यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
स्मृति
ये जानते लोग सभी हैं;
रेत के घरौंदे,
बनाते वो फिर भी हैं।
माना प्रकृति मिटा सकती है,
नर की निर्मिति;
पर मिटा नहीं सकती,
उस नन्हें घर की स्मृति।
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
मेरा चाँद आज आधा है
उखड़ा हुआ मुखड़ा, सूजी हुई आँखें,
आज इसकी आँखों में, नमी कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
बात क्या हो गयी है, रात रो सी रही है,
जाने क्यों कष्ट इसे, आज कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
घबरा मत चाँद मेरे, दुख की इन रातों में,
साथ तेरे रहूँगा मैं, मेरा तुझसे वादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
फट गया दिल एक बादल का
प्यार का मृदु स्वप्न लेकर,
छोड़ आया था वो सागर,
भटकता था जाने कब से,
पूछता था यही सब से;
कहाँ वह थल, जहाँ कर
लूँ अपना दिल हलका।
सब ये कहते थे बढ़ा चल,
वीर तू पर्वत चढ़ा चल,
जगत में निज नाम कर तू,
वीरता का काम कर तू;
प्रेम के मत फेर पड़ तू,
प्यार तो है नाम बस छल का।
तभी उसको दिखी चोटी,
प्रीति उसके हृदय लौटी,
श्वेत हिम से वो ढकी थी,
प्रेम रस से भी छकी थी;
राह रोकी तभी गिरि ने,
कर प्रदर्शन बाहु के बल का।
लड़ा गिरि से बहुत बादल,
मगर वो जल से भरा था,
तिस पे उतने पहुँच ऊपर,
अधमरा सा हो चला था;
दर्द इतना बढ़ गया,
वह फाड़ दिल छलका।
गाँव कितने बह गये फिर,
कितने ही घर ढह गये फिर,
दोष देते लोग, भगवन!
क्यों किया यह मृत्यु नर्तन?
मैं समझ ना पा रहा,
यह दोष था किसका।
उन सबको धन्यवाद मेरा
दुख मुझको देकर जिस-जिस ने
है सिखा दिया गम को पीना,
मुँह मोड़, छोड़ मुझको जिसने,
है सिखा दिया तन्हा जीना;
उनको है साधुवाद मेरा।
अपमान मेरा करके जिसने,
सम्मान क्षणिक यह सिखलाया,
जिस-जिस ने हो मेरे खिलाफ,
अपनों तक मुझको पहुँचाया;
है उनको साधुवाद मेरा।
जिस जिस ने मुझे पराजित कर
अभिमान मेरा है चूर किया,
डर दिखा भविष्यत का मुझको
आलस्य मेरा है दूर किया;
उनको है साधुवाद मेरा।
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
रात भर नींद में गुनगुनाता रहा
ख्वाब में तुम मेरे आती जाती रहीं,
रात भर नींद में गुनगुनाता रहा।
दिन निकल ही गया फाइलों में मगर,
प्रीति की है कुछ ऐसी सनम रहगुजर,
व्यस्त जब तक था मैं, मन था बहला हुआ,
पर अकेले में ये कसमसाता रहा।
साँझ यादों की मधु ले के फिर आ गई,
रात तक तुम नशा बन के थीं छा गई,
यूँ तो मदहोश था, फिर भी बेहोशी में,
नाम तेरा ही मैं बड़बड़ाता रहा।
फिर सुबह हो गई, रात फिर सो गई,
चाय के स्वाद में, याद फिर खो गई,
जब मैं दफ्तर गया न किसी को लगा,
रात बिस्तर पे मैं छटपटाता रहा।
रविवार, 22 नवंबर 2009
ऐ ख़बर बेख़बर!
ऐ ख़बर बेख़बर!
बुधिया लुटती रही, फुलवा घुटती रही,
तू सिनेमा, सितारों में उलझी रही,
जाके लोटी तु मंत्री के, नेता के घर,
क्या कहूँ है गिरी आज तू किस कदर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
सच को समझा नहीं, सच को जाना नहीं,
झूठ को झूठ भी तूने माना नहीं,
जो बिकी, है बनी, आज वो ही खबर,
है टँगा सत्य झूठों की दीवार पर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
भूत प्रेतों को दिन भर दिखाती रही,
लोगों का तू भविष्यत बताती रही,
आम लोगों पे क्या गुजरी है, आज, पर,
ये न आया तुझे, है कभी भी नजर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
तू थी खोजी कभी, आज मदहोश है,
थी कभी साहसी, आज बेजोश है?
बन भिखारी खड़ी है हर एक द्वार पर,
कोई दे दे कहीं चटपटी इक ख़बर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
उठ जगा आग तुझमें जो सोई पड़ी,
आग से आग बुझने की आई घड़ी,
काट तू गर्दन-ए-झूठ की इस कदर,
जुर्म खाता फिरे ठोकरें दर-बदर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
यदि राम-कृष्ण को हम अपना आदर्श रखेंगें,
सीता-राधा के प्रश्नों का क्या उत्तर देंगें,
आओ ऐसे कुछ उच्चादर्श बदल लें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
आँखें मिलना, दिल दे देना, कुछ बातें और मुलाकातें,
फिर निरी वासना तृप्ति और अलगाव बिताकर कुछ रातें,
आओ सब मिल प्यार को पुनः परिभाषित तो कर दें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
लोकतंत्र, आम-चुनाव, राजनीति, नेता, कुर्सी,
इतने निर्दोष मरे हैं इनके कारण कि,
शब्दकोश में ऐसे कुछ शब्दों के अर्थ बदल लें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
इक पत्नी, इक घर, दो बच्चे, थोड़ा सा नाम कमाने को,
अपनी आत्मा से हर पग पर समझौता करना पड़ता हो,
तो आओ अब अपने जीवन लक्ष्य बदल लें हम,
आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।
हाय मेरा जीवन निःसार!
हाय मेरा जीवन निःसार!
बीत गया जब मेरा यौवन,
उतर गया सारा पागलपन,
फिर जब मिला वही सूनापन,
भटकने लगा फिर प्यासा मन,
तब जाकर मालूम हुआ सच क्या था मेरे यार,
मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,
हाय मेरा जीवन निःसार!
मैं समझा था उसके मन में,
उसके जीवन में कन-कन में,
मैं उसके नयनों में, दिल में,
प्राणों के रिलमिल-झिलमिल में,
उतर गया उसके नयनों से,
यौवन का पागलपन जब से,
नेत्रों में पहले सी ही थी प्यास प्यार की यार,
मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,
हाय मेरा जीवन निःसार!
शनिवार, 21 नवंबर 2009
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
तूफान भी मेरे आँगन में, मृदु झोंके सा लहराता है,
दिनकर भी नन्हें बालक सा हो मचल-मचल इठलाता है,
सागर को गागर में भरकर, अपने आँगन में रखता हूँ,
ऐसे जाने कितने त्रिभुवन, मैं रोज बनाया करता हूँ,
मतवाली हो जाओगी, यदि आँशिक भी मुझको जाना,
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
मैं सागर को मरूथल के वक्षस्थल में खोजा करता हूँ,
रवि के भीतर होगा हिमनिधि, अक्सर मैं सोंचा करता हूँ,
है चिता भस्म में मैंने पायी नवजीवन की चिंगारी,
हूँ देख चुका मैं मध्यरात्रि में दिनकर को कितनी बारी,
प्रेयसि मैं कवि हूँ,, घातक होगा, मुझसे प्रीत लगाना,
मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।
सोमवार, 16 नवंबर 2009
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
लाल-लाल फीतों में लिपटी, नई नवेली नगर वधू सी,
बाहर-भीतर चम-चम करती, देख हँसा, खुश हो, चपरासी,
बाबू ने फ़ाइल देखी, ज्यों देखे गुंडा अबला नारी;
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
गाँधीजी के फोटो वाला कागज़ बाबू ने खोजा, पर,
नहीं मिला, तो बोला बाबू, फ़ाइल इक कोने में रखकर,
कौन बचायेगा अब तुझको, बम भोले या कृष्ण मुरारी?
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
उसके बाद बताऊँ क्या मैं, बाबू, चपरासी, साहब ने,
मिलकर उसको यों लूटा, ज्यों खाया हो मुर्दा गिद्धों ने,
फ़ाइल का मुँह काला, नीला, लाल किया फिर बारी-बारी;
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!
साहब, बाबू बदले जब-जब, फिर-फिर वह चीखी-चिल्लाई,
वर्षों बीत गये यूँ ही पर, कभी किसी को दया न आई,
जल कर ख़ाक हुई, इक दिन जब लगी आग दफ्तर में भारी;
ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!