यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
यूँ ही
गुलाब की पंखुड़ी होठों में दबा ली थी,
तब पता लगा,
लोग कितनी गलत उपमा देते हैं,
कहाँ वो ठंढी, नीरस, पंखुड़ी,
कहाँ तुम्हारे वो गर्म, रसभरे होंठ,
यूँ ही एक दिन,
चाँद को ध्यान से देख लिया था,
तब जाकर पता लगा,
कि मैं कितना गलत कहता था,
कहाँ वो दागदार, निर्जन चाँद,
कहाँ तुम्हारा वो बेदाग, जीवंत चेहरा,
यूँ ही एक दिन,
चंदन का पेड़ दिख गया था,
तब पता चला, मैं कितना गलत सोचता था,
कहाँ तुम्हारा वो रेशमी, बलखाता बदन,
कहाँ ये साँपों से लिपटा, जड़, चन्दन।
तेरा रूप
जल सा, अनल सा भी प्रिये तेरा रूप है;
आग ये लगाता भी है, आग ये बुझाता भी है,,
चैन लेके चैन देता, अजब-अनूप है।
युद्ध शान्ति दोनों को ही, जन्म ये दे सकता है,
कभी घनी छाँव है, तो कभी तीखी धूप है;
भागकर इससे न कोई पार पा सका है,
पार वही होता है, जो इसमें जाता डूब है।
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं
मैं जाग रहा हूँ, नभ को ताक रहा हूँ,
है बेशर्म चाँद ये, जाता हि नहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।
करवट बदल बदल, है पीठ रही जल,
हैं तारे मुझपे हँसते, मुँह छिपा कहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।
कल आ वो जाएगी, संग नींद लायेगी,
फिर कभी चाँद-तारों को देखूँगा नहीं,
पर रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
महुवा
उसके आँसू गिरते रहे,
और पेड़ के नीचे उसके आँसुओं का गद्दा बिछ गया,
सुबह लोग आये,
और उन्होंने सारे आँसू बीन लिये,
फिर उन आँसुओं का हलवा बनाया,
और सबने खूब चटखारे लेकर खाया,
किसी ने कभी महुवे से,
उसका हाल चाल जानने की कोशिश नहीं की,
उसके रोने का कारण नहीं पूछा,
उसका दुख नहीं बाँटा,
महुवा आज भी रोता है,
और लोग उसके आँसुओं का हलवा खाते हैं,
बिना उसके दुख दर्द का कारण जानने की कोशिश किये।
स्मृति
ये जानते लोग सभी हैं;
रेत के घरौंदे,
बनाते वो फिर भी हैं।
माना प्रकृति मिटा सकती है,
नर की निर्मिति;
पर मिटा नहीं सकती,
उस नन्हें घर की स्मृति।
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
मेरा चाँद आज आधा है
उखड़ा हुआ मुखड़ा, सूजी हुई आँखें,
आज इसकी आँखों में, नमी कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
बात क्या हो गयी है, रात रो सी रही है,
जाने क्यों कष्ट इसे, आज कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
घबरा मत चाँद मेरे, दुख की इन रातों में,
साथ तेरे रहूँगा मैं, मेरा तुझसे वादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
फट गया दिल एक बादल का
प्यार का मृदु स्वप्न लेकर,
छोड़ आया था वो सागर,
भटकता था जाने कब से,
पूछता था यही सब से;
कहाँ वह थल, जहाँ कर
लूँ अपना दिल हलका।
सब ये कहते थे बढ़ा चल,
वीर तू पर्वत चढ़ा चल,
जगत में निज नाम कर तू,
वीरता का काम कर तू;
प्रेम के मत फेर पड़ तू,
प्यार तो है नाम बस छल का।
तभी उसको दिखी चोटी,
प्रीति उसके हृदय लौटी,
श्वेत हिम से वो ढकी थी,
प्रेम रस से भी छकी थी;
राह रोकी तभी गिरि ने,
कर प्रदर्शन बाहु के बल का।
लड़ा गिरि से बहुत बादल,
मगर वो जल से भरा था,
तिस पे उतने पहुँच ऊपर,
अधमरा सा हो चला था;
दर्द इतना बढ़ गया,
वह फाड़ दिल छलका।
गाँव कितने बह गये फिर,
कितने ही घर ढह गये फिर,
दोष देते लोग, भगवन!
क्यों किया यह मृत्यु नर्तन?
मैं समझ ना पा रहा,
यह दोष था किसका।
उन सबको धन्यवाद मेरा
दुख मुझको देकर जिस-जिस ने
है सिखा दिया गम को पीना,
मुँह मोड़, छोड़ मुझको जिसने,
है सिखा दिया तन्हा जीना;
उनको है साधुवाद मेरा।
अपमान मेरा करके जिसने,
सम्मान क्षणिक यह सिखलाया,
जिस-जिस ने हो मेरे खिलाफ,
अपनों तक मुझको पहुँचाया;
है उनको साधुवाद मेरा।
जिस जिस ने मुझे पराजित कर
अभिमान मेरा है चूर किया,
डर दिखा भविष्यत का मुझको
आलस्य मेरा है दूर किया;
उनको है साधुवाद मेरा।
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
रात भर नींद में गुनगुनाता रहा
ख्वाब में तुम मेरे आती जाती रहीं,
रात भर नींद में गुनगुनाता रहा।
दिन निकल ही गया फाइलों में मगर,
प्रीति की है कुछ ऐसी सनम रहगुजर,
व्यस्त जब तक था मैं, मन था बहला हुआ,
पर अकेले में ये कसमसाता रहा।
साँझ यादों की मधु ले के फिर आ गई,
रात तक तुम नशा बन के थीं छा गई,
यूँ तो मदहोश था, फिर भी बेहोशी में,
नाम तेरा ही मैं बड़बड़ाता रहा।
फिर सुबह हो गई, रात फिर सो गई,
चाय के स्वाद में, याद फिर खो गई,
जब मैं दफ्तर गया न किसी को लगा,
रात बिस्तर पे मैं छटपटाता रहा।
रविवार, 22 नवंबर 2009
ऐ ख़बर बेख़बर!
ऐ ख़बर बेख़बर!
बुधिया लुटती रही, फुलवा घुटती रही,
तू सिनेमा, सितारों में उलझी रही,
जाके लोटी तु मंत्री के, नेता के घर,
क्या कहूँ है गिरी आज तू किस कदर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
सच को समझा नहीं, सच को जाना नहीं,
झूठ को झूठ भी तूने माना नहीं,
जो बिकी, है बनी, आज वो ही खबर,
है टँगा सत्य झूठों की दीवार पर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
भूत प्रेतों को दिन भर दिखाती रही,
लोगों का तू भविष्यत बताती रही,
आम लोगों पे क्या गुजरी है, आज, पर,
ये न आया तुझे, है कभी भी नजर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
तू थी खोजी कभी, आज मदहोश है,
थी कभी साहसी, आज बेजोश है?
बन भिखारी खड़ी है हर एक द्वार पर,
कोई दे दे कहीं चटपटी इक ख़बर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
उठ जगा आग तुझमें जो सोई पड़ी,
आग से आग बुझने की आई घड़ी,
काट तू गर्दन-ए-झूठ की इस कदर,
जुर्म खाता फिरे ठोकरें दर-बदर;
ऐ ख़बर बेख़बर!