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उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
दुबारा स्नेह भर दें हम बस इतना चाहते दीपक
हैं जिनके कर्म काले, वो अँधेरे के मुहाफ़िज़ हैं
सब उजले कर्म वाले जल रहे बन शाम से दीपक
दिये का कर्म है जलना दिये का धर्म है जलना
तुफानी रात में ये सोचकर हैं जागते दीपक
अगर बढ़ता रहा यूँ ही अँधेरा जीत जाएगा
उजाले के मुहाफिज हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक
इन्हें समझाइये इनसे बनी सरहद उजाले की
बुझे कल दीप इतने हो गये हैं अनमने दीपक
अँधेरे से तो लड़ लेंगे मगर प्रभु जी सदा हमको
बचाना ब्लैक होलों से यही वर माँगते दीपक
जलाने में पराये दीप तुम तो बुझ गये ‘सज्जन’
तुम्हारी लौ लिये दिल में जले सौ-सौ नये दीपक
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंलाजवाब गज़ल धर्मेन्द्र जी ...
जवाब देंहटाएंफिर से पढने मिएँ आनंद दुगन हो जाता है ...
बहुत शुभकामनायें ...
बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंसज्जन जी, क्या बात है ! अति उत्तम गज़ल ! कल्पना की अद्भुत उड़ान से विभिन्न आयामों की सैर करवाती हुई मानस पटल पर एक अमिट छाप छोड़ गई ! हार्दिक बधाई !कृपया अपना फोन # दीजिए-चरनजीत लाल, मेटलर्जिकल इंजीनियर,यू.एस.ए.E-mail: [email protected]
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