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मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

गीत : पैसा, ख़तरा, ख़ून हमारा सारा लाभ तुम्हारा

पैसा, ख़तरा, ख़ून हमारा
सारा लाभ तुम्हारा

तिल तिल कर वो मरा सदा
जो रहा अछूता तुमसे
चारों खम्भे लोकतंत्र के
चरण वन्दना करते

सारी ख़बरों में बजता है
तुम्हरा ही इकतारा

नायक खलनायक अधिनायक
खेल खिलाड़ी सारे
देव, दैव, इंसान, दरिन्दे
सब हैं दास तुम्हारे

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में
गूँज रहा जयकारा

ऐसा क्या है इस दुनिया में
जिसे न तुमने जीता
साम, दाम, औ’ दंड, भेद से
फल पाया मनचीता

पूँजी तुम्हरे रामबाण से
सारा भारत हारा

सोमवार, 19 जनवरी 2015

गीत : अनपढ़ बाबा

अनपढ़ बाबा
सारे जग को
बाँट रहे हैं ज्ञान

भ्रष्टाचारी की सुख सुविधा
और गरीबों की लाचारी
पूर्वजन्म के कर्मों का फल
पाते राजा और भिखारी

सारे प्रश्नों का उत्तर वो
देते एक समान

ध्यान मग्न हो पूजा करना
दान दक्षिणा देना जम कर
व्रत उपवास हमेशा रखना
प्रभु देंगे तुमको घर भर कर

बाबा जी का गणित यही है
और यही विज्ञान

भूत भविष्य इन्हें दिखता है
सबका भाग्य बताते हैं ये
गुरु ईश्वर से भी बढ़कर है
सबको यही सिखाते हैं ये

भगवा वस्त्र पहनकर खुद को
बता रहे भगवान

सोमवार, 9 अगस्त 2010

मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

उसके साथ साथ मैं भी नौ दिन का नवरात्री व्रत रखता,
उसे साथ लेकर मैं सुबह-सवेरे मन्दिर जाया करता,
कितना धार्मिक होता मैं भी कहीं वो मेरे साथ जो होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

घर के कामों मैं साँझ-सवेरे उसका हाथ बँटाता,
थक जाती गर वो फिरतो मैं उसके सर और पाँव दबाता,
लोरी गाकर उसे सुलाता नींद नहीं यदि उसको आती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

जग की सारी सुन्दिरयों को मैं अपनी माँ बहन समझता,
उसको छोड़ किसी को मैं सपनों में भी न देखा करता,
इन्द्रासन हिल जाता इतनी कठिन तपस्या मेरी होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

उसकी छोटी से छोटी ख्वाहिश यारों मैं पूरी करता,
जग की सारी सुख-सुविधायें मैं उसके कदमों में रखता,
चाँद-सितारे लाकर देता एक बार जो वो कह देती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

सोजा मेरे सपने

सोजा मेरे सपने।

नई दुनियाँ, जमीं नई, सब खोज लीं गईं,
तू उनमें खोज दुनिया जो हैं तेरे अपने;
सोजा मेरे सपने।

तू उड़ा दूर दूर, है थक के हुआ चूर,
आ बैठ आके तू, अब पिंजरे में अपने;
सोजा मेरे सपने।

तू जानता नहीं, इस जमीं की नमीं,
संसार समेटे खुद में जाने कितने;
सोजा मेरे सपने।

जाने कब मैं वह कविता लिख पाऊँगा

जाने कब मैं वह कविता लिख पाऊँगा|

गन्धित बदन तुम्हारा जिसके छंदों में,
बँधा पड़ा हो मन्मथ जिसके बंदों में,
जिसके शब्दों में संसार हमारा हो,
भावों में जिसके बस प्यार तुम्हारा हो,
लिखकर जिसको दीवाना हो जाऊँगा।

जिसको पढ़ कर लगे छुआ तुमने मुझको,
जिसको सुनकर लगे तुम्हीं मेरी रब हो;
छूकर तेरे गम जो पल में पिघला दे,
मेरी आँखों में तेरा आँसू ला दे;
जिसको गाकर मैं तुममें घुल जाऊँगा।

रविवार, 1 अगस्त 2010

गीत विद्रोही

गीत विद्रोही, जाग! जाग!

सो गई क्रान्ति जन-गण-मन की,
जा सियासतों के किसी गाँव,
है सूख गई सच्चाई, पाकर
सुविधाओं की घनी छाँव,
उठ, बन चिंगारी, सच के
सूखे पत्तों में तू लगा आग।

सब देश प्रेम के गीत खो
गए हैं पश्चिम की आँधी में,
मर गये सभी आदर्श, कभी
जो थे पटेल में, गाँधी में,
उठ, बन कर दीपक राग, आज
सब के दिल में फिर जगा आग।

है आज जमा स्विस बैंकों में,
भारतीय किसानों का सब धन,
इन धन के ढेरों पर बैठे
इस देश-जाति के कुछ रावन,
उठ, बन कर अब तू पवनपुत्र
इनकी लंका में लगा आग।

सड़ गई, गल गई, राजनीति,
फँसकर सत्ता के फंदों में,
इस कीच-ताल का हाल नहीं
लिख पाऊँगा मैं छन्दों में,
उठ, बन कर सूरज आज नया,
तू सुखा कीच, फिर जगा आग।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर

गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर,
ऐसा कुछ हो गया, तब से सो न सका।

उसकी बातें कभी, उसकी साँसें कभी,
आसमाँ में उमड़ती-घुमड़ती रहीं,
उसकी यादों की बरसात में भीगकर,
आँखें नम तो हुईं पर मैं रो ना सका।

रातें घुटनों के बल पर घिसटतीं रही,
नींद भी यूँ ही करवट बदलती रही,
तीर लगते रहे दर्द के जिस्म पर,
मैं तड़पता रहा, चीख पर ना सका।

मेरी साँसें तो रुक रुक के चलती रहीं,
दिल की धड़कन भी थम थम धड़कती रही,
कोशिशें की बहुत मैंने पर जाने क्यों,
मौत के मुँह में जाकर भी मर न सका।

सोमवार, 28 जून 2010

मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

ना हो जादू ना चमत्कार,
ना चालबाजियों कावतार,
ना परीकथाओं के नायक;
ना रिद्धि-सिद्धि के तुम दायक,
तुम हो केवल क्रमबद्ध ज्ञान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

तुम विकसित मानव संग हुए,
भौतिकी रसायन अंग हुए,
तुमसे आडंबर भंग हुए;
सब पाखंडी-जन दंग हुए,
तुमने सच का जब दिया ज्ञान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

अस्तित्व विहीन समय जब था,
ब्रह्मांड एक लघु कण भर था,
तब तुम बनकर क्वांटम गुरुत्व,
दिखलाते थे अपना प्रभुत्व,
है नमन तुम्हें हे चिर महान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

तुमसे ही नियमों को लेकर,
प्रभु ने अपनी ऊर्जा देकर,
था रचा महाविस्फोट वहाँ,
वरना जग होता नहीं यहाँ,
है सृष्टि तुम्हारा अमर गान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

चिर नियम अनिश्चितता का दे,
ब्रह्मांड सृजन के कारक हे,
यदि नहीं अनिश्चितता होती,
हर जगह अग्नि ही बस सोती,
तुम ही से है जग प्राणवान;
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

सब बँधे तुम्हारे नियमों से
ग्रह सूर्य और सारे तारे
आकाशगंग या कृष्ण-विवर
सब फिरते नियमों में बँधकर
कुछ ज्ञात हमें, कुछ हैं अजान
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

जब मानव सब कुछ जानेगा
वह यह सच भी पहचानेगा
तुममें ईश्वर, ईश्वर में तुम
इक बिन दूजा अपूर्ण हरदम
मिलकर दोनों बनते महान
मेरे विज्ञान! प्यारे विज्ञान!

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं

ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

मैं जाग रहा हूँ, नभ को ताक रहा हूँ,
है बेशर्म चाँद ये, जाता हि नहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

करवट बदल बदल, है पीठ रही जल,
हैं तारे मुझपे हँसते, मुँह छिपा कहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

कल आ वो जाएगी, संग नींद लायेगी,
फिर कभी चाँद-तारों को देखूँगा नहीं,
पर रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

उन सबको धन्यवाद मेरा

उन सबको धन्यवाद मेरा।

दुख मुझको देकर जिस-जिस ने
है सिखा दिया गम को पीना,
मुँह मोड़, छोड़ मुझको जिसने,
है सिखा दिया तन्हा जीना;
उनको है साधुवाद मेरा।

अपमान मेरा करके जिसने,
सम्मान क्षणिक यह सिखलाया,
जिस-जिस ने हो मेरे खिलाफ,
अपनों तक मुझको पहुँचाया;
है उनको साधुवाद मेरा।

जिस जिस ने मुझे पराजित कर
अभिमान मेरा है चूर किया,
डर दिखा भविष्यत का मुझको
आलस्य मेरा है दूर किया;
उनको है साधुवाद मेरा।

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

रात भर नींद में गुनगुनाता रहा

ख्वाब में तुम मेरे आती जाती रहीं,

रात भर नींद में गुनगुनाता रहा।

 

दिन निकल ही गया फाइलों में मगर,

प्रीति की है कुछ ऐसी सनम रहगुजर,

व्यस्त जब तक था मैं, मन था बहला हुआ,

पर अकेले में ये कसमसाता रहा।

 

साँझ यादों की मधु ले के फिर आ गई,

रात तक तुम नशा बन के थीं छा गई,

यूँ तो मदहोश था, फिर भी बेहोशी में,

नाम तेरा ही मैं बड़बड़ाता रहा।

 

फिर सुबह हो गई, रात फिर सो गई,

चाय के स्वाद में, याद फिर खो गई,

जब मैं दफ्तर गया न किसी को लगा,

रात बिस्तर पे मैं छटपटाता रहा।

रविवार, 22 नवंबर 2009

ऐ ख़बर बेख़बर!

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

बुधिया लुटती रही, फुलवा घुटती रही,

तू सिनेमा, सितारों में उलझी रही,

जाके लोटी तु मंत्री के, नेता के घर,

क्या कहूँ है गिरी आज तू किस कदर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

सच को समझा नहीं, सच को जाना नहीं,

झूठ को झूठ भी तूने माना नहीं,

जो बिकी, है बनी, आज वो ही खबर,

है टँगा सत्य झूठों की दीवार पर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

भूत प्रेतों को दिन भर दिखाती रही,

लोगों का तू भविष्यत बताती रही,

आम लोगों पे क्या गुजरी है, आज, पर,

ये न आया तुझे, है कभी भी नजर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

तू थी खोजी कभी, आज मदहोश है,

थी कभी साहसी, आज बेजोश है?

बन भिखारी खड़ी है हर एक द्वार पर,

कोई दे दे कहीं चटपटी इक ख़बर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

 

उठ जगा आग तुझमें जो सोई पड़ी,

आग से आग बुझने की आई घड़ी,

काट तू गर्दन-ए-झूठ की इस कदर,

जुर्म खाता फिरे ठोकरें दर-बदर;

ऐ ख़बर बेख़बर!

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

यदि राम-कृष्ण को हम अपना आदर्श रखेंगें,

सीता-राधा के प्रश्नों का क्या उत्तर देंगें,

आओ ऐसे कुछ उच्चादर्श बदल लें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

आँखें मिलना, दिल दे देना, कुछ बातें और मुलाकातें,

फिर निरी वासना तृप्ति और अलगाव बिताकर कुछ रातें,

आओ सब मिल प्यार को पुनः परिभाषित तो कर दें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

लोकतंत्र, आम-चुनाव, राजनीति, नेता, कुर्सी,

इतने निर्दोष मरे हैं इनके कारण कि,

शब्दकोश में ऐसे कुछ शब्दों के अर्थ बदल लें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

 

इक पत्नी, इक घर, दो बच्चे, थोड़ा सा नाम कमाने को,

अपनी आत्मा से हर पग पर समझौता करना पड़ता हो,

तो आओ अब अपने जीवन लक्ष्य बदल लें हम,

आओ अब तो अपने आदर्श बदल लें हम।

हाय मेरा जीवन निःसार!

हाय मेरा जीवन निःसार!

 

बीत गया जब मेरा यौवन,

उतर गया सारा पागलपन,

फिर जब मिला वही सूनापन,

भटकने लगा फिर प्यासा मन,

तब जाकर मालूम हुआ सच क्या था मेरे यार,

मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,

हाय मेरा जीवन निःसार!

 

मैं समझा था उसके मन में,

उसके जीवन में कन-कन में,

मैं उसके नयनों में, दिल में,

प्राणों के रिलमिल-झिलमिल में,

उतर गया उसके नयनों से,

यौवन का पागलपन जब से,

नेत्रों में पहले सी ही थी प्यास प्यार की यार,

मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,

हाय मेरा जीवन निःसार!

शनिवार, 21 नवंबर 2009

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

 

तूफान भी मेरे आँगन में, मृदु झोंके सा लहराता है,

दिनकर भी नन्हें बालक सा हो मचल-मचल इठलाता है,

सागर को गागर में भरकर, अपने आँगन में रखता हूँ,

ऐसे जाने कितने त्रिभुवन, मैं रोज बनाया करता हूँ,

मतवाली हो जाओगी, यदि आँशिक भी मुझको जाना,

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

 

मैं सागर को मरूथल के वक्षस्थल में खोजा करता हूँ,

रवि के भीतर होगा हिमनिधि, अक्सर मैं सोंचा करता हूँ,

है चिता भस्म में मैंने पायी नवजीवन की चिंगारी,

हूँ देख चुका मैं मध्यरात्रि में दिनकर को कितनी बारी,

प्रेयसि मैं कवि हूँ,, घातक होगा, मुझसे प्रीत लगाना,

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

सोमवार, 16 नवंबर 2009

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

लाल-लाल फीतों में लिपटी, नई नवेली नगर वधू सी,

बाहर-भीतर चम-चम करती, देख हँसा, खुश हो, चपरासी,

बाबू ने फ़ाइल देखी, ज्यों देखे गुंडा अबला नारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

गाँधीजी के फोटो वाला कागज़ बाबू ने खोजा, पर,

नहीं मिला, तो बोला बाबू, फ़ाइल इक कोने में रखकर,

कौन बचायेगा अब तुझको, बम भोले या कृष्ण मुरारी?

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

उसके बाद बताऊँ क्या मैं, बाबू, चपरासी, साहब ने,

मिलकर उसको यों लूटा, ज्यों खाया हो मुर्दा गिद्धों ने,

फ़ाइल का मुँह काला, नीला, लाल किया फिर बारी-बारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

साहब, बाबू बदले जब-जब, फिर-फिर वह चीखी-चिल्लाई,

वर्षों बीत गये यूँ ही पर, कभी किसी को दया न आई,

जल कर ख़ाक हुई, इक दिन जब लगी आग दफ्तर में भारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

बुधवार, 11 नवंबर 2009

विद्रोहों को स्वर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जब-जब तुम बने शांतिप्रिय जन,

तब-तब लूटें तुमको दुर्जन,

हो बहुत सह चुके बन सज्जन, तुम क्रांति आज कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

हम सबकी ही मेहनत का धन,

स्विस बैंकों में धर, कर निर्धन

हमको, करते जो ऐश सखे, टुकड़े हजार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जनता है जिनसे ऊब चुकी,

सेना भी है सह खूब चुकी,

उन भारत के गद्दारों में, सब मिल कर भुस भर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जो लड़ते हैं जा संसद में,

जूतों लातों से, घूँसों से,

उन सारे लंठ गँवारों को, तुम तार तार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मैं नहीं मानता हूँ भगवन

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

तू नहीं मिला मुझको ईश्वर, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में,

मालाओं में, शिवलिंगों में, लोगों के ठाकुरद्वारों में,

मैंने देखा तुझको हँसते, नन्हें बच्चों के तन-मन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

मठ के सब सन्त-महन्तों से, हर धर्म-ग्रन्थ के खण्डों से,

मैं पूछ थका तेरा ऐड्रेस,  मौलवी-पुजारी-पण्डों से,

तब मिला नाचते इक अंधे के मंजीरे की झन-झन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

इक भूखे को दुत्कार कर,

तू पूण्य बहु अर्जित करेगा,

मूर्ति पर पय ड़ालकर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

तू चाहे जितने पाप कर,

धुल जायेंगे सब पाप पर,

गंगा में डुबकी मार कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ।

 

धर्म कहता है अगर,

लाखों धरों को तोड़कर,

मन्दिर बना दे एक तो,

तुझको मिलेगा स्वर्ग, गर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

जो धर्म के तेरे नहीं,

जन्नत मिलेगी यदि,

तू उनको मारेगा जेहाद कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

जिसको मैंने समझ देवता,

बचपन से था निसिदिन पूजा,

यूँ ही अगर अचानक निकले,

वो राक्षस से भी बदतर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

ये धर्म-स्वर्ग, ये रीति-रिवाज,

पाप-पूण्य, ये नियम-समाज,

जब एक समय की ठोकर से,

जायें सारे विश्वास बिखर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

सारे जीवन का श्रम देकर,

जो एक बनाया मैंने घर,

वह तनिक हवा के झोंके से,

हो जाता है गर तितर-बितर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

प्रथम बार चाहा दिल की,

भीतरी तहों से जिसे टूटकर,

वह निकले मूर्ति सजीव,

वासना की हे मेरे देव अगर,

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।