बह्र : फायलातुन फायलातुन फायलातुन फायलुन
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जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे।
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे।
ज़िंदगी के बोझ से हम झुक गये थे क्या ज़रा,
लाट साहब को निरे टट्टू नज़र आने लगे।
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में,
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे।
कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ,
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे।
शीघ्र ही करवाइये उपचार अपना यदि कभी,
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
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रविवार, 18 जून 2017
शनिवार, 10 जून 2017
ग़ज़ल : मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।
लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।
कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।
रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।
करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।
लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।
कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।
रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।
करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।