गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

नवगीत : पानी और पारा


पूछा मैंने पानी से
क्यूँ सबको गीला कर देता है

पानी बोला
प्यार किया है
ख़ुद से भी ज़्यादा औरों से
इसीलिये चिपका रह जाता हूँ
मैं अपनों से
गैरों से

हो जाता है गीला-गीला
जो भी मुझको छू लेता है

अगर ठान लेता
मैं दिल में
पारे जैसा बन सकता था
ख़ुद में ही खोया रहता तो
किसको गीला कर सकता था?

पारा बाहर से चमचम पर
विष अन्दर-अन्दर सेता है

वो तो अच्छा है
धरती पर
नाममात्र को ही पारा है
बंद पड़ा है बोतल में वो
अपना तो ये जग सारा है

मेरा गीलापन ही है जो
जीवन की नैय्या खेता है

14 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ दिसंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन।
    सराहनीय।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. अगर ठान लेता
    मैं दिल में
    पारे जैसा बन सकता था
    ख़ुद में ही खोया रहता तो
    किसको गीला कर सकता था?

    बहुत ही बेहतरीन बात कही!
    उम्दा सृजन आदरणीय सर!

    जवाब देंहटाएं

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