रविवार, 7 अप्रैल 2019

ग़ज़ल: अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
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अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या
बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

हम सबके भीतर सोई जो मानवता उसको
कस कर पकड़ो और झिंझोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

खर पतवार जहाँ है दिल के उन सब कोनों को
अपने तर्कों से तुम गोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

आग उगलने लगी सियासत जलते हैं मासूम
मिल जुलकर इसका मुँह तोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

सच लेकर तुम पूँजी, सत्ता से टकराओगे?
‘सज्जन’ जी अपना रुख मोड़ो कोई ग़ज़ल कहो