गड़गड़ाकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर
सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस
कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर
न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन
थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर
ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?
स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।