मेरा जिला मेरी रगों में बसा है,
मेरी यादें अक्सर रात के अँधेरों में,
घूमती हैं मेरे जिले की गलियों में,
वो स्कूल जिसमें मैंने अपने सात साल गुजारे,
आज भी वो मुझे खींच ले जाता है,
मेरे बचपन की शरारतों में,
वो कालेज जिसमें मैंने अपने सात साल गुजारे,
वो मुझे घसीट लेता है,
किशोरावस्था की मस्तियों में,
मेरे कितने सारे टुकड़े बिखरे पड़े हैं,
मेरे जिले के चप्पे चप्पे में,
और लोग कहते हैं,
इन सबको छोड़कर,
दिल्ली में मकान ले लो,
लखनऊ में मकान ले लो।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 29 जून 2010
सोमवार, 28 जून 2010
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
ना हो जादू ना चमत्कार,
ना चालबाजियों कावतार,
ना परीकथाओं के नायक;
ना रिद्धि-सिद्धि के तुम दायक,
तुम हो केवल क्रमबद्ध ज्ञान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
तुम विकसित मानव संग हुए,
भौतिकी रसायन अंग हुए,
तुमसे आडंबर भंग हुए;
सब पाखंडी-जन दंग हुए,
तुमने सच का जब दिया ज्ञान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
अस्तित्व विहीन समय जब था,
ब्रह्मांड एक लघु कण भर था,
तब तुम बनकर क्वांटम गुरुत्व,
दिखलाते थे अपना प्रभुत्व,
है नमन तुम्हें हे चिर महान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
तुमसे ही नियमों को लेकर,
प्रभु ने अपनी ऊर्जा देकर,
था रचा महाविस्फोट वहाँ,
वरना जग होता नहीं यहाँ,
है सृष्टि तुम्हारा अमर गान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
चिर नियम अनिश्चितता का दे,
ब्रह्मांड सृजन के कारक हे,
यदि नहीं अनिश्चितता होती,
हर जगह अग्नि ही बस सोती,
तुम ही से है जग प्राणवान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
सब बँधे तुम्हारे नियमों से
ग्रह सूर्य और सारे तारे
आकाशगंग या कृष्ण-विवर
सब फिरते नियमों में बँधकर
कुछ ज्ञात हमें, कुछ हैं अजान
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
जब मानव सब कुछ जानेगा
वह यह सच भी पहचानेगा
तुममें ईश्वर, ईश्वर में तुम
इक बिन दूजा अपूर्ण हरदम
मिलकर दोनों बनते महान
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
ना हो जादू ना चमत्कार,
ना चालबाजियों कावतार,
ना परीकथाओं के नायक;
ना रिद्धि-सिद्धि के तुम दायक,
तुम हो केवल क्रमबद्ध ज्ञान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
तुम विकसित मानव संग हुए,
भौतिकी रसायन अंग हुए,
तुमसे आडंबर भंग हुए;
सब पाखंडी-जन दंग हुए,
तुमने सच का जब दिया ज्ञान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
अस्तित्व विहीन समय जब था,
ब्रह्मांड एक लघु कण भर था,
तब तुम बनकर क्वांटम गुरुत्व,
दिखलाते थे अपना प्रभुत्व,
है नमन तुम्हें हे चिर महान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
तुमसे ही नियमों को लेकर,
प्रभु ने अपनी ऊर्जा देकर,
था रचा महाविस्फोट वहाँ,
वरना जग होता नहीं यहाँ,
है सृष्टि तुम्हारा अमर गान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
चिर नियम अनिश्चितता का दे,
ब्रह्मांड सृजन के कारक हे,
यदि नहीं अनिश्चितता होती,
हर जगह अग्नि ही बस सोती,
तुम ही से है जग प्राणवान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
सब बँधे तुम्हारे नियमों से
ग्रह सूर्य और सारे तारे
आकाशगंग या कृष्ण-विवर
सब फिरते नियमों में बँधकर
कुछ ज्ञात हमें, कुछ हैं अजान
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
जब मानव सब कुछ जानेगा
वह यह सच भी पहचानेगा
तुममें ईश्वर, ईश्वर में तुम
इक बिन दूजा अपूर्ण हरदम
मिलकर दोनों बनते महान
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!
रविवार, 27 जून 2010
अम्ल, क्षार और गीत
मेरे कुछ मनमीत,
अम्ल, क्षार और गीत।
एक खट्टा है,
दूसरा कसैला है,
तीसरे के सारे स्वाद हैं।
पहला गला देता है,
दूसरा जला देता है,
तीसरा सारे काम कर देता है।
पहले दोनों को मिलाने पर,
बनते हैं लवण और पानी,
अर्थात खारा पानी,
अर्थात आँसू,
और तीनों को मिलाने पर,
बन जाता हूँ मैं।
अम्ल, क्षार और गीत।
एक खट्टा है,
दूसरा कसैला है,
तीसरे के सारे स्वाद हैं।
पहला गला देता है,
दूसरा जला देता है,
तीसरा सारे काम कर देता है।
पहले दोनों को मिलाने पर,
बनते हैं लवण और पानी,
अर्थात खारा पानी,
अर्थात आँसू,
और तीनों को मिलाने पर,
बन जाता हूँ मैं।
शनिवार, 26 जून 2010
जय गणेश - प्रथम सर्ग - उपसर्ग एक
’सज्जन’ इस संसार के, ग्यारह हैं आयाम;
तीन दिशाएँ, एक समय है, बाकी जानें राम।
सब रहस्य ब्रह्मांड के, अब तक हैं अनजान;
थोड़े से हमको पता, कहता है विज्ञान।
अब है ऐसा लग रहा, अपना यह संसार;
स्वयं समेटे आप में, बहुतेरे संसार।
जहाँ बसे हैं हम वहीं, हो सकते भगवान;
अन्तर बस आयाम का, अब होता है भान।
ऐसे इक संसार में, रहें शक्ति शिव संग;
है बिखेरती हिम जहाँ, भाँति-भाँति के रंग।
जहाँ शक्ति सशरीर हों, सूरज का क्या काम;
सबको ऊर्जा दे रहा, केवल उनका नाम।
कालचक्र है घूमता, प्रभु आज्ञा अनुसार;
जगमाता-जगपिता की, लीला अमर अपार।
करते हैं सब कार्य गण, लेकर प्रभु का नाम;
नंदी भृंगी से सदा, रक्षित है प्रभु धाम।
विजया, जया करें कदा, माता के संग वास;
प्रिय सखियों के संग उमा, किया करें परिहास।
हिमगिरि चारों ओर हैं, बीच बसा इक ताल;
मानसरोवर नाम है, ज्यों पयपूरित थाल।
कार्तिकेय हैं खेलते, मानसरोवर पास;
उन्हें देख सब मग्न हैं, मात-पिता, गण, दास।
सुन्दर छबि शिवपुत्र की, देती यह आभास;
बालरुप धर ज्यों मदन, करता हास-विलास।
सोच रहे थे जगपिता, देवों में भ्रम आज;
प्रथम पूज्य है कौन सुर, पूछे देव-समाज?
आदिदेव हूँ मैं मगर, स्वमुख स्वयं का नाम;
लूँगा तो ये लगेगा, अहंकार का काम।
कुछ तो करना पड़ेगा, बड़ी समस्या आज;
तभी सोच कुछ हँस पड़े, महादेव गणराज।
तीन दिशाएँ, एक समय है, बाकी जानें राम।
सब रहस्य ब्रह्मांड के, अब तक हैं अनजान;
थोड़े से हमको पता, कहता है विज्ञान।
अब है ऐसा लग रहा, अपना यह संसार;
स्वयं समेटे आप में, बहुतेरे संसार।
जहाँ बसे हैं हम वहीं, हो सकते भगवान;
अन्तर बस आयाम का, अब होता है भान।
ऐसे इक संसार में, रहें शक्ति शिव संग;
है बिखेरती हिम जहाँ, भाँति-भाँति के रंग।
जहाँ शक्ति सशरीर हों, सूरज का क्या काम;
सबको ऊर्जा दे रहा, केवल उनका नाम।
कालचक्र है घूमता, प्रभु आज्ञा अनुसार;
जगमाता-जगपिता की, लीला अमर अपार।
करते हैं सब कार्य गण, लेकर प्रभु का नाम;
नंदी भृंगी से सदा, रक्षित है प्रभु धाम।
विजया, जया करें कदा, माता के संग वास;
प्रिय सखियों के संग उमा, किया करें परिहास।
हिमगिरि चारों ओर हैं, बीच बसा इक ताल;
मानसरोवर नाम है, ज्यों पयपूरित थाल।
कार्तिकेय हैं खेलते, मानसरोवर पास;
उन्हें देख सब मग्न हैं, मात-पिता, गण, दास।
सुन्दर छबि शिवपुत्र की, देती यह आभास;
बालरुप धर ज्यों मदन, करता हास-विलास।
सोच रहे थे जगपिता, देवों में भ्रम आज;
प्रथम पूज्य है कौन सुर, पूछे देव-समाज?
आदिदेव हूँ मैं मगर, स्वमुख स्वयं का नाम;
लूँगा तो ये लगेगा, अहंकार का काम।
कुछ तो करना पड़ेगा, बड़ी समस्या आज;
तभी सोच कुछ हँस पड़े, महादेव गणराज।
शुक्रवार, 25 जून 2010
बुरा जो ढूँढन मैं चला
मैं भी कबीर दास की तरह बुरा ढूँढने चला था,
मुझे तो एक से एक बुरे मिले,
हर जाति के, हर रंग के, हर भाषा के, हर धर्म के,
मुझमें भी कुछ कम बुराइयाँ नहीं मिलीं,
पर मैं सबसे बुरा हूँ,
मुझे ऐसा नहीं लगा,
आखिर क्या बदल गया कबीर के जमाने से,
आज के जमाने तक,
इंसान, युग या बुरे की परिभाषा?
मुझे तो एक से एक बुरे मिले,
हर जाति के, हर रंग के, हर भाषा के, हर धर्म के,
मुझमें भी कुछ कम बुराइयाँ नहीं मिलीं,
पर मैं सबसे बुरा हूँ,
मुझे ऐसा नहीं लगा,
आखिर क्या बदल गया कबीर के जमाने से,
आज के जमाने तक,
इंसान, युग या बुरे की परिभाषा?
शुक्रवार, 11 जून 2010
बलात्कार : उद्भव एवं विकास
शुरू में सब एक जैसा था,
जब प्रारम्भिक स्तनपाइयों का विकास हुआ,
धरती पर,
नर मादा में कुछ ज्यादा अन्तर नहीं था,
मादा भी नर की तरह शक्तिशाली थी,
वह भी भोजन की तलाश करती थी,
शत्रुओं से युद्ध करती थी,
अपनी मर्जी से जिसके साथ जी चाहा,
सहवास करती थी,
बस एक ही अन्तर था,
वह गर्भ धारण करती थी,
पर उन दिनों गर्भावस्था में
इतना समय नहीं लगता था,
कुछ दिनों की ही बात होती थी।
फिर क्रमिक विकास में बन्दरों का उद्भव हुआ,
तब जब हम बंदर थे,
स्त्री पुरुष का भेद ज्यादा नहीं होता था,
मादा थोड़ी सी कमजोर हुई,
क्योंकि अब गर्भावस्था में,
ज्यादा समय लगता था,
तो उसे थोड़ा ज्यादा आराम चाहिए था,
गर्भावस्था के दौरान,
मगर नर और मादा,
दोनों ही भोजन की तलाश में भटकते थे,
साथ साथ काम करते थे।
फिर हम चिम्पांजी बने,
मादा और कमजोर हुई,
गर्भावस्था में और ज्यादा समय लगने लगा,
वह ज्यादा देर घर पर बिताने लगी,
नर ज्यादा शक्तिशाली होता गया,
क्रमिक विकास में।
फिर हम मानव बने,
नारी को गर्भावस्था के दौरान,
बहुत ज्यादा समय घर पर रहना पड़ता था,
ऊपर के बच्चों के जीवन की संभावना भी कम थी,
तो ज्यादा बच्चे पैदा करने पड़ते थे,
घर पर लगातार रहने से,
उसके अंगो में चर्बी जमने लगी,
स्तन व नितम्बों का आकार
पुरुषों से बिल्कुल अलग होने लगा,
ज्यादा श्रम के काम न करने से,
अंग मुलायम होते गये,
और वह नर के सामने कमजोर पड़ती गई,
और उसका केवल एक ही काम रह गया,
पुरुषों का मन बहलाना,
बदले में पुरुष उसकी रक्षा करने लगे,
अपने बल से,
समय बदला,
पुरुष चाहने लगे कि एक ऐसी नारी हो,
जो सिर्फ उसका मन बहलाये,
जब वो शिकार से थक कर आये,
उसके अलावा और कोई उसको छू भी न सके,
वो सिर्फ एक पुरुष के बच्चे पैदा कर सके,
इस तरह जन्म हुआ विवाह का,
ताकि नारी एक ही पुरुष की होकर रह सके,
और पुरुष जो चाहे कर सके,
एक दिन किसी पुरुष ने,
किसी दूसरे की स्त्री के साथ,
बलपूर्वक सहवास किया,
अब स्त्री का पति क्या करता,
इसमें नारी का कोई कसूर नहीं था,
पर पुरुषों के अहम ने एक सभा बुलाई,
उसमें यह नियम बनाया,
कि यदि कोई स्त्री अपने पति के अलावा किसी से,
मर्जी से या बिना मर्जी से,
सहवास करेगी,
तो वह अपवित्र हो जाएगी,
उसको परलोक में भी जगह नहीं मिलेगी,
उसे उसका पिता भी स्वीकार नहीं करेगा,
पति और समाज तो दूर की बात है,
क्योंकि पिता, पति और समाज के ठेकेदार,
सब पुरुष थे,
इसलिये यह नियम सर्वसम्मति से मान लिया गया,
एक स्त्री ने यह पूछा,
कि सहवास तो स्त्री और पुरुष दोनों के मिलन से होता है,
यदि परस्त्री अपवित्र होती है,
तो परपुरुष भी अपवित्र होना चाहिए,
उसको भी समाज में जगह नहीं मिलनी चाहिए,
पर वह स्त्री गायब कर दी गई,
उसकी लाश भी नहीं मिली किसी को,
और इस तरह से बनी बलात्कार की,
और स्त्री की अपवित्रता की परिभाषा,
पुरुष कुछ भी करे मरना स्त्री को ही है।
फिर समाज में बलात्कार बढ़ने लगे,
जिनका पता चल गया,
उन स्त्रियों ने आत्महत्या कर लीं,
या वो वेश्या बना दी गईं,
जी हाँ वेश्याओं का जन्म यहीं से हुआ,
क्योंकि अपवित्र स्त्रियों के पास,
इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचा था,
और जिनका पता नहीं चला,
वो जिन्दा बचीं रहीं,
घुटती रहीं, कुढ़ती रहीं,
पर जिन्दगी तो सबको प्यारी होती है,
उनके साथ बार बार बलात्कार होता रहा,
और वो जिन्दा रहने के लालच में चुपचाप सब सहती रहीं।
जी हाँ शारीरिक शोषण का उदय यहीं से हुआ,
पुरुषों का किया धरा है सब,
चिम्पांजियों और बंदरों में नर बलात्कार नहीं करते।
धीरे धीरे स्त्री के मन में डर बैठता गया,
बलात्कार का,
अपवित्रता का,
मौत का,
इतना ज्यादा,
कि वो बलात्कार में मानसिक रूप से टूट जाती थी,
वरना शरीर पर क्या फर्क पड़ता है,
दो चार बूँदों से,
नहाया और फिर से वैसी की वैसी।
धीरे धीरे ये स्त्री को प्रताड़ित करने के लिए,
पुरुषों का अस्त्र बन गया;
शारीरिक यातना झेलने की,
स्त्रियों को आदत थी,
गर्भावस्था झेलने के कारण,
पर मानसिक यातना वो कैसे झेलती,
इसका उसे कोई अभ्यास नहीं था।
धीरे धीरे स्त्री ये बात समझने लगी,
कि ये सब पुरुष का किया धरा है,
उनके ही बनाये नियम हैं,
और धीरे धीरे मानसिक यातना,
सहन करने की शक्ति भी उसमें आने लगी,
यह बात पुरुषों को बर्दाश्त नहीं हुई,
फिर जन्म हुआ सामूहिक बलात्कार का,
अब स्त्री ना तो छुपा सकती थी,
ना शारीरिक यातना ही झेल सकती थी,
और मानसिक यातना,
तो इतनी होती थी,
कि उसके पास दो ही रास्ते बचते थे,
आत्महत्या का, या डाकू बनने का।
धीरे धीर क्रमिक विकास में,
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा ही,
गड्डमड्ड होने लगी,
झूठ समय का मुकाबला नहीं कर पाता,
वो समय की रेत में दब जाता है,
केवल सच ही उसे चीर कर बाहर आ पाता है,
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा,
सिर्फ स्त्रियों पर ही लागू नहीं होती,
यह पुरुषों पर भी लागू होती है,
या फिर पवित्र और अपवित्र जैसा कुछ होता ही नहीं।
मुझे समझ में नहीं आता,
दो चार बूँदों से इज्जत कैसे लुट जाती है?
और पुरुष उसे लूटता है,
तो ज्यादा इज्जतदार क्यों नहीं बन जाता?
स्त्री की इज्जत उसके जननांग में क्यों रहती है,
उसके सत्कार्यों में, उसके ज्ञान में क्यों नहीं?
ये इज्जत नहीं है,
उसकी पवित्रता और उसकी इज्जत नहीं लुटती,
ये पुरुष का अहंकार है,
उसका अभिमान है,
जो लुट जाता है,
स्त्री पर कोई फर्क नहीं पड़ता,
पर अहंकारी पुरुष उस स्त्री को स्वीकार नहीं करता,
क्योंकि उसके अहं को ठेस लगती है,
सदियों पुराने अहं को,
जो अब उसके खून में रच बस गया है,
जिससे छुटकारा उसे शायद ही मिले,
सात साल की सजा से,
या बलात्कारी की मौत से,
फायदा नहीं होगा,
फायदा तभी होगा,
जब पुरुष ये समझने लगेगा,
कि बलात्कार,
जबरन किये गये कार्य से ज्यादा कुछ नहीं होता;
और बलात्कार करके वो लड़की की इज्जत नहीं लूटता,
केवल अपने ही जैसे कुछ पुरुषों के,
अहं को ठेस पहुँचाता है।
जब प्रारम्भिक स्तनपाइयों का विकास हुआ,
धरती पर,
नर मादा में कुछ ज्यादा अन्तर नहीं था,
मादा भी नर की तरह शक्तिशाली थी,
वह भी भोजन की तलाश करती थी,
शत्रुओं से युद्ध करती थी,
अपनी मर्जी से जिसके साथ जी चाहा,
सहवास करती थी,
बस एक ही अन्तर था,
वह गर्भ धारण करती थी,
पर उन दिनों गर्भावस्था में
इतना समय नहीं लगता था,
कुछ दिनों की ही बात होती थी।
फिर क्रमिक विकास में बन्दरों का उद्भव हुआ,
तब जब हम बंदर थे,
स्त्री पुरुष का भेद ज्यादा नहीं होता था,
मादा थोड़ी सी कमजोर हुई,
क्योंकि अब गर्भावस्था में,
ज्यादा समय लगता था,
तो उसे थोड़ा ज्यादा आराम चाहिए था,
गर्भावस्था के दौरान,
मगर नर और मादा,
दोनों ही भोजन की तलाश में भटकते थे,
साथ साथ काम करते थे।
फिर हम चिम्पांजी बने,
मादा और कमजोर हुई,
गर्भावस्था में और ज्यादा समय लगने लगा,
वह ज्यादा देर घर पर बिताने लगी,
नर ज्यादा शक्तिशाली होता गया,
क्रमिक विकास में।
फिर हम मानव बने,
नारी को गर्भावस्था के दौरान,
बहुत ज्यादा समय घर पर रहना पड़ता था,
ऊपर के बच्चों के जीवन की संभावना भी कम थी,
तो ज्यादा बच्चे पैदा करने पड़ते थे,
घर पर लगातार रहने से,
उसके अंगो में चर्बी जमने लगी,
स्तन व नितम्बों का आकार
पुरुषों से बिल्कुल अलग होने लगा,
ज्यादा श्रम के काम न करने से,
अंग मुलायम होते गये,
और वह नर के सामने कमजोर पड़ती गई,
और उसका केवल एक ही काम रह गया,
पुरुषों का मन बहलाना,
बदले में पुरुष उसकी रक्षा करने लगे,
अपने बल से,
समय बदला,
पुरुष चाहने लगे कि एक ऐसी नारी हो,
जो सिर्फ उसका मन बहलाये,
जब वो शिकार से थक कर आये,
उसके अलावा और कोई उसको छू भी न सके,
वो सिर्फ एक पुरुष के बच्चे पैदा कर सके,
इस तरह जन्म हुआ विवाह का,
ताकि नारी एक ही पुरुष की होकर रह सके,
और पुरुष जो चाहे कर सके,
एक दिन किसी पुरुष ने,
किसी दूसरे की स्त्री के साथ,
बलपूर्वक सहवास किया,
अब स्त्री का पति क्या करता,
इसमें नारी का कोई कसूर नहीं था,
पर पुरुषों के अहम ने एक सभा बुलाई,
उसमें यह नियम बनाया,
कि यदि कोई स्त्री अपने पति के अलावा किसी से,
मर्जी से या बिना मर्जी से,
सहवास करेगी,
तो वह अपवित्र हो जाएगी,
उसको परलोक में भी जगह नहीं मिलेगी,
उसे उसका पिता भी स्वीकार नहीं करेगा,
पति और समाज तो दूर की बात है,
क्योंकि पिता, पति और समाज के ठेकेदार,
सब पुरुष थे,
इसलिये यह नियम सर्वसम्मति से मान लिया गया,
एक स्त्री ने यह पूछा,
कि सहवास तो स्त्री और पुरुष दोनों के मिलन से होता है,
यदि परस्त्री अपवित्र होती है,
तो परपुरुष भी अपवित्र होना चाहिए,
उसको भी समाज में जगह नहीं मिलनी चाहिए,
पर वह स्त्री गायब कर दी गई,
उसकी लाश भी नहीं मिली किसी को,
और इस तरह से बनी बलात्कार की,
और स्त्री की अपवित्रता की परिभाषा,
पुरुष कुछ भी करे मरना स्त्री को ही है।
फिर समाज में बलात्कार बढ़ने लगे,
जिनका पता चल गया,
उन स्त्रियों ने आत्महत्या कर लीं,
या वो वेश्या बना दी गईं,
जी हाँ वेश्याओं का जन्म यहीं से हुआ,
क्योंकि अपवित्र स्त्रियों के पास,
इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचा था,
और जिनका पता नहीं चला,
वो जिन्दा बचीं रहीं,
घुटती रहीं, कुढ़ती रहीं,
पर जिन्दगी तो सबको प्यारी होती है,
उनके साथ बार बार बलात्कार होता रहा,
और वो जिन्दा रहने के लालच में चुपचाप सब सहती रहीं।
जी हाँ शारीरिक शोषण का उदय यहीं से हुआ,
पुरुषों का किया धरा है सब,
चिम्पांजियों और बंदरों में नर बलात्कार नहीं करते।
धीरे धीरे स्त्री के मन में डर बैठता गया,
बलात्कार का,
अपवित्रता का,
मौत का,
इतना ज्यादा,
कि वो बलात्कार में मानसिक रूप से टूट जाती थी,
वरना शरीर पर क्या फर्क पड़ता है,
दो चार बूँदों से,
नहाया और फिर से वैसी की वैसी।
धीरे धीरे ये स्त्री को प्रताड़ित करने के लिए,
पुरुषों का अस्त्र बन गया;
शारीरिक यातना झेलने की,
स्त्रियों को आदत थी,
गर्भावस्था झेलने के कारण,
पर मानसिक यातना वो कैसे झेलती,
इसका उसे कोई अभ्यास नहीं था।
धीरे धीरे स्त्री ये बात समझने लगी,
कि ये सब पुरुष का किया धरा है,
उनके ही बनाये नियम हैं,
और धीरे धीरे मानसिक यातना,
सहन करने की शक्ति भी उसमें आने लगी,
यह बात पुरुषों को बर्दाश्त नहीं हुई,
फिर जन्म हुआ सामूहिक बलात्कार का,
अब स्त्री ना तो छुपा सकती थी,
ना शारीरिक यातना ही झेल सकती थी,
और मानसिक यातना,
तो इतनी होती थी,
कि उसके पास दो ही रास्ते बचते थे,
आत्महत्या का, या डाकू बनने का।
धीरे धीर क्रमिक विकास में,
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा ही,
गड्डमड्ड होने लगी,
झूठ समय का मुकाबला नहीं कर पाता,
वो समय की रेत में दब जाता है,
केवल सच ही उसे चीर कर बाहर आ पाता है,
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा,
सिर्फ स्त्रियों पर ही लागू नहीं होती,
यह पुरुषों पर भी लागू होती है,
या फिर पवित्र और अपवित्र जैसा कुछ होता ही नहीं।
मुझे समझ में नहीं आता,
दो चार बूँदों से इज्जत कैसे लुट जाती है?
और पुरुष उसे लूटता है,
तो ज्यादा इज्जतदार क्यों नहीं बन जाता?
स्त्री की इज्जत उसके जननांग में क्यों रहती है,
उसके सत्कार्यों में, उसके ज्ञान में क्यों नहीं?
ये इज्जत नहीं है,
उसकी पवित्रता और उसकी इज्जत नहीं लुटती,
ये पुरुष का अहंकार है,
उसका अभिमान है,
जो लुट जाता है,
स्त्री पर कोई फर्क नहीं पड़ता,
पर अहंकारी पुरुष उस स्त्री को स्वीकार नहीं करता,
क्योंकि उसके अहं को ठेस लगती है,
सदियों पुराने अहं को,
जो अब उसके खून में रच बस गया है,
जिससे छुटकारा उसे शायद ही मिले,
सात साल की सजा से,
या बलात्कारी की मौत से,
फायदा नहीं होगा,
फायदा तभी होगा,
जब पुरुष ये समझने लगेगा,
कि बलात्कार,
जबरन किये गये कार्य से ज्यादा कुछ नहीं होता;
और बलात्कार करके वो लड़की की इज्जत नहीं लूटता,
केवल अपने ही जैसे कुछ पुरुषों के,
अहं को ठेस पहुँचाता है।
गुरुवार, 10 जून 2010
माली कैसे सह पाता है
माली कैसे सह पाता है,
अपने धन्धे का जंजाल;
तू ही बगिया का पालक है,
तू ही है कलियों का काल।
पत्थर की मूरत की खातिर
कली बिचारी जाँ से जाती,
डाली रोती रहती फिर भी
कभी तुझे ना लज्जा आती;
इन सबको इतने दुख देकर
होता तुझको नहीं मलाल?
कितना कोमल कली-हृदय है
तूने कभी नहीं सोचा,
बेदर्दी तूने कलिका को
भरी जवानी में नोंचा;
पौधे की तड़पन ना देखी,
ना देखा भँवरे का हाल।
अपने धन्धे का जंजाल;
तू ही बगिया का पालक है,
तू ही है कलियों का काल।
पत्थर की मूरत की खातिर
कली बिचारी जाँ से जाती,
डाली रोती रहती फिर भी
कभी तुझे ना लज्जा आती;
इन सबको इतने दुख देकर
होता तुझको नहीं मलाल?
कितना कोमल कली-हृदय है
तूने कभी नहीं सोचा,
बेदर्दी तूने कलिका को
भरी जवानी में नोंचा;
पौधे की तड़पन ना देखी,
ना देखा भँवरे का हाल।
रविवार, 6 जून 2010
कितनी अजीब बात है
कितनी अजीब बात है,
जो सड़क सबको घर पहुँचाती है,
उसका कोई घर नहीं होता।
जिस सागर जल से है,
जगत का जल चक्र चलता,
उसका पानी पीने लायक नहीं होता।
जिस बादल के पानी से,
धरती पर हरियाली फैल जाती है,
उसका खुद का सारा शरीर काला होता है।
जो धरती सबके पेट की आग बुझाती है,
उसके पेट की आग न कभी बुझी है,
न कभी बुझ पाएगी।
जो गाँधीजी राष्ट्र पिता थे,
वो कभी एक अच्छे पिता नहीं बन पाये।
ऐसा क्यों होता है कि सारे बड़े बड़े,
दूसरों के लिए मरने वाले,
मिटने वाले लोग,
अपना ही घर नहीं बना पाते,
अपने घर के लोगों को खुश नहीं रख पाते,
अपने ही अन्तर की आग नहीं बुझा पाते,
अपनी ही आत्मा की शांति तलाश नहीं कर पाते।
जो सड़क सबको घर पहुँचाती है,
उसका कोई घर नहीं होता।
जिस सागर जल से है,
जगत का जल चक्र चलता,
उसका पानी पीने लायक नहीं होता।
जिस बादल के पानी से,
धरती पर हरियाली फैल जाती है,
उसका खुद का सारा शरीर काला होता है।
जो धरती सबके पेट की आग बुझाती है,
उसके पेट की आग न कभी बुझी है,
न कभी बुझ पाएगी।
जो गाँधीजी राष्ट्र पिता थे,
वो कभी एक अच्छे पिता नहीं बन पाये।
ऐसा क्यों होता है कि सारे बड़े बड़े,
दूसरों के लिए मरने वाले,
मिटने वाले लोग,
अपना ही घर नहीं बना पाते,
अपने घर के लोगों को खुश नहीं रख पाते,
अपने ही अन्तर की आग नहीं बुझा पाते,
अपनी ही आत्मा की शांति तलाश नहीं कर पाते।
सोमवार, 24 मई 2010
जमकर आज नहायेगा ये।
कविता वाचक्नवी जी ने एक कविता कार्यशाला का आयोजन किया था,
जिसमें जल के ऊपर छलांग लगाते एक बाघ पर कविता लिखनी थी।
उसमें मैंने यह गीत लिखा।
इस कार्यशाला के बारे में विस्तृत चर्चा आप नीचे दी गई कड़ी पर देख सकते हैं।
http://www.srijangatha.com/bloggatha24_2k10
जमकर आज नहायेगा ये।
जंगल में तो लगी आग है,
जान बचा कर भगा बाघ है,
मछली संग बतियायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
बहुत दिनों से ढूँढ रह था,
पानी का ना कहीं पता था,
गोते आज लगायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
बाघिन बोली थी गुस्साकर,
गड्ढे में मुँह आओ धोकर,
तन-मन धोकर जायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
फिर जाने कब पाये पानी,
जाने कब तक है जिन्दगानी,
रो जंगल में जायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
जिसमें जल के ऊपर छलांग लगाते एक बाघ पर कविता लिखनी थी।
उसमें मैंने यह गीत लिखा।
इस कार्यशाला के बारे में विस्तृत चर्चा आप नीचे दी गई कड़ी पर देख सकते हैं।
http://www.srijangatha.com/bloggatha24_2k10
जमकर आज नहायेगा ये।
जंगल में तो लगी आग है,
जान बचा कर भगा बाघ है,
मछली संग बतियायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
बहुत दिनों से ढूँढ रह था,
पानी का ना कहीं पता था,
गोते आज लगायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
बाघिन बोली थी गुस्साकर,
गड्ढे में मुँह आओ धोकर,
तन-मन धोकर जायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
फिर जाने कब पाये पानी,
जाने कब तक है जिन्दगानी,
रो जंगल में जायेगा ये,
जमकर आज नहायेगा ये।
मंगलवार, 30 मार्च 2010
काश यादों को करीने से लगा सकता मैं
काश यादों को करीने से लगा सकता मैं,
छाँट कर तेरी बाकी सब को हटा सकता मैं।
वो याद जिसमें लगीं तुम मेरी परछाईं थीं,
काश उस याद की तस्वीर बना सकता मैं।
दिन-ब-दिन धुँधली हो रही तेरी यादों की किताब,
काश हर पन्ने को सोने से मढ़ा सकता मैं।
वो पन्ना जिसपे कहानी लिखी जुदाई की,
काश उस पन्ने का हर लफ्ज मिटा सकता मैं।
किताब-ए-याद को पढ़ पढ़ के सजदा करता हूँ,
काश ये आयतें तुझको भी सुना सकता मैं।
छाँट कर तेरी बाकी सब को हटा सकता मैं।
वो याद जिसमें लगीं तुम मेरी परछाईं थीं,
काश उस याद की तस्वीर बना सकता मैं।
दिन-ब-दिन धुँधली हो रही तेरी यादों की किताब,
काश हर पन्ने को सोने से मढ़ा सकता मैं।
वो पन्ना जिसपे कहानी लिखी जुदाई की,
काश उस पन्ने का हर लफ्ज मिटा सकता मैं।
किताब-ए-याद को पढ़ पढ़ के सजदा करता हूँ,
काश ये आयतें तुझको भी सुना सकता मैं।
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