पास आ गया है बेहद
जब से चुनाव फिर संसद का
राजनीति की चिमनी जागी
धुँआँ उठा है नफ़रत का
आहिस्ता-आहिस्ता
सारी हवा हो रही है जहरीली
काले-काले धब्बों ने
ढँक ली है नभ की चादर नीली
वोटर बेचारा
मोहरा भर है
पूँजी की हसरत का
धर्म-जाति का शीतल जल अब
धीरे-धीरे फिर गरमाया
बढ़ती रही अगन तो
जल जायेगी मजलूमों की काया
जनता को
अनुमान नहीं है
आने वाली आफ़त का
भगवा हो या हरे रंग का
विष तो आख़िर विष होता है
नागनाथ या साँपनाथ का
मानव ही आमिष होता है
देश अखाड़ा
घर-घर कुश्ती
देख तमाशा ताक़त का
सारा तमाशा ताकत का ही तो है । सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंवाह बहुत ही सुन्दर सार्थक समसामयिक चिंतन परक नवगीत
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंसार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभगवा हो या हरे रंग का
जवाब देंहटाएंविष तो आख़िर विष होता है
शानदार
आभार
बहुत बहुत धन्यवाद
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