कोई उत्तर,
मैं समझ नहीं पा रहा था,
कौन मरा है कुत्ते की मौत?
वह कुत्ता,
वह अन्धा,
लोगों की मानवता,
या फिर मेरे भीतर ही कहीं कुछ।
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
थोड़ी देर के लिए
मेरी जिन्दगी की सारी व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो, थोड़ी देर के लिए,
थोड़े देर अकेले में बैठकर,
मैं उसे याद करना चाहता हूँ,
उसे, उसकी बातों को,
उसके नखरों को, उसकी अदाओं को,
उसकी खुशबू को, उसके भोलेपन को,
उसकी नासमझियों को, उसकी हँसी को,
उसकी उस कातिल मुस्कान को, उसके प्यार को,
उसके आँसुओं को, उसकी तड़प को,
एक क्षण उसके साथ बिताकर मैं,
जैसे सैकड़ों साल जी लेता था,
उसके प्यार की एक बूँद पीकर,
जैसे कई बोतलें पी लेता था,
अब मैं जी कहाँ रहा हूँ,
अब तो ढो रहा हूँ,
जिन्दगी का बोझ,
तय कर रहा हूँ,
जिन्दगी और मौत के बीच का वीरान सफर,
खींच रहा हूँ, जिंदगी की गाड़ी,
मौत की तरफ,
मैं जिन्दा तभी तक हूँ, जब तक मैं व्यस्त हूँ,
पर कभी तो ओ मेरी जिन्दगी की व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो,
थोड़ी देर के लिए।
मुझे अकेला छोड़ दो, थोड़ी देर के लिए,
थोड़े देर अकेले में बैठकर,
मैं उसे याद करना चाहता हूँ,
उसे, उसकी बातों को,
उसके नखरों को, उसकी अदाओं को,
उसकी खुशबू को, उसके भोलेपन को,
उसकी नासमझियों को, उसकी हँसी को,
उसकी उस कातिल मुस्कान को, उसके प्यार को,
उसके आँसुओं को, उसकी तड़प को,
एक क्षण उसके साथ बिताकर मैं,
जैसे सैकड़ों साल जी लेता था,
उसके प्यार की एक बूँद पीकर,
जैसे कई बोतलें पी लेता था,
अब मैं जी कहाँ रहा हूँ,
अब तो ढो रहा हूँ,
जिन्दगी का बोझ,
तय कर रहा हूँ,
जिन्दगी और मौत के बीच का वीरान सफर,
खींच रहा हूँ, जिंदगी की गाड़ी,
मौत की तरफ,
मैं जिन्दा तभी तक हूँ, जब तक मैं व्यस्त हूँ,
पर कभी तो ओ मेरी जिन्दगी की व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो,
थोड़ी देर के लिए।
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