ये देवताओं और राक्षसों का देश है
यहाँ गान्धारी न्याय करती है
न्याय का देवता किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होता
तीन तरह के अम्लों का गठबंधन
राज करता है
सेना के पास
खद्दर में लिपटा झूठ का गोला बारूद है
सेनापति को सच बोलने के जुर्म में फाँसी दी जाती है
साहित्यिक कुँए का मेढक
सारी दुनिया घूमकर वापस कुँए में आ जाता है
आइने के सामने आइना रखते ही
वो घबराकर झूठ बोलने लगता है
धरती का मुँह देख देखकर
सूरज अपनी आग काबू में रखता है
शब्द एक दूसरे से जुड़कर तलवार बनाते हैं
विलोम शब्दों का कत्ल करने के लिए
ये देवताओं और राक्षसों का देश है
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शनिवार, 31 मार्च 2012
मंगलवार, 27 मार्च 2012
कविता : ब्रह्मांड और समय बनाम महाकाव्य और उपन्यास
ब्रह्मांड कागज़ का गुब्बारा है
ऊर्जा और द्रव्य अक्षर हैं
हम सब शब्द हैं
कागज़ का गुब्बारा फूल रहा है
स्वर से अलग व्यंजन का अस्तित्व नहीं होता
समय बदल रहा है शब्दों के अर्थ
पैदा हो रहे हैं नए महाकाव्य और उपन्यास
कुछ भी नष्ट नहीं होता
शब्द अक्षरों में टूटकर करते हैं नई नई यात्राएँ
कुछ शब्दों को होता है होने का अहसास
समय हँसता है
फट जाएगा एक दिन कागज़ का गुब्बारा
नए गुब्बारे पर नया समय फिर से लिखेगा
महाकाव्य और उपन्यास
इस बात से बेखबर
कि ये सारे महाकाव्य और उपन्यास
पहले भी लिखे जा चुके हैं
ऊर्जा और द्रव्य अक्षर हैं
हम सब शब्द हैं
कागज़ का गुब्बारा फूल रहा है
स्वर से अलग व्यंजन का अस्तित्व नहीं होता
समय बदल रहा है शब्दों के अर्थ
पैदा हो रहे हैं नए महाकाव्य और उपन्यास
कुछ भी नष्ट नहीं होता
शब्द अक्षरों में टूटकर करते हैं नई नई यात्राएँ
कुछ शब्दों को होता है होने का अहसास
समय हँसता है
फट जाएगा एक दिन कागज़ का गुब्बारा
नए गुब्बारे पर नया समय फिर से लिखेगा
महाकाव्य और उपन्यास
इस बात से बेखबर
कि ये सारे महाकाव्य और उपन्यास
पहले भी लिखे जा चुके हैं
सोमवार, 26 मार्च 2012
क्षणिका : सूरज
धरती के लिए सूरज देवता है
उसकी चमक, उसका ताप
जीवन के लिए एकदम उपयुक्त हैं
कभी पूछो जाकर बाकी ग्रहों से
उनके लिए क्या है सूरज?
उसकी चमक, उसका ताप
जीवन के लिए एकदम उपयुक्त हैं
कभी पूछो जाकर बाकी ग्रहों से
उनके लिए क्या है सूरज?
रविवार, 18 मार्च 2012
हास्य ग़ज़ल : उदर में खार बन उगता तुम्हारी माँ का हर व्यंजन
न पक्की छत अगर बनती तो मैं छप्पर बना लेता
जगह देती तो तेरे दिल में अपना घर बना लेता
मैं अक्सर सोचता हूँ इडलियाँ ये देख गालों की
के मौला काश खुद को आज मैं साँभर बना लेता
तुम इतने ध्यान से समझोगी गर मालूम ये होता
मैं अपने आप को एक्ज़ाम का पेपर बना लेता
बता देती के तेरा बाप रखता है दुनाली भी
तो घर के सामने तेरे मैं इक बंकर बना लेता
उदर में खार बन उगता तुम्हारी माँ का हर व्यंजन
न गर मैं सींच दारू से इसे बंजर बना लेता
जगह देती तो तेरे दिल में अपना घर बना लेता
मैं अक्सर सोचता हूँ इडलियाँ ये देख गालों की
के मौला काश खुद को आज मैं साँभर बना लेता
तुम इतने ध्यान से समझोगी गर मालूम ये होता
मैं अपने आप को एक्ज़ाम का पेपर बना लेता
बता देती के तेरा बाप रखता है दुनाली भी
तो घर के सामने तेरे मैं इक बंकर बना लेता
उदर में खार बन उगता तुम्हारी माँ का हर व्यंजन
न गर मैं सींच दारू से इसे बंजर बना लेता
शुक्रवार, 16 मार्च 2012
ग़ज़ल : जब तक नहीं नहा लेती वो प्यासा रहता है पानी
आँखें बंद पड़ीं गीजर की फिर भी
दहता है पानी
उसके तन की तपिश न पूछो कैसे सहता
है पानी
नाजुक होठों को छूने तक भूखा रहता बेचारा
जब तक नहीं नहा लेती वो प्यासा
रहता है पानी
उसके बालों से बिछुए तक जाने में
चुप रहता फिर
कल की आशा में सारा दिन कलकल कहता
है पानी
उस रेशमी छुवन के पीछे हुआ इस कदर दीवाना
सूरज रोज बुलाए फिर भी नीचे बहता
है पानी
बाधाएँ जितनी ज्यादा हों उतना ऊपर
चढ़ जाता
हार न माने इश्क अगर सच्चा हो कहता
है पानी
शुक्रवार, 9 मार्च 2012
ग़ज़ल : जहाँ जाओ जुनून मिलता है
जहाँ जाओ जुनून मिलता है
घर पहुँचकर सुकून मिलता है
न्याय मजलूम को नहीं मिलता
हर सड़क पर कनून मिलता है
अब तो करती है रुत भी घोटाले
मार्च के बाद जून मिलता है
सब की नस नस में आजकल पानी
और आँखों में खून मिलता है
सूर्य से लड़ रहा हूँ दिन भर तब
रात कुछ पल को मून मिलता है
झोपड़ी से न पूछिए कैसे
तेल, रोटी व नून मिलता है
कहीं आटा भी मिल रहा आधा
कहीं भत्ता भी दून मिलता है
रब को गढ़ते थे हाथ जो उनमें
आज खैनी व चून मिलता है
घर पहुँचकर सुकून मिलता है
न्याय मजलूम को नहीं मिलता
हर सड़क पर कनून मिलता है
अब तो करती है रुत भी घोटाले
मार्च के बाद जून मिलता है
सब की नस नस में आजकल पानी
और आँखों में खून मिलता है
सूर्य से लड़ रहा हूँ दिन भर तब
रात कुछ पल को मून मिलता है
झोपड़ी से न पूछिए कैसे
तेल, रोटी व नून मिलता है
कहीं आटा भी मिल रहा आधा
कहीं भत्ता भी दून मिलता है
रब को गढ़ते थे हाथ जो उनमें
आज खैनी व चून मिलता है
बुधवार, 29 फ़रवरी 2012
नवगीत : शब्द माफ़िया
शब्द माफिया
करें उगाही
कदम कदम पर
सम्मानों की सब सड़कों पे
इनके टोल बैरियर
नहीं झुकाया जिसने भी सर
उसका खत्म कैरियर
पत्थर हैं ये
सर फूटेगा
इनसे लड़कर
शब्दों की कालाबाजारी से
इनके घर चलते
बचे खुचे शब्दों से चेलों के
चूल्हे हैं जलते
बाकी सब
कुछ करना चाहें
तो फूँके घर
नशा बुरा है सम्मानों का
छोड़ सको तो छोड़ो
बने बनाए रस्तों से
मुँह मोड़ सको तो मोड़ो
वरना पहनो
इनका पट्टा
तुम भी जाकर
करें उगाही
कदम कदम पर
सम्मानों की सब सड़कों पे
इनके टोल बैरियर
नहीं झुकाया जिसने भी सर
उसका खत्म कैरियर
पत्थर हैं ये
सर फूटेगा
इनसे लड़कर
शब्दों की कालाबाजारी से
इनके घर चलते
बचे खुचे शब्दों से चेलों के
चूल्हे हैं जलते
बाकी सब
कुछ करना चाहें
तो फूँके घर
नशा बुरा है सम्मानों का
छोड़ सको तो छोड़ो
बने बनाए रस्तों से
मुँह मोड़ सको तो मोड़ो
वरना पहनो
इनका पट्टा
तुम भी जाकर
सोमवार, 27 फ़रवरी 2012
कविता : मत छापो मुझे
मत छापो मुझे
पेड़ों की लाश पर
महलों में सजी जानवरों की खालों की तरह
मत सजाओ मुझे
पुस्तकालयों के रैक पर
मैं नहीं बनना चाहती
समोसों का आधार
कुत्तों का शिकार
कूड़े का भंडार
मुझे छोड़ दो
अंतर्जाल की भूल भुलैया में
डूबने दो मुझे
शब्दों और सूचनाओं के अथाह सागर में
मुझे स्वयं तलाशने दो अपना रास्ता
अगर मैं जिंदा बाहर निकल पाई
तो मैं इस युग की कविता हूँ
वरना.........
पेड़ों की लाश पर
महलों में सजी जानवरों की खालों की तरह
मत सजाओ मुझे
पुस्तकालयों के रैक पर
मैं नहीं बनना चाहती
समोसों का आधार
कुत्तों का शिकार
कूड़े का भंडार
मुझे छोड़ दो
अंतर्जाल की भूल भुलैया में
डूबने दो मुझे
शब्दों और सूचनाओं के अथाह सागर में
मुझे स्वयं तलाशने दो अपना रास्ता
अगर मैं जिंदा बाहर निकल पाई
तो मैं इस युग की कविता हूँ
वरना.........
बुधवार, 22 फ़रवरी 2012
नवगीत : चंचल मृग सा
चंचल मृग सा
घर आँगन में दौड़ रहा हरदम
उत्सव का मौसम
घनुष हाथ में लेकर पल में राम सरीखा लगता
अगले ही पल लिए बाँसुरी बालकृष्ण सा दिखता
तन के रावण, कंस, पूतना
निकला सबका दम
मन मंदिर में गूँज रही अब
राधा की छमछम
दीपमालिका, उसकी हँसी अमावस में लगती है
थके हुए जीवन को नित नव संजीवन देती है
हर दिन मेरा हुआ दशहरा
खत्म हो गए गम
सब रातें हो गईं दिवाली
भागे सारे तम
अखिल सृष्टि में बालक-छवि से ज्यादा सुंदर क्या है
बच्चों में बसने को शायद प्रभु ने विश्व रचा है
करते इस मोहन छवि पर
सर्वस्व निछावर हम
नयनों में हो यह छवि तेरी
निकले जब भी दम
घर आँगन में दौड़ रहा हरदम
उत्सव का मौसम
घनुष हाथ में लेकर पल में राम सरीखा लगता
अगले ही पल लिए बाँसुरी बालकृष्ण सा दिखता
तन के रावण, कंस, पूतना
निकला सबका दम
मन मंदिर में गूँज रही अब
राधा की छमछम
दीपमालिका, उसकी हँसी अमावस में लगती है
थके हुए जीवन को नित नव संजीवन देती है
हर दिन मेरा हुआ दशहरा
खत्म हो गए गम
सब रातें हो गईं दिवाली
भागे सारे तम
अखिल सृष्टि में बालक-छवि से ज्यादा सुंदर क्या है
बच्चों में बसने को शायद प्रभु ने विश्व रचा है
करते इस मोहन छवि पर
सर्वस्व निछावर हम
नयनों में हो यह छवि तेरी
निकले जब भी दम
रविवार, 19 फ़रवरी 2012
कविता : बलात्कार (उद्भव, विकास एवं निदान)
शुरू में सब ठीक था
जब धरती पर
प्रारम्भिक स्तनधारियों का विकास हुआ
नर मादा में कुछ ज्यादा अन्तर नहीं था
मादा भी नर की तरह शक्तिशाली थी
वह भी भोजन की तलाश करती थी
शत्रुओं से युद्ध करती थी
अपनी मर्जी से जिसके साथ जी चाहा
सहवास करती थी
बस एक ही अन्तर था दोनों में
वह गर्भ धारण करती थी
पर उन दिनों गर्भावस्था में
इतना समय नहीं लगता था
कुछ दिनों की ही बात होती थी।
फिर क्रमिक विकास में बन्दरों का उद्भव हुआ
तब जब हम बंदर थे
स्त्री पुरुष का भेद ज्यादा नहीं होता था
लेकिन मादा थोड़ी सी कमजोर हुई
क्योंकि अब गर्भावस्था में
ज्यादा समय लगता था
तो उसे थोड़ा ज्यादा आराम चाहिए था
मगर नर और मादा
दोनों ही भोजन की तलाश में भटकते थे
साथ साथ काम करते थे।
फिर हम चिम्पांजी बने
मादा और कमजोर हुई
गर्भावस्था में और ज्यादा समय लगने लगा
वह ज्यादा समय एक ही जगह पर बिताने लगी
नर और ज्यादा शक्तिशाली होता गया
क्रमिक विकास में।
फिर हम मानव बने
नारी को गर्भावस्था के दौरान
अब काफी ज्यादा समय घर पर रहना पड़ता था
ऊपर से बच्चों के जीवन की संभावना भी कम थी
तो ज्यादा बच्चे पैदा करने पड़ते थे
घर पर लगातार रहने से
उसके अंगो में चर्बी जमने लगी
स्तन व नितम्बों का आकार
पुरुषों से बिल्कुल अलग होने लगा
ज्यादा श्रम के काम न करने से
अंग मुलायम होते गये
और वह नर के सामने कमजोर पड़ती गई
धीरे धीरे उसका केवल एक ही काम रह गया
पुरुषों का मन बहलाना;
बदले में पुरुष अपने बल से
उसकी रक्षा करने लगे;
समय बदला,
पुरुष चाहने लगे कि एक ऐसी नारी हो
जो सिर्फ एक पुरुष के बच्चे पैदा कर सके,
इस तरह जन्म हुआ विवाह का
ताकि नारी एक ही पुरुष की होकर रह सके
और पुरुष जो चाहे कर सके,
एक दिन किसी पुरुष ने
किसी दूसरे की स्त्री के साथ
बलपूर्वक सहवास किया
अब स्त्री का पति क्या करता
इसमें नारी का कोई कसूर नहीं था
पर पुरुषों के अहम ने एक सभा बुलाई
उसमें यह नियम बनाया
कि यदि कोई स्त्री अपने पति के अलावा किसी से
मर्जी से या बिना मर्जी से
सहवास करेगी
तो वह अपवित्र हो जाएगी
उसको परलोक में भी जगह नहीं मिलेगी
उसे उसका पिता भी स्वीकार नहीं करेगा
पति और समाज तो दूर की बात है
क्योंकि पिता, पति और समाज के ठेकेदार
सब पुरुष थे
इसलिये यह नियम सर्वसम्मति से मान लिया गया
एक स्त्री ने यह पूछा
कि सहवास तो स्त्री और पुरुष दोनों के मिलन से होता है
यदि परस्त्री अपवित्र होती है
तो परपुरुष भी अपवित्र होना चाहिए
उसको भी समाज में जगह नहीं मिलनी चाहिए,
पर वह स्त्री गायब कर दी गई
उसकी लाश भी नहीं मिली किसी को
और इस तरह से बनी बलात्कार की
और स्त्री की अपवित्रता की परिभाषा
जिसके अनुसार
पुरुष कुछ भी करे मरना स्त्री को ही है।
फिर समाज में बलात्कार बढ़ने लगे
जिनका पता चल गया
उन स्त्रियों ने आत्महत्या कर ली
या वो वेश्या बना दी गईं
जी हाँ वेश्याओं का जन्म यहीं से हुआ
क्योंकि अपवित्र स्त्रियों के पास
इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचा था
और जिनका पता नहीं चला
वो जिन्दा बचीं रहीं
घुटती रहीं, कुढ़ती रहीं
पर जिन्दगी तो सबको प्यारी होती है
उनके साथ बार बार बलात्कार होता रहा
और वो जिन्दा रहने के लालच में,
चुपचाप सब सहती रहीं।
जी हाँ शारीरिक शोषण का उदय यहीं से हुआ
पुरुषों का किया धरा है सब
चिम्पांजियों और बंदरों में नर बलात्कार नहीं करते।
धीरे धीरे स्त्री के मन में डर बैठता गया
बलात्कार का
अपवित्रता का
मौत का
इतना ज्यादा
कि वो बलात्कार में मानसिक रूप से टूट जाती थी
वरना शरीर पर क्या फर्क पड़ता है
नहाया और फिर से वैसी की वैसी।
धीरे धीरे ये स्त्री को प्रताड़ित करने के लिए
पुरुषों का अस्त्र बन गया,
शारीरिक यातना झेलने की
स्त्रियों को आदत थी
गर्भावस्था झेलने के कारण,
पर मानसिक यातना वो कैसे झेलती
इसका उसे कोई अभ्यास नहीं था।
मगर मानसिक यातना झेलते झेलते
धीरे धीरे स्त्री ये बात समझने लगी
कि ये सब पुरुष का किया धरा है
उनके ही बनाये नियम हैं
और धीरे धीरे मानसिक यातना
सहन करने की शक्ति भी उसमें आने लगी
यह बात पुरुषों को बर्दाश्त नहीं हुई
फिर जन्म हुआ सामूहिक बलात्कार का
अब स्त्री ना तो छुपा सकती थी
ना शारीरिक यातना ही झेल सकती थी
और मानसिक यातना
तो इतनी होती थी
कि उसके पास दो ही रास्ते बचते थे
आत्महत्या का, या डाकू बनने का।
धीरे धीर क्रमिक विकास में
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा ही
गड्डमड्ड होने लगी
झूठ समय का मुकाबला नहीं कर पाता
वो समय की रेत में दब जाता है
केवल सच ही उसे चीर कर बाहर आ पाता है
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा
सिर्फ स्त्रियों पर ही लागू नहीं होती
यह पुरुषों पर भी लागू होती है
या फिर पवित्र और अपवित्र जैसा कुछ होता ही नहीं।
मुझे समझ में नहीं आता
पुरुष यदि इज्जत लूटता है
तो ज्यादा इज्जतदार क्यों नहीं बन जाता,
स्त्री की इज्जत उसके कुछ खास अंगों में क्यों रहती है
उसके सत्कार्यों में, उसके ज्ञान में क्यों नहीं,
बड़ी अजीब है ये इज्जत की परिभाषा
दरअसल ये पुरुष का अहंकार है
उसका अभिमान है
जो लुट जाता है
स्त्री पर कोई फर्क नहीं पड़ता
बलात्कार से केवल पुरुषों के अहं को ठेस लगती है
सदियों पुराने अहं को
जो अब उसके खून में रच बस गया है
सात साल की सजा से
या बलात्कारी को मौत देने से
कोई फायदा नहीं होगा
बलात्कार तभी बंद होंगे
जब पुरुष ये समझने लगेगा
कि बलात्कार
एक जबरन किये गये कार्य से ज्यादा कुछ नहीं होता,
और बलात्कार करके वो लड़की को सजा नहीं देता
लड़की की इज्जत नहीं लूटता
केवल अपने ही जैसे ही कुछ पुरुषों के
सदियों पुराने अहं को ठेस पहुँचाता है।
जब धरती पर
प्रारम्भिक स्तनधारियों का विकास हुआ
नर मादा में कुछ ज्यादा अन्तर नहीं था
मादा भी नर की तरह शक्तिशाली थी
वह भी भोजन की तलाश करती थी
शत्रुओं से युद्ध करती थी
अपनी मर्जी से जिसके साथ जी चाहा
सहवास करती थी
बस एक ही अन्तर था दोनों में
वह गर्भ धारण करती थी
पर उन दिनों गर्भावस्था में
इतना समय नहीं लगता था
कुछ दिनों की ही बात होती थी।
फिर क्रमिक विकास में बन्दरों का उद्भव हुआ
तब जब हम बंदर थे
स्त्री पुरुष का भेद ज्यादा नहीं होता था
लेकिन मादा थोड़ी सी कमजोर हुई
क्योंकि अब गर्भावस्था में
ज्यादा समय लगता था
तो उसे थोड़ा ज्यादा आराम चाहिए था
मगर नर और मादा
दोनों ही भोजन की तलाश में भटकते थे
साथ साथ काम करते थे।
फिर हम चिम्पांजी बने
मादा और कमजोर हुई
गर्भावस्था में और ज्यादा समय लगने लगा
वह ज्यादा समय एक ही जगह पर बिताने लगी
नर और ज्यादा शक्तिशाली होता गया
क्रमिक विकास में।
फिर हम मानव बने
नारी को गर्भावस्था के दौरान
अब काफी ज्यादा समय घर पर रहना पड़ता था
ऊपर से बच्चों के जीवन की संभावना भी कम थी
तो ज्यादा बच्चे पैदा करने पड़ते थे
घर पर लगातार रहने से
उसके अंगो में चर्बी जमने लगी
स्तन व नितम्बों का आकार
पुरुषों से बिल्कुल अलग होने लगा
ज्यादा श्रम के काम न करने से
अंग मुलायम होते गये
और वह नर के सामने कमजोर पड़ती गई
धीरे धीरे उसका केवल एक ही काम रह गया
पुरुषों का मन बहलाना;
बदले में पुरुष अपने बल से
उसकी रक्षा करने लगे;
समय बदला,
पुरुष चाहने लगे कि एक ऐसी नारी हो
जो सिर्फ एक पुरुष के बच्चे पैदा कर सके,
इस तरह जन्म हुआ विवाह का
ताकि नारी एक ही पुरुष की होकर रह सके
और पुरुष जो चाहे कर सके,
एक दिन किसी पुरुष ने
किसी दूसरे की स्त्री के साथ
बलपूर्वक सहवास किया
अब स्त्री का पति क्या करता
इसमें नारी का कोई कसूर नहीं था
पर पुरुषों के अहम ने एक सभा बुलाई
उसमें यह नियम बनाया
कि यदि कोई स्त्री अपने पति के अलावा किसी से
मर्जी से या बिना मर्जी से
सहवास करेगी
तो वह अपवित्र हो जाएगी
उसको परलोक में भी जगह नहीं मिलेगी
उसे उसका पिता भी स्वीकार नहीं करेगा
पति और समाज तो दूर की बात है
क्योंकि पिता, पति और समाज के ठेकेदार
सब पुरुष थे
इसलिये यह नियम सर्वसम्मति से मान लिया गया
एक स्त्री ने यह पूछा
कि सहवास तो स्त्री और पुरुष दोनों के मिलन से होता है
यदि परस्त्री अपवित्र होती है
तो परपुरुष भी अपवित्र होना चाहिए
उसको भी समाज में जगह नहीं मिलनी चाहिए,
पर वह स्त्री गायब कर दी गई
उसकी लाश भी नहीं मिली किसी को
और इस तरह से बनी बलात्कार की
और स्त्री की अपवित्रता की परिभाषा
जिसके अनुसार
पुरुष कुछ भी करे मरना स्त्री को ही है।
फिर समाज में बलात्कार बढ़ने लगे
जिनका पता चल गया
उन स्त्रियों ने आत्महत्या कर ली
या वो वेश्या बना दी गईं
जी हाँ वेश्याओं का जन्म यहीं से हुआ
क्योंकि अपवित्र स्त्रियों के पास
इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचा था
और जिनका पता नहीं चला
वो जिन्दा बचीं रहीं
घुटती रहीं, कुढ़ती रहीं
पर जिन्दगी तो सबको प्यारी होती है
उनके साथ बार बार बलात्कार होता रहा
और वो जिन्दा रहने के लालच में,
चुपचाप सब सहती रहीं।
जी हाँ शारीरिक शोषण का उदय यहीं से हुआ
पुरुषों का किया धरा है सब
चिम्पांजियों और बंदरों में नर बलात्कार नहीं करते।
धीरे धीरे स्त्री के मन में डर बैठता गया
बलात्कार का
अपवित्रता का
मौत का
इतना ज्यादा
कि वो बलात्कार में मानसिक रूप से टूट जाती थी
वरना शरीर पर क्या फर्क पड़ता है
नहाया और फिर से वैसी की वैसी।
धीरे धीरे ये स्त्री को प्रताड़ित करने के लिए
पुरुषों का अस्त्र बन गया,
शारीरिक यातना झेलने की
स्त्रियों को आदत थी
गर्भावस्था झेलने के कारण,
पर मानसिक यातना वो कैसे झेलती
इसका उसे कोई अभ्यास नहीं था।
मगर मानसिक यातना झेलते झेलते
धीरे धीरे स्त्री ये बात समझने लगी
कि ये सब पुरुष का किया धरा है
उनके ही बनाये नियम हैं
और धीरे धीरे मानसिक यातना
सहन करने की शक्ति भी उसमें आने लगी
यह बात पुरुषों को बर्दाश्त नहीं हुई
फिर जन्म हुआ सामूहिक बलात्कार का
अब स्त्री ना तो छुपा सकती थी
ना शारीरिक यातना ही झेल सकती थी
और मानसिक यातना
तो इतनी होती थी
कि उसके पास दो ही रास्ते बचते थे
आत्महत्या का, या डाकू बनने का।
धीरे धीर क्रमिक विकास में
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा ही
गड्डमड्ड होने लगी
झूठ समय का मुकाबला नहीं कर पाता
वो समय की रेत में दब जाता है
केवल सच ही उसे चीर कर बाहर आ पाता है
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा
सिर्फ स्त्रियों पर ही लागू नहीं होती
यह पुरुषों पर भी लागू होती है
या फिर पवित्र और अपवित्र जैसा कुछ होता ही नहीं।
मुझे समझ में नहीं आता
पुरुष यदि इज्जत लूटता है
तो ज्यादा इज्जतदार क्यों नहीं बन जाता,
स्त्री की इज्जत उसके कुछ खास अंगों में क्यों रहती है
उसके सत्कार्यों में, उसके ज्ञान में क्यों नहीं,
बड़ी अजीब है ये इज्जत की परिभाषा
दरअसल ये पुरुष का अहंकार है
उसका अभिमान है
जो लुट जाता है
स्त्री पर कोई फर्क नहीं पड़ता
बलात्कार से केवल पुरुषों के अहं को ठेस लगती है
सदियों पुराने अहं को
जो अब उसके खून में रच बस गया है
सात साल की सजा से
या बलात्कारी को मौत देने से
कोई फायदा नहीं होगा
बलात्कार तभी बंद होंगे
जब पुरुष ये समझने लगेगा
कि बलात्कार
एक जबरन किये गये कार्य से ज्यादा कुछ नहीं होता,
और बलात्कार करके वो लड़की को सजा नहीं देता
लड़की की इज्जत नहीं लूटता
केवल अपने ही जैसे ही कुछ पुरुषों के
सदियों पुराने अहं को ठेस पहुँचाता है।
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