मेरा नन्हा गुलाब,
भँवरे की तरह,
आँगन की हर फूल पत्ती को,
छेड़ता फिरता है,
अपनी गन्धित-हँसी से,
आँगन के हर कोने को,
महकाता फिरता है,
अपनी शरारतों से
आँगन के चप्पे चप्पे में,
जान डाल देता है,
अपने तोतली वाणी से
सारे आँगन को,
गुँजा देता है,
खुशियों के खजाने से,
खुशियाँ लुटाता रहता है,
सारे घर में,
और मुझे यही चिन्ता लगी रहती है,
कहीं वह काँटों की संगति में न पड़ जाय,
कहीं काँटे न चुभ न जाएँ,
मेरे नन्हें गुलाब की पंखुड़ियों में,
क्योंकि आज कल तो,
जहरीले काँटे,
हर जगह उग आते हैं,
आँगन में भी।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शनिवार, 30 जनवरी 2010
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
मछली की तरह
एक मछली की तरह,
सारी जिन्दगी वो उसके प्रेम-जल से,
प्यास बुझाने की कोशिश करती रही,
पर उसकी प्यास नहीं बुझी,
कैसे बुझती,
वह प्रेम-जल,
कभी मछली के खून तक पहुँचा ही नहीं,
वो तो मौका मिलते ही,
पानी की तरह उसके गलफड़ों से निकलकर,
भागता रहा,
दूसरी मछलियों की तरफ।
सारी जिन्दगी वो उसके प्रेम-जल से,
प्यास बुझाने की कोशिश करती रही,
पर उसकी प्यास नहीं बुझी,
कैसे बुझती,
वह प्रेम-जल,
कभी मछली के खून तक पहुँचा ही नहीं,
वो तो मौका मिलते ही,
पानी की तरह उसके गलफड़ों से निकलकर,
भागता रहा,
दूसरी मछलियों की तरफ।
बुधवार, 27 जनवरी 2010
मजदूर
एक मजदूर,
जो दिन भर काम करता है,
चिलचिलाती धूप में,
कँपकँपाती ठंढ में,
जान की बाजी लगाकर,
वो पाता है महीने के पाँच हजार;
दिन भर वातानुकूलित कमरे में बैठकर,
थोड़ी सी स्याही,
कलम की,
और थोड़ी प्रिन्टर की,
खर्च करने वाला प्रबन्धक,
पाता है महीने का दो लाख,
ये कैसा सिस्टम है?
कभी बदलेगा भी ये?
जो दिन भर काम करता है,
चिलचिलाती धूप में,
कँपकँपाती ठंढ में,
जान की बाजी लगाकर,
वो पाता है महीने के पाँच हजार;
दिन भर वातानुकूलित कमरे में बैठकर,
थोड़ी सी स्याही,
कलम की,
और थोड़ी प्रिन्टर की,
खर्च करने वाला प्रबन्धक,
पाता है महीने का दो लाख,
ये कैसा सिस्टम है?
कभी बदलेगा भी ये?
शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
रेल की पटरियाँ
रेल की पटरियाँ चीखती हैं,
चिल्लाती हैं,
काँपती हैं,
पर रेलगाड़ी को क्या फर्क पड़ता है इससे,
उसे तो अपने रास्ते जाना है,
कौन कुचला जा रहा है,
पाँवों के नीचे,
इससे उसे क्या मतलब,
उसका दिल इन सबसे नहीं पसीजता,
और पटरियाँ तो बनाई ही गई हैं,
कुचली जाने के लिए,
यही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य है,
पर जब कभी कभी,
उनमें से एकाध विद्रोह कर बैठती है,
तो उतर जाती है रेलगाड़ी पटरी से नीचे,
और घटना राष्ट्रीय समाचार बन जाती है,
पता नही क्या जाता है रेलगाड़ी का,
पटरियों से उनका हालचाल पूछने में,
थोड़ा सा प्यार और अपनापन ही तो चाहिए उन्हें,
बदले में वो सब बता देंगी,
कौन सी पटरी कब, कहाँ टूटी है?
अपनी सारी जिन्दगी,
सारी वफादारी,
सारे कष्टों के बदले,
उन्हें क्या चाहिए,
बस थोड़ा सा प्यार और अपनापन,
क्या हम इतना भी नहीं दे सकते उन्हें।
चिल्लाती हैं,
काँपती हैं,
पर रेलगाड़ी को क्या फर्क पड़ता है इससे,
उसे तो अपने रास्ते जाना है,
कौन कुचला जा रहा है,
पाँवों के नीचे,
इससे उसे क्या मतलब,
उसका दिल इन सबसे नहीं पसीजता,
और पटरियाँ तो बनाई ही गई हैं,
कुचली जाने के लिए,
यही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य है,
पर जब कभी कभी,
उनमें से एकाध विद्रोह कर बैठती है,
तो उतर जाती है रेलगाड़ी पटरी से नीचे,
और घटना राष्ट्रीय समाचार बन जाती है,
पता नही क्या जाता है रेलगाड़ी का,
पटरियों से उनका हालचाल पूछने में,
थोड़ा सा प्यार और अपनापन ही तो चाहिए उन्हें,
बदले में वो सब बता देंगी,
कौन सी पटरी कब, कहाँ टूटी है?
अपनी सारी जिन्दगी,
सारी वफादारी,
सारे कष्टों के बदले,
उन्हें क्या चाहिए,
बस थोड़ा सा प्यार और अपनापन,
क्या हम इतना भी नहीं दे सकते उन्हें।
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
साहबगीरी के दोहे
साहब बोलें आम को, अगर भूल से नीम।
फर्ज तुम्हारा आम को, काट उगाओ नीम॥
साहब बोलें गर सखे, सोलह दूनी आठ।
सदा याद रखना उसे, बने रहेंगे ठाठ॥
साहब जब जब हँस पड़ैं, तुम भी हँस दो साथ।
बात हँसी की हो सखे, या हो दुख की बात॥
साहब को उर में धरो, जपो साब का नाम।
साहब खुश गर हो गए, बनैं बीगड़े काम॥
जय हो साहब बोलि के, सदा नवाओ माथ।
जो फल साहब दे सकें, नहीं देत रघुनाथ॥
साहब के गुण-गान से, धुलैं आप के पाप।
बाल न बाँका कर सकै, ‘विजीलेन्स’ का बाप॥
साहब को सूचित करो, हर छोटी सी बात।
काम करो या ना करो, कौन पूछने जात॥
आगे बढ़ते जाओगे, कभी न छोड़ो हाथ।
बाथरूम में भी सखे, जाओ साब के साथ॥
कितना भी तुम कर मरो, हो जाओगे फेल।
सुबह-शाम गर साब को, नहीं लगाया तेल॥
फर्ज तुम्हारा आम को, काट उगाओ नीम॥
साहब बोलें गर सखे, सोलह दूनी आठ।
सदा याद रखना उसे, बने रहेंगे ठाठ॥
साहब जब जब हँस पड़ैं, तुम भी हँस दो साथ।
बात हँसी की हो सखे, या हो दुख की बात॥
साहब को उर में धरो, जपो साब का नाम।
साहब खुश गर हो गए, बनैं बीगड़े काम॥
जय हो साहब बोलि के, सदा नवाओ माथ।
जो फल साहब दे सकें, नहीं देत रघुनाथ॥
साहब के गुण-गान से, धुलैं आप के पाप।
बाल न बाँका कर सकै, ‘विजीलेन्स’ का बाप॥
साहब को सूचित करो, हर छोटी सी बात।
काम करो या ना करो, कौन पूछने जात॥
आगे बढ़ते जाओगे, कभी न छोड़ो हाथ।
बाथरूम में भी सखे, जाओ साब के साथ॥
कितना भी तुम कर मरो, हो जाओगे फेल।
सुबह-शाम गर साब को, नहीं लगाया तेल॥
रविवार, 20 दिसंबर 2009
बाँस
एक दिन मैंने पूछा,
भाई बाँस,
तुम हो विश्व की सबसे लम्बी घास,
कैसा लगता है तुम्हें?
वो बोला क्या बताऊँ,
नीचे सारे पेड़ आपस में बातें करते हैं,
एक दूसरे के साथ खेलते हैं,
हवायें चलती हैं तो एक दूसरे को चूमते हैं,
और मैं यहाँ अकेले खड़ा-खड़ा,
जिन्दगी से तंग आ जाता हूँ,
जब मैं बड़ा होकर झुकता हूँ,
यह सोचकर कि मैं भी औरों के साथ रहूँ,
तो भरी जवानी में लोग मुझे काट ले जाते हैं,
और मैं फिर से बढ़ते लगता हूँ,
तन्हा जीने-मरने के लिये।
भाई बाँस,
तुम हो विश्व की सबसे लम्बी घास,
कैसा लगता है तुम्हें?
वो बोला क्या बताऊँ,
नीचे सारे पेड़ आपस में बातें करते हैं,
एक दूसरे के साथ खेलते हैं,
हवायें चलती हैं तो एक दूसरे को चूमते हैं,
और मैं यहाँ अकेले खड़ा-खड़ा,
जिन्दगी से तंग आ जाता हूँ,
जब मैं बड़ा होकर झुकता हूँ,
यह सोचकर कि मैं भी औरों के साथ रहूँ,
तो भरी जवानी में लोग मुझे काट ले जाते हैं,
और मैं फिर से बढ़ते लगता हूँ,
तन्हा जीने-मरने के लिये।
प्याज
प्याज! क्यों रुलाता है मुझे तू आज भी।
अब तक तो मुझे आदत पड़ जानी चाहिए थी;
बिना रोये,
तुझे बर्दाश्त करने की हिम्मत आ जानी चाहिए थी;
पर तुझमें कुछ ऐसी बात है,
कि जब जब भी तुझे काटा जाता है,
काटने वाले की आँखों में आँसू,
तू ले ही आता है;
तुझे देखकर यही लगता है,
कि सारे घाव नहीं भर पाता समय भी,
प्याज! तू रुला देता है मुझको आज भी।
अब तक तो मुझे आदत पड़ जानी चाहिए थी;
बिना रोये,
तुझे बर्दाश्त करने की हिम्मत आ जानी चाहिए थी;
पर तुझमें कुछ ऐसी बात है,
कि जब जब भी तुझे काटा जाता है,
काटने वाले की आँखों में आँसू,
तू ले ही आता है;
तुझे देखकर यही लगता है,
कि सारे घाव नहीं भर पाता समय भी,
प्याज! तू रुला देता है मुझको आज भी।
एक पगली
एक पगली घूमती है।
रास्ते में, चौराहे पर, पूरे कस्बे में,
मैले कुचैले वस्त्र, धूल भरे बाल,
काली काली चमड़ी,
महीनों से बिना नहाए,
तन-मन पर कई जगह बड़े बड़े घाव लिए,
हाथ में एक सूखी टहनी है,
जिसे वो बार-बार चूमती है,
एक पगली घूमती है।
फिर अचानक कस्बे के पुजारी को दया आई,
वो उसे कस्बे के सबसे धनवान,
पुजारी के प्रमुख जजमान,
के पास ले गया,
नहलाया, धुलाया, इत्र दिया लगाने को,
अच्छे कपड़े पहनाए, खाना दिया खाने को,
और फिर दोनों ने मिलकर,
सब वसूल किया सूद समेत,
अब जब रातों को बाग में पेड़ों की डालियाँ झूमतीं हैं,
तो लोग कहते हैं,
पेड़ों पर पगली की आत्मा घूमती है।
रास्ते में, चौराहे पर, पूरे कस्बे में,
मैले कुचैले वस्त्र, धूल भरे बाल,
काली काली चमड़ी,
महीनों से बिना नहाए,
तन-मन पर कई जगह बड़े बड़े घाव लिए,
हाथ में एक सूखी टहनी है,
जिसे वो बार-बार चूमती है,
एक पगली घूमती है।
फिर अचानक कस्बे के पुजारी को दया आई,
वो उसे कस्बे के सबसे धनवान,
पुजारी के प्रमुख जजमान,
के पास ले गया,
नहलाया, धुलाया, इत्र दिया लगाने को,
अच्छे कपड़े पहनाए, खाना दिया खाने को,
और फिर दोनों ने मिलकर,
सब वसूल किया सूद समेत,
अब जब रातों को बाग में पेड़ों की डालियाँ झूमतीं हैं,
तो लोग कहते हैं,
पेड़ों पर पगली की आत्मा घूमती है।
एक नाव
एक नाव....
डगमगाती रही, डूबती रही,
नदी शान्त खड़ी थी,
चाँद चुपचाप देख रहा था,
किनारों ने मुँह फेर लिया था,
हवायें पेड़ों के पीछे छुप गयीं थीं,
थोड़ी ही देर में,
पानी नाव में पूरी तरह भर गया,
और निश्चल हो गये नाव के हाथ-पाँव,
बेचारी नाव....
फिर सबकुछ पहले जैसा हो गया,
हवा फिर बहने लगी,
चाँद गुनगुनाने लगा,
नदी हँसने लगी,
किनारे नदी को बाँहों में भरने की कोशिश करने लगे,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो,
और नाव बेचारी कराहती हुई,
गहरे और गहरे डूबती चली गई,
पानी अपनी शक्ति पर इतराता रहा।
डगमगाती रही, डूबती रही,
नदी शान्त खड़ी थी,
चाँद चुपचाप देख रहा था,
किनारों ने मुँह फेर लिया था,
हवायें पेड़ों के पीछे छुप गयीं थीं,
थोड़ी ही देर में,
पानी नाव में पूरी तरह भर गया,
और निश्चल हो गये नाव के हाथ-पाँव,
बेचारी नाव....
फिर सबकुछ पहले जैसा हो गया,
हवा फिर बहने लगी,
चाँद गुनगुनाने लगा,
नदी हँसने लगी,
किनारे नदी को बाँहों में भरने की कोशिश करने लगे,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो,
और नाव बेचारी कराहती हुई,
गहरे और गहरे डूबती चली गई,
पानी अपनी शक्ति पर इतराता रहा।
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
यूँ ही
यूँ ही बेध्यानी में,
गुलाब की पंखुड़ी होठों में दबा ली थी,
तब पता लगा,
लोग कितनी गलत उपमा देते हैं,
कहाँ वो ठंढी, नीरस, पंखुड़ी,
कहाँ तुम्हारे वो गर्म, रसभरे होंठ,
यूँ ही एक दिन,
चाँद को ध्यान से देख लिया था,
तब जाकर पता लगा,
कि मैं कितना गलत कहता था,
कहाँ वो दागदार, निर्जन चाँद,
कहाँ तुम्हारा वो बेदाग, जीवंत चेहरा,
यूँ ही एक दिन,
चंदन का पेड़ दिख गया था,
तब पता चला, मैं कितना गलत सोचता था,
कहाँ तुम्हारा वो रेशमी, बलखाता बदन,
कहाँ ये साँपों से लिपटा, जड़, चन्दन।
गुलाब की पंखुड़ी होठों में दबा ली थी,
तब पता लगा,
लोग कितनी गलत उपमा देते हैं,
कहाँ वो ठंढी, नीरस, पंखुड़ी,
कहाँ तुम्हारे वो गर्म, रसभरे होंठ,
यूँ ही एक दिन,
चाँद को ध्यान से देख लिया था,
तब जाकर पता लगा,
कि मैं कितना गलत कहता था,
कहाँ वो दागदार, निर्जन चाँद,
कहाँ तुम्हारा वो बेदाग, जीवंत चेहरा,
यूँ ही एक दिन,
चंदन का पेड़ दिख गया था,
तब पता चला, मैं कितना गलत सोचता था,
कहाँ तुम्हारा वो रेशमी, बलखाता बदन,
कहाँ ये साँपों से लिपटा, जड़, चन्दन।
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