मंगलवार, 30 अगस्त 2016

ग़ज़ल : ऐसा फल अच्छा होता है

बह्र : २२ २२ २२ २२

सब खाते हैं इक बोता है
ऐसा फल अच्छा होता है

पूँजीपतियों के पापों को
कोई तो छुपकर धोता है

इक दुनिया अलग दिखी उसको
जिसने भी मारा गोता है

हर खेत सुनहरे सपनों का
झूठे वादों ने जोता है

महसूस करे जो जितना, वो,
उतना ही ज़्यादा रोता है

मेरे दिल का बच्चा जाकर
यादों की छत पर सोता है

भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’
सच्चा तो केवल तोता है

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

ग़ज़ल : आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै

बह्र : 212 1222 212 1222

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै

फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै

दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै

स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै

आग प्यार की बुझने गर लगे कहीं ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै

शनिवार, 13 अगस्त 2016

नवगीत : सब में मिट्टी है भारत की

किसको पूजूँ

किसको छोड़ूँ

सब में मिट्टी है भारत की


पीली सरसों या घास हरी

झरबेर, धतूरा, नागफनी

गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची

है फूलों में, काँटों में भी


सब ईंटें एक इमारत की


भाले, बंदूकें, तलवारें

गर इसमें उगतीं ललकारें

हल बैल उगलती यही जमीं

गाँधी, गौतम भी हुए यहीं


बाकी सब बात शरारत की


इस मिट्टी के ऐसे पुतले

जो इस मिट्टी के नहीं हुए

उनसे मिट्टी वापस ले लो

पर ऐसे सब पर मत डालो


अपनी ये नज़र हिकारत की

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

ग़ज़ल : तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

बह्र : 22 22 22 22 22 22

तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम

दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है
शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम

सिक्का यदि बढ़वाना चाहे अपनी कीमत
झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम

नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की
फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम

पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं हम

शुद्ध नहीं, भाषा को गन्दा कर देते हैं
टाई को जब कंठलँगोट बनाते हैं हम

बुधवार, 20 जुलाई 2016

ग़ज़ल : सब आहिस्ता सीखोगे

जल्दी में क्या सीखोगे
सब आहिस्ता सीखोगे

इक पहलू ही गर देखा
तुम बस आधा सीखोगे

सबसे हार रहे हो तुम
सबसे ज़्यादा सीखोगे

सबसे ऊँचा, होता है,
सबसे ठंडा, सीखोगे

सूरज के बेटे हो तुम
सब कुछ काला सीखोगे

सीखोगे जो ख़ुद पढ़कर
सबसे अच्छा सीखोगे

पहले प्यार का पहला ख़त
पुर्ज़ा पुर्ज़ा सीखोगे

ख़ुद को पढ़ लोगे जिस दिन
सारी दुनिया सीखोगे

हाकिम बनते ही ‘सज्जन’
सब कुछ खाना सीखोगे

सोमवार, 18 जुलाई 2016

कविता : तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी

तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी
जैसे धरती से मिलने आती है बारिश
जैसे सागर से मिलने आती है नदी

मिलकर मुझमें खो जाओगी
जैसे धरती में खो जाती है बारिश
जैसे सागर में खो जाती है नदी

मैं हमेशा अपनी बाहें फैलाये तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा
जैसे धरती करती है बारिश की
जैसे सागर करता है नदी की

तुमको मेरे पास आने से
कोई ताकत नहीं रोक पाएगी
जैसे अपनी तमाम ताकत और कोशिशों के बावज़ूद
सूरज नहीं रोक पाता अपनी किरणों को

मंगलवार, 28 जून 2016

ग़ज़ल : ऐसे लूटा गया साँवला कोयला

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

था हरा औ’ भरा साँवला कोयला
हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला

वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन
इसलिए हो गया साँवला, कोयला

चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये
जिन्दगी भर जला साँवला कोयला

खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये
जल के विद्युत बना साँवला कोयला

हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर
और जलता रहा साँवला कोयला

चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है
ऐसे लूटा गया साँवला कोयला

सोमवार, 30 मई 2016

ग़ज़ल : वो यहाँ बेलिबास रहती है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

बन के मीठी सुवास रहती है
वो मेरे आसपास रहती है

उसके होंठों में झील है मीठी
मेरे होंठों में प्यास रहती है

आँख ने आँख में दवा डाली
अब जुबाँ पर मिठास रहती है

मेरी यादों के मैकदे में वो
खो के होश-ओ-हवास रहती है

मेरे दिल में न झाँकिये साहिब
वो यहाँ बेलिबास रहती है

रविवार, 1 मई 2016

ग़ज़ल : यही सच है कि प्यार टेढ़ा है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

ये दिमागी बुखार टेढ़ा है
यही सच है कि प्यार टेढ़ा है

स्वाद इसका है लाजवाब मियाँ
क्या हुआ गर अचार टेढ़ा है

जिनकी मुट्ठी हो बंद लालच से
उन्हें लगता है जार टेढ़ा है

खार होता है एकदम सीधा
फूल है मेरा यार, टेढ़ा है

यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये
इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है
जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं
भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है

कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है

भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी बुझ जाती
धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है

करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता
शोर मचाने वाला केवल शोर मचाता है