मैंने कहा जानवरों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे महात्मा बता दिया
अनेकानेक पुरस्कारों से मुझे लाद दिया
मैंने कहा पूँजीपतियों से जानवरों की रक्षा करो
मेरी बात किसी ने नहीं सुनी
कुछ ने तो मुझे पागल तक कह दिया
मैंने कहा इंसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम हरामखोरी का समर्थन करते हो
इंसान अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है
अपना पेट स्वयं भर सकता है
मैंने कहा बच्चों की रक्षा करो
उन्होंने कहा बच्चों की रक्षा तो स्वयं भगवान करते हैं
हम भगवान से बड़े थोड़े हैं
मैंने कहा समलैंगिकों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे समलैंगिक कह कर भगा दिया
मैंने कहा स्त्रियों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे स्त्रैण कहकर दुत्कार दिया
मैंने कहा किसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा ज्यादा मत बोलो वरना टाँग तोड़ देंगे
मैंने कहा किसानों की पूँजीपतियों से रक्षा करो
उन्होंने डंडा लेकर मुझे खदेड़ लिया
मैंने कहा दलितों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम अम्बेडकरवादी हो
वामपंथी हो, नास्तिक हो, अधर्मी हो
मैंने कहा आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम नक्सली हो
तुम्हें तो गोली मार देनी चाहिये
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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रविवार, 16 जून 2019
शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018
कविता : शून्य बटा शून्य
उसने कहा 2=3 होता है
मैंने कहा आप बिल्कुल गलत कह रहे हैं
उसने लिखा 20-20=30-30
फिर लिखा 2(10-10)=3(10-10)
फिर लिखा 2=3(10-10)/(10-10)
फिर लिखा 2=3
मैंने कहा शून्य बटा शून्य अपरिभाषित है
आपने शून्य बटा शून्य को एक मान लिया है
उसने कहा ईश्वर भी अपरिभाषित है
मगर उसे भी एक माना जाता है
मैंने कहा इस तरह तो आप हर वह बात सिद्ध कर देंगे
जो आपके फायदे की है
उसने कहा यह बात मैं जानता हूँ
तुम जानते हो
मगर जनता यह बात नहीं जानती
और तुम जनता को यह बात समझा नहीं पाओगे
इतना कहकर वह मुस्कुराया
मैं निरुत्तर हो गया।
मैंने कहा आप बिल्कुल गलत कह रहे हैं
उसने लिखा 20-20=30-30
फिर लिखा 2(10-10)=3(10-10)
फिर लिखा 2=3(10-10)/(10-10)
फिर लिखा 2=3
मैंने कहा शून्य बटा शून्य अपरिभाषित है
आपने शून्य बटा शून्य को एक मान लिया है
उसने कहा ईश्वर भी अपरिभाषित है
मगर उसे भी एक माना जाता है
मैंने कहा इस तरह तो आप हर वह बात सिद्ध कर देंगे
जो आपके फायदे की है
उसने कहा यह बात मैं जानता हूँ
तुम जानते हो
मगर जनता यह बात नहीं जानती
और तुम जनता को यह बात समझा नहीं पाओगे
इतना कहकर वह मुस्कुराया
मैं निरुत्तर हो गया।
बुधवार, 9 नवंबर 2016
कविता : हम ग्यारह हैं
हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये
दस बड़ी अजीब संख्या है
ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो
मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो
हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं
दस बड़ी अजीब संख्या है
ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो
मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो
हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं
सोमवार, 18 जुलाई 2016
कविता : तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी
तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी
जैसे धरती से मिलने आती है बारिश
जैसे सागर से मिलने आती है नदी
मिलकर मुझमें खो जाओगी
जैसे धरती में खो जाती है बारिश
जैसे सागर में खो जाती है नदी
मैं हमेशा अपनी बाहें फैलाये तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा
जैसे धरती करती है बारिश की
जैसे सागर करता है नदी की
तुमको मेरे पास आने से
कोई ताकत नहीं रोक पाएगी
जैसे अपनी तमाम ताकत और कोशिशों के बावज़ूद
सूरज नहीं रोक पाता अपनी किरणों को
जैसे धरती से मिलने आती है बारिश
जैसे सागर से मिलने आती है नदी
मिलकर मुझमें खो जाओगी
जैसे धरती में खो जाती है बारिश
जैसे सागर में खो जाती है नदी
मैं हमेशा अपनी बाहें फैलाये तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा
जैसे धरती करती है बारिश की
जैसे सागर करता है नदी की
तुमको मेरे पास आने से
कोई ताकत नहीं रोक पाएगी
जैसे अपनी तमाम ताकत और कोशिशों के बावज़ूद
सूरज नहीं रोक पाता अपनी किरणों को
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016
प्रेम (पाँच छोटी कविताएँ)
(१)
जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो नफ़रत करते हैं
बेइंतेहाँ नफ़रत
जिनमें प्रेम करने की बेइंतेहाँ क्षमता होती है
उनके पास नफ़रत करने का समय नहीं होता
जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो अपने पूर्वजों के आखिरी वंशज होते हैं
(२)
तुम्हारी आँखों के कब्जों ने
मेरे मन के दरवाजे को
तुम्हारे प्यार की चौखट से जोड़ दिया है
इस तरह हमने जाति और धर्म की दीवार के
आर पार जाने का रास्ता बना लिया है
हमारे जिस्म इस दरवाजे के दो ताले हैं
हम दोनों के होंठ इन तालों की दो जोड़ी चाबियाँ
इस तरह दोनों तालों की एक एक चाबी हम दोनों के पास है
जब जब दरवाजा खुलता है
दीवाल घड़ी बन्द पड़ जाती है
(३)
मैं तुम्हारी आँख से निकला हुआ आँसू हूँ
मुझे गिरने मत देना
जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो नफ़रत करते हैं
बेइंतेहाँ नफ़रत
जिनमें प्रेम करने की बेइंतेहाँ क्षमता होती है
उनके पास नफ़रत करने का समय नहीं होता
जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो अपने पूर्वजों के आखिरी वंशज होते हैं
(२)
तुम्हारी आँखों के कब्जों ने
मेरे मन के दरवाजे को
तुम्हारे प्यार की चौखट से जोड़ दिया है
इस तरह हमने जाति और धर्म की दीवार के
आर पार जाने का रास्ता बना लिया है
हमारे जिस्म इस दरवाजे के दो ताले हैं
हम दोनों के होंठ इन तालों की दो जोड़ी चाबियाँ
इस तरह दोनों तालों की एक एक चाबी हम दोनों के पास है
जब जब दरवाजा खुलता है
दीवाल घड़ी बन्द पड़ जाती है
(३)
मैं तुम्हारी आँख से निकला हुआ आँसू हूँ
मुझे गिरने मत देना
अपनी उँगली की पोर पर लेकर
अपने होंठों से लगा लेना
मैं तुम्हारे जीवन में नमक की कमी नहीं होने दूँगा
(४)
मैं तुम्हारी आँख में ठहरा हुआ आँसू हूँ
मुझे बाहर मत निकलने देना
मैं तुम्हारे दिल को सूखने नहीं दूँगा
प्रेम की फ़सल खारे पानी में ही उगती है
(५)
हँसते समय तुम्हारे गालों में बनने वाला गड्ढा
बिन पानी का समंदर है
जो न तो मुझे डूबोता है
न तैरकर बाहर निकलने देता है
अपने होंठों से लगा लेना
मैं तुम्हारे जीवन में नमक की कमी नहीं होने दूँगा
(४)
मैं तुम्हारी आँख में ठहरा हुआ आँसू हूँ
मुझे बाहर मत निकलने देना
मैं तुम्हारे दिल को सूखने नहीं दूँगा
प्रेम की फ़सल खारे पानी में ही उगती है
(५)
हँसते समय तुम्हारे गालों में बनने वाला गड्ढा
बिन पानी का समंदर है
जो न तो मुझे डूबोता है
न तैरकर बाहर निकलने देता है
रविवार, 17 जनवरी 2016
कविता : मेंढक और कुँआँ
हर मेंढक अपनी पसंद का कुँआँ खोजता है
मिल जाने पर उसे ही दुनिया समझने लगता है
मेढक मादा को आकर्षित करने के लिए
जोर जोर से टर्राता है
पर यह पूरा सच नहीं है
वो जोर जोर से टर्राकर
बाकी मेंढकों को अपनी ताकत का अहसास भी दिलाता है
और बाकी मेंढकों तक ये संदेश पहुँचाता है
कि उसके कुँएँ में उसकी अधीनता स्वीकार करने वाले मेंढक ही आ सकते हैं
गिरते हुए जलस्तर के कारण
कुँओं का अस्तित्व संकट में है
और संकट में है कुँएँ के मेंढकों का भविष्य
इसलिए वो जोर शोर से टर्रा रहे हैं
मैं अक्सर यह सोचकर काँप जाता हूँ
कि यदि कुँएँ के इन मेंढकों को
ब्रह्मांड की विशालता
और अपने कुँएँ की क्षुद्रता का अहसास हो गया
तो वो सबके सब सामूहिक आत्महत्या कर लेंगे
जो वाद
प्रतिवाद नहीं सह पाता
मवाद बन जाता है
समय इंतज़ार कर रहा है
घाव के फूट कर बहने का
बुधवार, 9 दिसंबर 2015
कविता : जीवन नमकीन पानी से बनता है
भावनाएँ साफ पानी से बनती हैं
तर्क पौष्टिक भोजन से
भूखे प्यासे इंसान के पास
न भावनाएँ होती हैं न तर्क
कहते हैं जल ही जीवन है
क्योंकि जीवन भावनाओं से बनता है
तर्क से किताबें बनती हैं
पत्थर भी पानी पीता है
लेकिन पत्थर रोता बहुत कम है
किन्तु जब पत्थर रोता है तो मीठे पानी के सोते फूट पड़ते हैं
प्लास्टिक पानी नहीं पीता
इसलिए प्लास्टिक रो नहीं पाता
हाँ वो ठहाका मारकर हँसता जरूर है
पानी शरीर से कभी अकेला नहीं निकलता
वो अपने साथ नमक भी ले जाता है
मैं पानी बहुत पीता हूँ
इसलिए मेरे शरीर में अक्सर नमक की कमी हो जाती है
नमक अकेला तो खाया नहीं जा सकता
इसलिए मैं काली चाय की चुस्की के साथ
चुटकी भर नमक खाता हूँ
नमक खट्टी और मीठी
दोनों यादों में घुल जाता है
नमक और पानी
भौतिक अवस्था और रासायनिक संरचना के आधार पर
बिल्कुल अलग अलग पदार्थ हैं
दोनों को बनाने वाले परमाणु अलग अलग हैं
फिर भी दोनों एक दूसरे में ऐसे घुल मिल जाते हैं
कि जीभ पर न रखें तो पता ही न चले
कि पानी में नमक घुला है
मिठास पर पलते हैं इंसानियत के दुश्मन
नमकीन पानी नष्ट कर देता है
इंसानियत के दुश्मनों को
ज़्यादा पानी और ज़्यादा नमक
शरीर बाहर निकाल देता है
पर मीठा शरीर के भीतर इकट्ठा होता रहता है
पहले चर्बी बनकर फिर ज़हर बनकर
पहली बार जीवन नमकीन पानी में बना था
इसलिए जीवन अब हमेशा नमकीन पानी से बनता है
तर्क पौष्टिक भोजन से
भूखे प्यासे इंसान के पास
न भावनाएँ होती हैं न तर्क
कहते हैं जल ही जीवन है
क्योंकि जीवन भावनाओं से बनता है
तर्क से किताबें बनती हैं
पत्थर भी पानी पीता है
लेकिन पत्थर रोता बहुत कम है
किन्तु जब पत्थर रोता है तो मीठे पानी के सोते फूट पड़ते हैं
प्लास्टिक पानी नहीं पीता
इसलिए प्लास्टिक रो नहीं पाता
हाँ वो ठहाका मारकर हँसता जरूर है
पानी शरीर से कभी अकेला नहीं निकलता
वो अपने साथ नमक भी ले जाता है
मैं पानी बहुत पीता हूँ
इसलिए मेरे शरीर में अक्सर नमक की कमी हो जाती है
नमक अकेला तो खाया नहीं जा सकता
इसलिए मैं काली चाय की चुस्की के साथ
चुटकी भर नमक खाता हूँ
नमक खट्टी और मीठी
दोनों यादों में घुल जाता है
नमक और पानी
भौतिक अवस्था और रासायनिक संरचना के आधार पर
बिल्कुल अलग अलग पदार्थ हैं
दोनों को बनाने वाले परमाणु अलग अलग हैं
फिर भी दोनों एक दूसरे में ऐसे घुल मिल जाते हैं
कि जीभ पर न रखें तो पता ही न चले
कि पानी में नमक घुला है
मिठास पर पलते हैं इंसानियत के दुश्मन
नमकीन पानी नष्ट कर देता है
इंसानियत के दुश्मनों को
ज़्यादा पानी और ज़्यादा नमक
शरीर बाहर निकाल देता है
पर मीठा शरीर के भीतर इकट्ठा होता रहता है
पहले चर्बी बनकर फिर ज़हर बनकर
पहली बार जीवन नमकीन पानी में बना था
इसलिए जीवन अब हमेशा नमकीन पानी से बनता है
शनिवार, 12 सितंबर 2015
कविता : राजधानी में ब्लैक होल
देशों की चमचमाती हुई राजधानियाँ
हर आकाशगंगा के केन्द्र में
बैठा हुआ एक ब्लैक होल
किसी गाँव के सूरज से करोड़ों गुना बड़ा
अपने आसपास मौजूद तारों को
अपने इशारों पर नचाता हुआ
उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है
फिर भी वो अपने चारों तरफ रचता है चमचमाता हुआ प्रभामंडल
उन तारों के प्रकाश को विकृत करके
जो उससे दूर, बहुत दूर होते हैं
ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता
है
जिसके अनुसार किसी बंद व्यवस्था की सम्पूर्ण अराजकता
हमेशा बढ़ती है
ब्लैक होल
दुनिया की सबसे अराजक व्यवस्था है
फिर भी ये बाहर से देखने पर
ब्रह्मांड की सबसे शालीन व्यवस्था लगती है
क्योंकि इसे अपना बाहरी तापमान नियंत्रित रखना आता है
ये सूचनाएँ नष्ट तो नहीं कर सकता
लेकिन सूचना के अधिकार से प्राप्त सूचनाओं से
इसके भीतर की कोई भी जानकारी
बाहर नहीं आ सकती
लेकिन मैं निराश नहीं हूँ
मुझे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन
हम दिक्काल में सुरंगें बनाकर
इसके भीतर भरी जानकारियाँ
बाहर ले ही आएँगें
भले ही ऐसा होने पर
व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा जड़ से उखड़ जाय
अँधेरे में किया गया विश्वास भी
आख़िर अंधविश्वास ही होता है
रविवार, 16 अगस्त 2015
कविता : बाज़ और कबूतर
संभव नहीं है ऐसी दुनिया
जिसमें ढेर सारे बाज़ हों और चंद कबूतर
बाज़ों को जिन्दा रहने के लिए
ज़रूरत पड़ती है ढेर सारे कबूतरों की
बाज ख़ुद बचे रहें
इसलिए वो कबूतरों को जिन्दा रखते हैं
उतने ही कबूतरों को
जितनों का विद्रोह कुचलने की क्षमता उनके पास हो
कभी कोई बाज़ किसी कबूतर को दाना पानी देता मिले
तो ये मत समझिएगा कि उस बाज़ का हृदय परिवर्तन हो गया है
क्षेपक:
यहाँ यह बता देना भी जरूरी है
कि कबूतरों को जिन्दा रहने के लिए बाज़ों की कोई ज़रूरत
नहीं होती
मंगलवार, 12 मई 2015
कविता : प्रेम (सात छोटी कविताएँ)
(१)
तुम्हारा शरीर
रेशम से बुना हुआ
सबसे मुलायम स्वेटर है
मेरा प्यार उस सिरे की तलाश
है
जिसे पकड़कर खींचने पर
तुम्हारा शरीर धीरे धीरे अस्तित्वहीन
हो जाएगा
और मिल सकेंगे हमारे प्राण
(२)
तुम्हारे होंठ
ओलों की तरह गिरते हैं मेरे
बदन पर
जहाँ जहाँ छूते हैं
ठंडक और दर्द का अहसास एक साथ
होता है
फिर तुम्हारे प्यार की
माइक्रोवेव
इतनी तेजी से गर्म करती है मेरा
ख़ून
कि मेरा अस्तित्व कार की
विंडस्क्रीन की तरह
एक पल में टूटकर बिखर जाता है
(३)
तुम्हारे प्यार की बारिश
मेरे आसपास के वातावरण में ही
नहीं
मेरे फेफड़ों में भी नमी की
मात्रा बढ़ा देती है
हरा रंग बगीचे में ही नहीं
मेरी आँखों में भी उग आता है
कविताएँ कागज़ पर ही नहीं
मेरी त्वचा पर भी उभरने लगती
हैं
बूदों की चोट तुम्हारे
मुक्कों जैसी है
मेरा तन मन भीतर तक गुदगुदा
उठता है
(४)
तुम्हारा प्यार
विकिरण की तरह समा जाता है
मुझमें
और बदल देता है मेरी आत्मा की
संरचना
आत्मा को कैंसर नहीं होता
(५)
प्यार में
मेरे शरीर का हार्मोन
तुम्हारे शरीर में बनता है
और तुम्हारे शरीर का हार्मोन
मेरे शरीर में
इस तरह न तुम स्त्री रह जाती
हो
न मैं पुरुष
हम दोनों प्रेमी बन जाते हैं
(६)
पहली बारिश में
हवा अपनी अशुद्धियों को भी मिला
देती है
प्रेम की पहली बारिश में मत
भीगना
उसे दिल की खिड़की खोलकर देखना
जी भर जाने तक
आँख भर आने तक
(७)
प्रेम अगर शराब नहीं है
तो गंगाजल भी नहीं है
प्रेम इन दोनों का सही अनुपात
है
जो पीनेवाले की सहनशीलता पर
निर्भर है
मंगलवार, 6 जनवरी 2015
कविता : तुम्हारे प्रेम के बिना
चित्र : चुम्बन (पाब्लो पिकासो)
हमारे होंठ हमारा प्यार हैं
खाते समय कभी न कभी
होंठ कट ही जाते हैं
शुक्र है कि लार
में जीवित नहीं रह पाते सड़न पैदा करने वाले विषाणु
इसलिए होंठों पर लगे घाव जल्दी भर जाते हैं
क्रमिक विकास में
हमने
होंठों को बचा कर
रखना सीख लिया है
कितनी सारी ग़ज़लें
जबरन कहे गए मत्ले के साथ जीती हैं
कितने सारे मत्ले
भर्ती के अश’आर संग निबाहते हैं
मुकम्मल ग़ज़लें
दुनियाँ में होती ही कितनी हैं
हमारा प्यार
मुकम्मल ग़ज़ल हो
मैंने इतनी बड़ी
ख़्वाहिश कभी नहीं की
बस एक शे’र ऐसा हो
जिसे दुनिया अपने
दिल-ओ-दिमाग से निकाल न
सके
जिसका मिसरा-ए-ऊला मैं होऊँ और
मिसरा-ए-सानी तुम
तुम्हारा जिस्म एक
भूलभुलैया है
हर बार तुम्हारी
आत्मा तक पहुँचते पहुँचते मैं राह भटक जाता हूँ
तुम्हारे हाथों पर
किसी और की लगाई मेरे नाम की मेंहदी नहीं हूँ मैं
जिसे चार कपड़े और
चार बर्तन, चार दिन में हमेशा के लिए मिटा देंगे
मैं तुम्हारी आत्मा
की तलाश में निकला वो मुसाफिर हूँ
जो कभी अपनी मंजिल
तक नहीं पहुँच पाएगा
लेकिन ये जानते हुए
भी तुम्हारी आत्मा हमेशा जिसका इंतजार करेगी
तुमको छू कर आता
हुआ प्रकाश
मेरी आँख का पानी
है
बादल आँसू बहाते
हैं और रेगिस्तान रोता है
रोने वालों की
आँखें अक्सर सूखी रहती हैं
आँसू बहाने वाले
अक्सर रोते नहीं
तुमको सोते हुए
देखना
तुममें घुलना है
कपड़े तुम्हारे जिस्म से उतरते ही मर जाते
हैं
साँस तुम्हारे जिस्म से निकलते ही भभक
उठती है
चूड़ियाँ तुम्हारे हाथों से निकलकर गूँगी
हो जाती हैं
तुम गहने पहनना छोड़ दो तो क्या इस्तेमाल
रह जाएगा अनमोल पत्थरों का
तुम न होती तो पुरुष अपने झूठे अहंकार के
लिए लड़ भिड़ कर कब का खत्म हो गए होते
तुम्हारे छूने भर से बेजुबान चीजें
गुनगुनाने लगती हैं
जीवन तुम्हारी छुवन में है
ईश्वर तक पहुँचने
के रास्ते का एकमात्र द्वार तुम्हारे दिल में है
तुम्हारे दिल तक पहुँचने के रास्ते में ढेर सारे मंदिर,
मस्जिद,
धर्मग्रंथ,
धर्मगुरु
“ईश्वर
ले लो, ईश्वर
ले लो, सस्ता
सुंदर और टिकाऊ ईश्वर ले लो” की आवाज लगाते रहते हैं
“नारी
नरक का द्वार है” मानव इतिहास का सबसे भयानक झूठ
है
हर शिव ये जानता है
कि कामदेव के बिना सृष्टि का चलना असंभव है
किंतु हर शिव
कामदेव को भस्म करने का नाटक रचता है
परिणाम?
कामदेव अदृश्य और
अजेय हो कर वापस आता है
एक गाँव में किसी
घर के पिछवाड़े एक कुआँ था। न जाने कौन घर की चीजें जैसे कपड़े, खाना
इत्यादि ले जाकर कुएँ में डाल देता था। सब खोज खोजकर
हार गए लेकिन कारण का पता नहीं चला। अंत में सबने मान लिया कि उस कुएँ में कोई भूत
रहता है। कई भूत भगाने वाले बुलाये गये पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। कुछ सालों बाद
घरवालों ने वो कुआँ ही बंद करवा दिया। ये प्रेत कथा उस गाँव के लोग तरह तरह से
सुनते सुनाते थे और बच्चों को डराते थे। पर उस गाँव की एक औरत ऐसी थी जो इस
कहानी का सच जानती थी। दर’असल जिस
घर के पिछवाड़े वो कुआँ था उस घर की एक लड़की
गाँव के ही एक लड़के से प्रेम करती थी। जब घर वालों को पता चला तो उन्होंने
लड़की का घर से निकलना बंद करवा दिया और लड़के को बहुत मारा पीटा। लेकिन प्रेम फिर भी बढ़ता
गया और उसके साथ ही बढ़ते गए घर वालों के अत्याचार। तंग आकर लड़की ने उसी कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी। लड़की की माँ को लगता
था कि अकाल मृत्यु मरने के कारण उसकी बेटी की आत्मा कुएँ में भटकती रहती है इसलिए
वो सबसे छुपाकर उसके लिए जब तब कपड़े, खाना और अन्य जरूरत के सामान उस कुएँ में
डाल आती थी।
प्रेत कथाएँ दर’असल विकृत प्रेम कथाएँ है। प्रेत कथाओं पर यकीन मत करना।
जैसे नाभिक का सारा
आकर्षण अर्थहीन है इलेक्ट्रान के बिना
जैसे सूर्य का सारा
प्रकाश बेमतलब है धरती के बिना
जैसे ये ब्रह्मांड
निरर्थक है इंसान के बिना
वैसे ही मेरे होने
का कोई मतलब नहीं है
तुम्हारे प्रेम
के बिना
सोमवार, 1 दिसंबर 2014
कविता : आग
प्रकाश केवल त्वचा ही दिखा सकता है
आग त्वचा को जलाकर दिखा सकती है भीतर का मांस
मांस को जलाकर दिखा सकती है भीतर की हड्डियाँ
और हड्डियों को भस्म कर दिखा सकती है
शरीर की नश्वरता
आग सारे भ्रम दूर कर देती है
आग परवाह नहीं करती कि जो सच वो सामने ला रही है
वो नंगा है, कड़वा है, बदसूरत है या घिनौना है
इसलिए चेतना सदा आग से डरती रही है
आग को छूट दे दी जाय
तो ये कुछ ही समय में मिटा सकती है
अमीर और गरीब के बीच का अंतर
आग के विरुद्ध सब पहले इकट्ठा होते हैं
घरवाले
फिर मुहल्लेवाले
और कोशिश करते हैं कि पानी डालकर कम कर दें आग का
तापमान
या काट दें प्राणवायु से इसका संबंध
आग यदि सही तापमान पर पहुँच जाय
तो सृष्टि को रचने वाले चार स्वतंत्र बलों की तरह
लोकतंत्र के चारों खम्भे भी इसके विरुद्ध इकट्ठे हो
जाते हैं
गरीब आग से डरते हैं
पूँजीपति और राजनेता आग का इस्तेमाल करते हैं
सबसे पुराने वेद की सबसे पहली ऋचा ने
आग की वंदना की
ताकि वो शांत रहे
जिससे धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज पनप सकें
और इस तरह बाँटा जा सके मनुष्य को मनुष्य से
सूरज की आग ने करोड़ों वर्षों में गढ़ा है मनुष्य को
जब तक आग रहेगी मनुष्य रहेगा
आग बुझ गई तो धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज
मिलकर भी बचा नहीं पाएँगें मनुष्य को
धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज को
सबसे ज्यादा डर बच्चों से लगता है
क्योंकि बच्चे आग से नहीं डरते
बच्चे ही बचा सकते हैं इंसानियत को
धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज से
मनुष्य को मशीन हो जाने से
क्योंकि ब्रह्मांड में केवल बच्चे ही हैं
जो आग से खेल सकते हैं
बुधवार, 29 अक्टूबर 2014
कविता : शहरी साँप
शहर में पैदा हुआ और पला बढ़ा साँप
इस दुनिया का सबसे खतरनाक प्राणी है
इसे बचपन से ही आसानी से मिलने लगते हैं
झुग्गियों में ठुँसे हुए चूहे
फुटपाथ पर सोये हुए परिन्दे
छोटे छोटे घरों में बसे खरगोश
और खुद से कमजोर साँप
इन सबको जी भरकर खाते खाते
इसका पेट और इस इसकी ख़ुराक
दोनों दिन-ब-दिन बढ़ते चलते जाते हैं
खा खाकर ये लगातार लम्बा और मोटा होता चला जाता है
इसकी त्वचा दिन-ब-दिन चमकदार होती जाती है
और दिल-ओ-दिमाग लगातार ठंडे होते
जाते हैं
लेकिन शहर जैसी भीड़भाड़ वाली जगह
इसके बढ़ते आकार और बढ़ती भूख के कारण
इसके लिए धीरे धीरे असुरक्षित होने लगती है
शहर के तेज तर्रार नेवलों और बाजों से बचने के लिए
ये भागता है जंगलों, नदियों और पहाड़ों की तरफ
जहाँ इसका जहर
हरे भरे जंगलों को झुलसा देता है
नदियों का पानी जहरीला बना देता है
बड़ी बड़ी चट्टानों को भी गला देता है
इस तरह सीधे सादे जंगलों, नदियों और पहाड़ों का शोषण
करके
उन्हें दिन-ब-दिन नष्ट करता जाता है
गाँवों में भी साँप कम नहीं होते
पर उन्हें आसानी से कभी नहीं मिलता अपना भोजन
उनका आकार और उनकी ख़ुराक
दोनों घटते बढ़ते रहते हैं
इसलिए उनमें इतना जहर कभी नहीं बनता
कि वो जंगलों, नदियों और पहाड़ों को ज्यादा नुकसान पहुँचा सकें
शहर का साँप उन्हें या तो खा जाता है
या अपने शरीर का हिस्सा बना लेता है
अंत में शहरी साँप अपने कुल देवता का विशाल मंदिर बनवाता है
और हर साल उनपर सोने का छत्र चढ़ाता है
इस तरह शहरी साँप ये निश्चित करता है
कि चूहे, परिन्दे, खरगोश, छोटे साँप, जंगल, नदी और पहाड़
स्वर्ग में भी आसानी से मिल सकें
अब जबकि इस लोकतंत्र में
सर्पयज्ञ पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है
शहरी साँप अजेय है
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