पास आ गया है बेहद
जब से चुनाव फिर संसद का
राजनीति की चिमनी जागी
धुँआँ उठा है नफ़रत का
आहिस्ता-आहिस्ता
सारी हवा हो रही है जहरीली
काले-काले धब्बों ने
ढँक ली है नभ की चादर नीली
वोटर बेचारा
मोहरा भर है
पूँजी की हसरत का
धर्म-जाति का शीतल जल अब
धीरे-धीरे फिर गरमाया
बढ़ती रही अगन तो
जल जायेगी मजलूमों की काया
जनता को
अनुमान नहीं है
आने वाली आफ़त का
भगवा हो या हरे रंग का
विष तो आख़िर विष होता है
नागनाथ या साँपनाथ का
मानव ही आमिष होता है
देश अखाड़ा
घर-घर कुश्ती
देख तमाशा ताक़त का
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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गुरुवार, 3 अगस्त 2023
गुरुवार, 27 अप्रैल 2023
नवगीत: नफ़रत का पौधा
महावृक्ष बनकर लहराता
नफ़रत का पौधा
पत्ते हरे फूल केसरिया
लाल-लाल फल आते
प्यास लहू की लगती जिनको
आकर यहाँ बुझाते
सबसे ज्यादा फल खाने की
चले प्रतिस्पर्द्धा
किसमें हिम्मत इसे काट दे
उठा प्रेम की आरी
इसकी रक्षा में तत्पर है
वानर सेना सारी
कैसे-कैसे काम कराये
निरी अंधश्रद्धा
पंखों वाले बीज हुये हैं
उड़-उड़ कर जायेंगे
भारत के कोने-कोने में
नफ़रत फैलायेंगे
लोग लड़ेंगे
लोग मरेंगे
रोयेगी वसुधा
रोपा इसको राजनीति ने
लेकिन खाद और पानी
वो देते जिनके घर बैठी
रक्तकमल पर लक्ष्मी
जनता मूरख समझ न पाये
यह गोरखधंधा
नफ़रत का पौधा
पत्ते हरे फूल केसरिया
लाल-लाल फल आते
प्यास लहू की लगती जिनको
आकर यहाँ बुझाते
सबसे ज्यादा फल खाने की
चले प्रतिस्पर्द्धा
किसमें हिम्मत इसे काट दे
उठा प्रेम की आरी
इसकी रक्षा में तत्पर है
वानर सेना सारी
कैसे-कैसे काम कराये
निरी अंधश्रद्धा
पंखों वाले बीज हुये हैं
उड़-उड़ कर जायेंगे
भारत के कोने-कोने में
नफ़रत फैलायेंगे
लोग लड़ेंगे
लोग मरेंगे
रोयेगी वसुधा
रोपा इसको राजनीति ने
लेकिन खाद और पानी
वो देते जिनके घर बैठी
रक्तकमल पर लक्ष्मी
जनता मूरख समझ न पाये
यह गोरखधंधा
बुधवार, 4 जनवरी 2023
नवगीत: जीवन की पतंग
प्यार किसी का बनता जब-जब
लंबी पक्की डोर
जीवन की पतंग छू लेती
तब-तब नभ का छोर
यूँ तो शत्रु बहुत हैं नभ में
इसे काटने को
तिस पर तेज हवा आती है
ध्यान बाँटने को
ऐसे पल में प्रीत जरा सा
देती है झकझोर
डोर कटी तो
अनियंत्रित हो जाने कहाँ गिरेगी
मिल जाएगी कहीं धूल में
या तरु पर लटकेगी
प्रेम डोर बिन
ये बेचारी
है बेहद कमजोर
बने संतुलन, रहे हौसला
तो सब कुछ है मुमकिन
कभी ढील देनी पड़ती तो
सख्ती के भी कुछ दिन
उड़ती बिना प्रयत्न कभी तो
लेती कभी हिलोर
मंगलवार, 20 दिसंबर 2022
नवगीत: मैना बैठी सोच रही है पिंजरे के दिल में
मैना बैठी सोच रही है
पिंजरे के दिल में
मिल जाता है दाना पानी
जीवन जीने में आसानी
सुनती सबकी बात सयानी
फिर भी होती है हैरानी
मुझसे ज्यादा ख़ुश तो
चूहा है अपने बिल में
जब तक बोले मीठा-मीठा
सबको लगती है ये सीता
जैसे ही कहती कुछ अपना
सब कहते बस चुप ही रहना
अच्छी चिड़िया नहीं बोलती
ऐसे महफ़िल में
बहुत सलाखों से टकराई
पर पिंजरे से निकल न पाई
चला न कुछ भी जादू टोना
टूट गया है पंख सलोना
जाने किसने
पिंजरे के दिल में
मिल जाता है दाना पानी
जीवन जीने में आसानी
सुनती सबकी बात सयानी
फिर भी होती है हैरानी
मुझसे ज्यादा ख़ुश तो
चूहा है अपने बिल में
जब तक बोले मीठा-मीठा
सबको लगती है ये सीता
जैसे ही कहती कुछ अपना
सब कहते बस चुप ही रहना
अच्छी चिड़िया नहीं बोलती
ऐसे महफ़िल में
बहुत सलाखों से टकराई
पर पिंजरे से निकल न पाई
चला न कुछ भी जादू टोना
टूट गया है पंख सलोना
जाने किसने
इतनी हिम्मत
भर दी बुजदिल में
सोमवार, 4 अप्रैल 2022
नवगीत : जिन्दगी जलेबी सी
जिन्दगी जलेबी सी
उलझी है
मीठी है
दुनिया की चक्की में
मैदे सा पिसना है
प्यार की नमी से
मन का खमीर उठना है
गोल-गोल घुमा रही
सूरज की
मुट्ठी है
तेल खौलता दुख का
तैर कर निकलना है
वक़्त की कड़ाही में
लाल-लाल पकना है
चाशनी सुखों की
पलकें बिछाये
बैठी है
कुरकुरा बने रहना
ज़्यादा मत डूबना
उलझन है अर्थहीन
इससे मत ऊबना
मानव के हाथ लगी
ईश्वर की
चिट्ठी है
उलझी है
मीठी है
दुनिया की चक्की में
मैदे सा पिसना है
प्यार की नमी से
मन का खमीर उठना है
गोल-गोल घुमा रही
सूरज की
मुट्ठी है
तेल खौलता दुख का
तैर कर निकलना है
वक़्त की कड़ाही में
लाल-लाल पकना है
चाशनी सुखों की
पलकें बिछाये
बैठी है
कुरकुरा बने रहना
ज़्यादा मत डूबना
उलझन है अर्थहीन
इससे मत ऊबना
मानव के हाथ लगी
ईश्वर की
चिट्ठी है
गुरुवार, 23 दिसंबर 2021
नवगीत : पानी और पारा
पूछा मैंने पानी से
क्यूँ सबको गीला कर देता है
पानी बोला
प्यार किया है
ख़ुद से भी ज़्यादा औरों से
इसीलिये चिपका रह जाता हूँ
मैं अपनों से
गैरों से
हो जाता है गीला-गीला
जो भी मुझको छू लेता है
अगर ठान लेता
मैं दिल में
पारे जैसा बन सकता था
ख़ुद में ही खोया रहता तो
किसको गीला कर सकता था?
पारा बाहर से चमचम पर
विष अन्दर-अन्दर सेता है
वो तो अच्छा है
धरती पर
नाममात्र को ही पारा है
बंद पड़ा है बोतल में वो
अपना तो ये जग सारा है
मेरा गीलापन ही है जो
जीवन की नैय्या खेता है
सोमवार, 20 दिसंबर 2021
नवगीत : रजनीगंधा
रजनीगंधा
तुम्हें विदेशी
कहे सियासत
माना पितर तुम्हारे जन्मे
सात समंदर पार
पर तुम जन्मे इस मिट्टी में
यहीं मिला घर-बार
देख रही सब
फिर क्यों करती
हवा शरारत
रंग तुम्हारा रूप तुम्हारा
लगे मोगरे सा
फिर भी तुम्हें स्वदेशी कहती
नहीं कभी पुरवा
साफ हवा में
किसने घोली
इतनी नफ़रत
बन किसान का साथी यूँ ही
खेतों में उगना
गाँव, गली, घर, नगर, डगर सब
महकाते रहना
मिट जाएगी
कर्म इत्र से
बू-ए-तोहमत
तुम्हें विदेशी
कहे सियासत
माना पितर तुम्हारे जन्मे
सात समंदर पार
पर तुम जन्मे इस मिट्टी में
यहीं मिला घर-बार
देख रही सब
फिर क्यों करती
हवा शरारत
रंग तुम्हारा रूप तुम्हारा
लगे मोगरे सा
फिर भी तुम्हें स्वदेशी कहती
नहीं कभी पुरवा
साफ हवा में
किसने घोली
इतनी नफ़रत
बन किसान का साथी यूँ ही
खेतों में उगना
गाँव, गली, घर, नगर, डगर सब
महकाते रहना
मिट जाएगी
कर्म इत्र से
बू-ए-तोहमत
शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021
नवगीत : रखें सावधानी कुहरे में
सूरज दूर गया धरती से
तापमान लुढ़का
बड़ा पारदर्शी था पानी
बना सघन कुहरा
लोभ हवा में उड़ने का
कुछ ऐसा उसे लगा
पानी जैसा परमसंत भी
संयम खो बैठा
फँसा हवा के अलख जाल में
हो त्रिशंकु लटका
आता है सबके जीवन में
एक समय ऐसा
आदर्शों से समझौता
करवा देता पैसा
किन्तु कुहासा कुछ दिन का
स्थायी साफ हवा
जैसे-जैसे सूरज ऊपर
चढ़ता जायेगा
बूँद-बूँद कर कुहरे का मन
गलता जायेगा
रखें सावधानी कुहरे में
घटे न दुर्घटना
गुरुवार, 4 नवंबर 2021
नवगीत : चमक रही कंदील
नन्हा दीपक
तम से लड़ता
चमक रही कंदील
तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें
श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील
धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा
टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील
अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता
अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील
तम से लड़ता
चमक रही कंदील
तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें
श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील
धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा
टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील
अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता
अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील
शुक्रवार, 17 सितंबर 2021
नवगीत : ऐसी ही रहना तुम
जैसी हो
अच्छी हो
ऐसी ही रहना तुम
कांटो की बगिया में
तितली सी उड़ जाना
रस्ते में पत्थर हो
नदिया सी मुड़ जाना
भँवरों की मनमानी
गुप-चुप मत सहना तुम
सांपों का डर हो तो
चिड़िया सी चिल्लाना
बाजों के पंजों में
मत आना, मत आना
जो दिल को भा जाए
उससे सब कहना तुम
सूरज की किरणों से
मत खुद को चमकाना
जुगनू ही रहना पर
अपनी किरणें पाना
बन कर मत रह जाना
सोने का गहना तुम
अच्छी हो
ऐसी ही रहना तुम
कांटो की बगिया में
तितली सी उड़ जाना
रस्ते में पत्थर हो
नदिया सी मुड़ जाना
भँवरों की मनमानी
गुप-चुप मत सहना तुम
सांपों का डर हो तो
चिड़िया सी चिल्लाना
बाजों के पंजों में
मत आना, मत आना
जो दिल को भा जाए
उससे सब कहना तुम
सूरज की किरणों से
मत खुद को चमकाना
जुगनू ही रहना पर
अपनी किरणें पाना
बन कर मत रह जाना
सोने का गहना तुम
रविवार, 27 जून 2021
नवगीत : बूढ़ा ट्रैक्टर
गड़गड़ाकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर
सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस
कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर
न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन
थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर
ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?
स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर
सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस
कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर
न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन
थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर
ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?
स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर
बुधवार, 27 नवंबर 2019
नवगीत : फुलवारी बन रहना
जब तक रहना जीवन में
फुलवारी बन रहना
पूजा बनकर मत रहना
तुम यारी बन रहना
दो दिन हो या चार दिनों का
जब तक साथ रहे
इक दूजे से सबकुछ कह दें
ऐसी बात रहे
सदा चहकती गौरैया सी
प्यारी बन रहना
फटे-पुराने रीति-रिवाजों को
न ओढ़ लेना
गली मुहल्ले का कचरा
घर में न जोड़ लेना
देवी बनकर मत रहना
तुम नारी बन रहना
गुस्सा आये तो जो चाहो
तोड़-फोड़ लेना
प्यार बहुत आये तो
ये तन-मन निचोड़ लेना
आँसू बनकर मत रहना
सिसकारी बन रहना
फुलवारी बन रहना
पूजा बनकर मत रहना
तुम यारी बन रहना
दो दिन हो या चार दिनों का
जब तक साथ रहे
इक दूजे से सबकुछ कह दें
ऐसी बात रहे
सदा चहकती गौरैया सी
प्यारी बन रहना
फटे-पुराने रीति-रिवाजों को
न ओढ़ लेना
गली मुहल्ले का कचरा
घर में न जोड़ लेना
देवी बनकर मत रहना
तुम नारी बन रहना
गुस्सा आये तो जो चाहो
तोड़-फोड़ लेना
प्यार बहुत आये तो
ये तन-मन निचोड़ लेना
आँसू बनकर मत रहना
सिसकारी बन रहना
रविवार, 3 नवंबर 2019
नवगीत : तेरा हाथ हिलाना
ट्रेन समय की
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना
तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं था
केवल तन छूकर मिट जाना
मेरा काम नहीं था
याद रहेगा तुझको
दिल पर
मेरा नाम गुदाना
तेरा तन था भूलभुलैया
तेरी आँखें रहबर
तेरे दिल तक मैं पहुँचा
पर तेरे पीछे चलकर
दिल का ताला
दिल की चाबी
दिल से दिल खुल जाना
इक दूजे के सुख-दुख बाँटे
हमने साँझ-सबेरे
अब तेरे आँसू तेरे हैं
मेरे आँसू मेरे
अब मुश्किल है
और किसी के
सुख-दुख को अपनाना
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना
तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं था
केवल तन छूकर मिट जाना
मेरा काम नहीं था
याद रहेगा तुझको
दिल पर
मेरा नाम गुदाना
तेरा तन था भूलभुलैया
तेरी आँखें रहबर
तेरे दिल तक मैं पहुँचा
पर तेरे पीछे चलकर
दिल का ताला
दिल की चाबी
दिल से दिल खुल जाना
इक दूजे के सुख-दुख बाँटे
हमने साँझ-सबेरे
अब तेरे आँसू तेरे हैं
मेरे आँसू मेरे
अब मुश्किल है
और किसी के
सुख-दुख को अपनाना
शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019
नवगीत : जाते हो बाजार पिया तो दलिया ले आना
जाते हो बाजार पिया तो
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना
आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद खाता रूखा-सूखा
यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको
लेकिन फिर भी तुम
बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया
ले आना
जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ
मजलूमों का
वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी
खूब बिका
मन का दर्द न मिट पायेगा
पर तन की ख़ातिर
थोड़ा हरा पुदीना
थोड़ी अँबिया ले आना
धर्म जीतता रहा सदा से
फिर से जीत गया
हारा है इंसान हमेशा
फिर से हार गया
दफ़्तर से थककर आते हो
छोड़ो यह सब तुम
याद रहे तो
इक साबुन की टिकिया ले आना
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना
आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद खाता रूखा-सूखा
यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको
लेकिन फिर भी तुम
बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया
ले आना
जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ
मजलूमों का
वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी
खूब बिका
मन का दर्द न मिट पायेगा
पर तन की ख़ातिर
थोड़ा हरा पुदीना
थोड़ी अँबिया ले आना
धर्म जीतता रहा सदा से
फिर से जीत गया
हारा है इंसान हमेशा
फिर से हार गया
दफ़्तर से थककर आते हो
छोड़ो यह सब तुम
याद रहे तो
इक साबुन की टिकिया ले आना
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019
मेरा पहला नवगीत संग्रह : नीम तले
मेरा पहला नवगीत संग्रह लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हो गया है। नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करके आप इसे अमेजन (www.amazon.in) से मँगा सकते हैं। इस संग्रह को लोकोदय नवलेखन सम्मान से सम्मानित किया गया है।
सोमवार, 13 फ़रवरी 2017
प्रेमगीत : बिना तुम्हारे, हे मेरी तुम, सब आधा है
बिना तुम्हारे
हे मेरी तुम
सब आधा है
सूरज आधा, चाँद अधूरा
आधे हैं ग्रह सारे
दिन हैं आधे, रातें आधी
आधे हैं सब तारे
धरती आधी
सृष्टि अधूरी
रब आधा है
आधा नगर, डगर है आधी
आधे हैं घर, आँगन
कलम अधूरी, आधा काग़ज़
आधा मेरा तन-मन
भाव अधूरे
कविता का
मतलब आधा है
फागुन आधा, मधुऋतु आधी
आया आधा सावन
आधी साँसें, आधा है दिल
आधी है घर धड़कन
जीवन आधा
पर मेरा दुख
कब आधा है?
हे मेरी तुम
सब आधा है
सूरज आधा, चाँद अधूरा
आधे हैं ग्रह सारे
दिन हैं आधे, रातें आधी
आधे हैं सब तारे
धरती आधी
सृष्टि अधूरी
रब आधा है
आधा नगर, डगर है आधी
आधे हैं घर, आँगन
कलम अधूरी, आधा काग़ज़
आधा मेरा तन-मन
भाव अधूरे
कविता का
मतलब आधा है
फागुन आधा, मधुऋतु आधी
आया आधा सावन
आधी साँसें, आधा है दिल
आधी है घर धड़कन
जीवन आधा
पर मेरा दुख
कब आधा है?
शनिवार, 14 जनवरी 2017
नवगीत : ये दुनिया है भूलभुलैया
ये दुनिया है भूलभुलैया
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की खातिर
पढ़े लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बागी घोषित कर
रंग दिया है लाल
फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुखबिर
भेड़ समझती अपने तन पर
खून पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो जून
पर पकते ही फसल भेड़िये
दाम गिरा देते
हैं कितने शातिर
ऊन मांस की ये सप्लाई
ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
सदा रहे कायम
भाँति भाँति का नशा बाँटकर
इसीलिए सारी भेड़ों को
किया हुआ बेदम
सब तो साथ भेड़ियों के हैं
तंत्र और संसद
मस्जिद और मंदिर
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की खातिर
पढ़े लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बागी घोषित कर
रंग दिया है लाल
फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुखबिर
भेड़ समझती अपने तन पर
खून पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो जून
पर पकते ही फसल भेड़िये
दाम गिरा देते
हैं कितने शातिर
ऊन मांस की ये सप्लाई
ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
सदा रहे कायम
भाँति भाँति का नशा बाँटकर
इसीलिए सारी भेड़ों को
किया हुआ बेदम
सब तो साथ भेड़ियों के हैं
तंत्र और संसद
मस्जिद और मंदिर
शनिवार, 31 दिसंबर 2016
नवगीत : नव वर्ष ऐसा हो
है यही विनती प्रभो
नव वर्ष ऐसा हो
एक डॉलर के बराबर
एक पैसा हो
ऊसरों में धान हो पैदा
रूपया दे पाव भर मैदा
हर नदी को तू रवानी दे
हर कुआँ तालाब पानी दे
लौट आए गाँव शहरों से
हों न शहरी लोग बहरों से
खूब ढोरों के लिये
चोकर व भूसा हो
कैद हो आतंक का दानव
और सब दानव, बनें मानव
ताप धरती का जरा कम हो
रेत की छाती जरा नम हो
घाव सब ओजोन के भर दो
तेल पर ना युद्ध कोई हो
साल ये भगवन! धरा पर
स्वर्ग जैसा हो
सूर्य पर विस्फोट हों धीरे
भूध्रुवों पर चोट हो धीरे
अब कहीं भूकंप ना आएँ
संलयन हम मंद कर पाएँ
अब न काले द्रव्य उलझाएँ
सब समस्याएँ सुलझ जाएँ
चाहता जो भी हृदय ये
ठीक वैसा हो
नव वर्ष ऐसा हो
एक डॉलर के बराबर
एक पैसा हो
ऊसरों में धान हो पैदा
रूपया दे पाव भर मैदा
हर नदी को तू रवानी दे
हर कुआँ तालाब पानी दे
लौट आए गाँव शहरों से
हों न शहरी लोग बहरों से
खूब ढोरों के लिये
चोकर व भूसा हो
कैद हो आतंक का दानव
और सब दानव, बनें मानव
ताप धरती का जरा कम हो
रेत की छाती जरा नम हो
घाव सब ओजोन के भर दो
तेल पर ना युद्ध कोई हो
साल ये भगवन! धरा पर
स्वर्ग जैसा हो
सूर्य पर विस्फोट हों धीरे
भूध्रुवों पर चोट हो धीरे
अब कहीं भूकंप ना आएँ
संलयन हम मंद कर पाएँ
अब न काले द्रव्य उलझाएँ
सब समस्याएँ सुलझ जाएँ
चाहता जो भी हृदय ये
ठीक वैसा हो
शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2016
नवगीत : मन का ज्योति पर्व
अंधकार भारी पड़ता जब
दीप अकेला चलता है
विश्व प्रकाशित हो जाता जब
लाखों के सँग जलता है
हैं प्रकाश कण छुपे हुये
हर मानव मन के ईंधन में
चिंगारी मिल जाये तो
भर दें उजियारा जीवन में
इसीलिए तो ज्योति पर्व से
हर अँधियारा जलता है
ज्योति बुझाने की कोशिश जब
कीट पतंगे करते हैं
जितना जोर लगाते
उतनी तेज़ी से जल मरते हैं
अंधकार के प्रेमी को
मिलती केवल असफलता है
मन का ज्योति पर्व मिलजुल कर
हम निशि दिवस मनायेंगे
कई प्रकाश वर्ष तक जग से
तम को दूर भगायेंगे
सब देखेंगे दूर खड़ा हो
हाथ अँधेरा मलता है
दीप अकेला चलता है
विश्व प्रकाशित हो जाता जब
लाखों के सँग जलता है
हैं प्रकाश कण छुपे हुये
हर मानव मन के ईंधन में
चिंगारी मिल जाये तो
भर दें उजियारा जीवन में
इसीलिए तो ज्योति पर्व से
हर अँधियारा जलता है
ज्योति बुझाने की कोशिश जब
कीट पतंगे करते हैं
जितना जोर लगाते
उतनी तेज़ी से जल मरते हैं
अंधकार के प्रेमी को
मिलती केवल असफलता है
मन का ज्योति पर्व मिलजुल कर
हम निशि दिवस मनायेंगे
कई प्रकाश वर्ष तक जग से
तम को दूर भगायेंगे
सब देखेंगे दूर खड़ा हो
हाथ अँधेरा मलता है
शनिवार, 13 अगस्त 2016
नवगीत : सब में मिट्टी है भारत की
किसको पूजूँ
किसको छोड़ूँ
सब में मिट्टी है भारत की
पीली सरसों या घास हरी
झरबेर, धतूरा, नागफनी
गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची
है फूलों में, काँटों में भी
सब ईंटें एक इमारत की
भाले, बंदूकें, तलवारें
गर इसमें उगतीं ललकारें
हल बैल उगलती यही जमीं
गाँधी, गौतम भी हुए यहीं
बाकी सब बात शरारत की
इस मिट्टी के ऐसे पुतले
जो इस मिट्टी के नहीं हुए
उनसे मिट्टी वापस ले लो
पर ऐसे सब पर मत डालो
अपनी ये नज़र हिकारत की
किसको छोड़ूँ
सब में मिट्टी है भारत की
पीली सरसों या घास हरी
झरबेर, धतूरा, नागफनी
गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची
है फूलों में, काँटों में भी
सब ईंटें एक इमारत की
भाले, बंदूकें, तलवारें
गर इसमें उगतीं ललकारें
हल बैल उगलती यही जमीं
गाँधी, गौतम भी हुए यहीं
बाकी सब बात शरारत की
इस मिट्टी के ऐसे पुतले
जो इस मिट्टी के नहीं हुए
उनसे मिट्टी वापस ले लो
पर ऐसे सब पर मत डालो
अपनी ये नज़र हिकारत की
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