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सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

ग़ज़ल : उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

एल ई डी की क़तारें सामने हैं
बचे बस चंद मिट्टी के दिये हैं

दुआ सब ने चराग़ों के लिए की
फले क्यूँ रोशनी के झुनझुने हैं

रखो श्रद्धा न देखो कुछ न पूछो
अँधेरे के ये सारे पैंतरे हैं

अँधेरा दूर होगा तब दिखेगा
सभी बदनाम सच इसमें छुपे हैं

उजाला शुद्ध हो तो श्वेत होगा
वगरना रंग हम पहचानते हैं

करेंगे एक दिन वो भी उजाला
अभी केवल धुआँ जो दे रहे हैं

न अब तमशूल श्री को चुभ सकेगा
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2016

नवगीत : मन का ज्योति पर्व

अंधकार भारी पड़ता जब
दीप अकेला चलता है
विश्व प्रकाशित हो जाता जब
लाखों के सँग जलता है

हैं प्रकाश कण छुपे हुये
हर मानव मन के ईंधन में
चिंगारी मिल जाये तो
भर दें उजियारा जीवन में

इसीलिए तो ज्योति पर्व से
हर अँधियारा जलता है

ज्योति बुझाने की कोशिश जब
कीट पतंगे करते हैं
जितना जोर लगाते
उतनी तेज़ी से जल मरते हैं

अंधकार के प्रेमी को
मिलती केवल असफलता है

मन का ज्योति पर्व मिलजुल कर
हम निशि दिवस मनायेंगे
कई प्रकाश वर्ष तक जग से
तम को दूर भगायेंगे

सब देखेंगे दूर खड़ा हो
हाथ अँधेरा मलता है

रविवार, 23 अक्टूबर 2016

लघुकथा : जनकवि

झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”

कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”

झील बोली, “मेरा निजी लाभ तो कुछ नहीं है। पर मैं नीचे की तरफ बहती तो स्तर भले ही गिर जाता लेकिन मेरा पानी साफ हो जाता और ये इंसानों और जानवरों के बहुत काम आता। इससे धरती के नीचे का जलस्तर भी बढ़ जाता तथा मैं जिस ज़मीन से होकर मैं बहती उसे भी उपजाऊ बना देती।”

कवि बोला, “फिर भी स्तर तो तुम्हारा गिरता ही, बढ़ता तो नहीं न।”

झील मुस्कुराकर बोली, “गिरते गिरते एक दिन सागर तक पहुँचती। सूरज से युद्ध करती और इस युद्ध के कारण उत्पन्न ऊर्जा से भाप बनकर ऊपर उठती तथा बादल बनकर हवाओं की मदद से आसमान को छू लेती । पर मैं तो कैद हूँ, ऐसा नहीं कर सकती। लेकिन सुनो, तुम तो आज़ाद हो न।”

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

ग़ज़ल : दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ
एक तो जह्र तिस पे मीठा है

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं
सच बड़ा गर्म और तीखा है

देखिए बैल बन गये हैं हम
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है

सब को उल्लू बना दे जो पल में
ये ज़माना मियाँ उसी का है

अब छुपाने से छुप न पायेगा
जख़्म दिल तक गया है, गहरा है

आज नेता भी बन गया ‘सज्जन’
कुछ न करने का ये नतीज़ा है

बुधवार, 12 अक्टूबर 2016

ग़ज़ल : क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे

डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा
भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे

सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे

ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे

सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे

सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

ग़ज़ल : मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं

आइने से मिला तो ये पाया
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं

फ़ेसबुक पर मुझे लगा ऐसा
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं

अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’
क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं