बुधवार, 23 दिसंबर 2015

ग़ज़ल : हर बार उन्हें आप ने सुल्तान बनाया

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

ये झूठ है अल्लाह ने इंसान बनाया
सच ये है के आदम ने ही भगवान बनाया

करनी है परश्तिश तो करो उनकी जिन्होंने
जीना यहाँ धरती पे है आसान बनाया

जैसे वो चुनावों में हैं जनता को बनाते
पंडों ने तुम्हें वैसे ही जजमान बनाया

मज़लूम कहीं घोंट न दें रब की ही गर्दन
मुल्ला ने यही सोच के शैतान बनाया

सब आपके हाथों में है ये भ्रम नहीं टूटे
यह सोच के हुक्काम ने मतदान बनाया

हर बार वो नौकर का इलेक्शन ही लड़े पर
हर बार उन्हें आप ने सुल्तान बनाया

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

नवगीत : भौंक रहे कुत्ते

हर आने जाने वाले पर
भौंक रहे कुत्ते

निर्बल को दौड़ा लेने में
मज़ा मिले जब, तो
क्यों ये भौंक रहे हैं, इससे
क्या मतलब इनको

अब हल्की सी आहट पर भी
चौंक रहे कुत्ते

हर गाड़ी का पीछा करते
सदा बिना मतलब
कई मिसालें बनीं, न जाने
ये सुधरेंगे कब

राजनीति, गौ की चरबी में
छौंक रहे कुत्ते

गर्मी इनसे सहन न होती
फिर भी ये हरदम
करते हरे भरे पेड़ों से
बातें बहुत गरम

हाँफ-हाँफ नफ़रत की भट्ठी
धौंक रहे कुत्ते

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

ग़ज़ल : जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

देख तेरे संसार की हालत सब्र छूटने लगता है
जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

सरकारी खाते से फ़ौरन बड़े घड़े आ जाते हैं
मंत्री जी के पापों का जब घड़ा फूटने लगता है

मार्क्सवाद की बातें कर के जो हथियाता है सत्ता
कुर्सी मिलते ही वो फौरन माल कूटने लगता है

जिसे लूटना हो कानूनन मज़लूमों को वो झटपट
ऋण लेकर कंपनी खोलता और लूटने लगता है

बेघर होते जाते मुफ़लिस, तेरे घर बढ़ते जाते
देख यही तुझ पर मेरा विश्वास टूटने लगता है

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

कविता : जीवन नमकीन पानी से बनता है

भावनाएँ साफ पानी से बनती हैं
तर्क पौष्टिक भोजन से

भूखे प्यासे इंसान के पास
न भावनाएँ होती हैं न तर्क

कहते हैं जल ही जीवन है
क्योंकि जीवन भावनाओं से बनता है
तर्क से किताबें बनती हैं

पत्थर भी पानी पीता है
लेकिन पत्थर रोता बहुत कम है
किन्तु जब पत्थर रोता है तो मीठे पानी के सोते फूट पड़ते हैं

प्लास्टिक पानी नहीं पीता
इसलिए प्लास्टिक रो नहीं पाता
हाँ वो ठहाका मारकर हँसता जरूर है

पानी शरीर से कभी अकेला नहीं निकलता
वो अपने साथ नमक भी ले जाता है

मैं पानी बहुत पीता हूँ
इसलिए मेरे शरीर में अक्सर नमक की कमी हो जाती है
नमक अकेला तो खाया नहीं जा सकता
इसलिए मैं काली चाय की चुस्की के साथ
चुटकी भर नमक खाता हूँ

नमक खट्टी और मीठी
दोनों यादों में घुल जाता है

नमक और पानी
भौतिक अवस्था और रासायनिक संरचना के आधार पर
बिल्कुल अलग अलग पदार्थ हैं
दोनों को बनाने वाले परमाणु अलग अलग हैं
फिर भी दोनों एक दूसरे में ऐसे घुल मिल जाते हैं
कि जीभ पर न रखें तो पता ही न चले
कि पानी में नमक घुला है

मिठास पर पलते हैं इंसानियत के दुश्मन
नमकीन पानी नष्ट कर देता है
इंसानियत के दुश्मनों को

ज़्यादा पानी और ज़्यादा नमक
शरीर बाहर निकाल देता है
पर मीठा शरीर के भीतर इकट्ठा होता रहता है
पहले चर्बी बनकर फिर ज़हर बनकर

पहली बार जीवन नमकीन पानी में बना था
इसलिए जीवन अब हमेशा नमकीन पानी से बनता है

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

ग़ज़ल : लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं
तट से चिपके रह जाने के अपने ख़तरे हैं

जो आवाज़ उठाएँगे वो कुचले जाएँगे
लेकिन सबकुछ सह जाने के अपने ख़तरे हैं

सबसे आगे हो जो सबसे पहले खेत रहे
सबसे पीछे रह जाने के अपने ख़तरे हैं

रोने पर कमज़ोर समझ लेती है ये दुनिया
आँसू पीकर रह जाने के अपने ख़तरे हैं

धीरे धीरे सबका झूठ खुलेगा, पर ‘सज्जन’
सबकुछ सच-सच कह जाने के अपने ख़तरे हैं

रविवार, 15 नवंबर 2015

नवगीत : पूँजी के बंदर

खिसिया जाते, बात बात पर
दिखलाते ख़ंजर
पूँजी के बंदर

अभिनेता ही नायक है अब
और वही खलनायक
जनता के सारे सेवक हैं
पूँजी के अभिभावक

चमकीले पर्दे पर लगता
नाला भी सागर

सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें
वही खेल है मज़हब
बिक जाये जो, कालजयी है
उसका लेखक है रब

बिछड़ गये सूखी रोटी से
प्याज और अरहर

जीना है तो ताला मारो
कलम और जिह्वा पर
गली मुहल्ले साँड़ सूँघते
सब काग़ज़ सब अक्षर

पौध प्रेम की सूख गई है
नफ़रत से डरकर

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

ग़ज़ल : इक बार मुस्कुरा दो

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

बरसे यहाँ उजाला, इक बार मुस्कुरा दो
दिल रोशनी का प्यासा, इक बार मुस्कुरा दो

बिन स्नेह और बाती, दिल का दिया है खाली
फिर भी ये जल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो

बिजली चमक उठेगी, पल भर को ही सही, पर
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो

लाखों दिये सजे हैं, मन के महानगर में
ये जल उठेंगे जाना, इक बार मुस्कुरा दो

होंठों की आँच से अब, ‘सज्जन’ पिघल रहा है
हो जाएगा तुम्हारा, इक बार मुस्कुरा दो

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

ग़ज़ल : न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है

जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है

जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है

वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

लघुकथा : तालाब की मछलियाँ

इस बार गर्मियाँ तालाब का ढेर सारा पानी पी गईं। मछुआरे से बचते-बचाते धीरे-धीरे मछलियाँ बहुत चालाक हो गईं थीं। वो अब मछुआरे के झाँसे में नहीं आती थीं। उनके दाँत भी काफ़ी तेज़ हो गए थे। अगर कोई मछली कभी फँस भी गई तो जाल के तार काटकर निकल जाती थी। मछुआरे को पता चल गया था कि इस बार उसका पाला अलग तरह की मछलियों से पड़ा है। वो पानी कम होने का ही इंतज़ार कर रहा था।

उसने तालाब के एक कोने में बंसियाँ लगा दीं, दूसरी तरफ जाल लगा दिया और तीसरी तरफ से ख़ुद पानी में उतर कर शोर मचाने लगा। अब मछलियों के पास चौथी तरफ भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था। थोड़ी देर बाद जब मछुआरे को यकीन हो गया कि ज़्यादातर मछलियाँ भागकर चौथे कोने पर चली गई हैं तो वह तालाब के बाहर से चिकनी मिट्टी ला लाकर तालाब के चौथे किनारे को बाकी तालाब से अलग करती हुई मेंड़ बनाने लगा। मछलियाँ उसके इस अजीबोगरीब काम को हैरानी से देखने लगीं। उनमें से एक मछली जो बहुत बातूनी थी बोल पड़ी, “मछेरे, बरसात में तालाब का पानी बढ़ेगा तो तेरी मेंड़ बह जाएगी। क्यूँ बेकार का परिश्रम कर रहा है।”

मछेरा बोला, “मैंने अब तक खेतों में ही मेंड़ देखी है, मैं इस तालाब में मेंड़ बनाकर एक नया प्रयोग कर रहा हूँ।”

मछलियाँ मछेरे के पागलपन पर हँसने लगीं। मछेरा अपना काम करता रहा। जब खूब ऊँची मेंड़ बन गई तब उसने चौथे कोने का पानी तालाब में उलीचना शुरू किया। जब चौथे कोने में पानी काफ़ी कम हो गया तो मछलियों को साँस लेने में दिक्कत होने लगी। अब उन्हें मछेरे की चाल समझ में आई लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। मछेरा थक कर थोड़ी देर के लिए सुस्ताने बैठ गया। मछलियों ने उछल कर मेंड़ पार करने की कोशिश की मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।

थोड़ी देर बाद जब पानी में घुली ऑक्सीजन काफ़ी कम हो गई और मछलियाँ तड़पने लगीं तब उनमें से एक ने कहा, “मछेरे हमें इस कष्ट से मुक्ति दिला दे। हम तड़प तड़प कर नहीं मरना चाहतीं। हमें पानी से बाहर निकाल कर ज़ल्दी से मार दे।”

मछेरा मुस्कुराते हुए उठा और बोला, “तालाब की मछलियाँ कितनी भी चालाक क्यों न हो जायँ उनका मछेरे से बचना असंभव है।”

सोमवार, 28 सितंबर 2015

ग़ज़ल : कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था
मैं पागल था मगर इतना नहीं था

बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे
तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ
मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था

यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की
ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था

तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी
कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था