बह्र : २२ २२ २२ २२ सब खाते हैं इक बोता है ऐसा फल अच्छा होता है पूँजीपतियों के पापों को कोई तो छुपकर धोता है इक दुनिया अलग दिखी उसको जिसने भी मारा गोता है हर खेत सुनहरे सपनों का झूठे वादों ने जोता है महसूस करे जो जितना, वो, उतना ही ज़्यादा रोता है मेरे दिल का बच्चा जाकर यादों की छत पर सोता है भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’ सच्चा तो केवल तोता है |
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
मंगलवार, 30 अगस्त 2016
ग़ज़ल : ऐसा फल अच्छा होता है
गुरुवार, 25 अगस्त 2016
ग़ज़ल : आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
बह्र : 212 1222 212 1222
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने गर लगे कहीं ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने गर लगे कहीं ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै
शनिवार, 13 अगस्त 2016
नवगीत : सब में मिट्टी है भारत की
किसको पूजूँ
किसको छोड़ूँ
सब में मिट्टी है भारत की
पीली सरसों या घास हरी
झरबेर, धतूरा, नागफनी
गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची
है फूलों में, काँटों में भी
सब ईंटें एक इमारत की
भाले, बंदूकें, तलवारें
गर इसमें उगतीं ललकारें
हल बैल उगलती यही जमीं
गाँधी, गौतम भी हुए यहीं
बाकी सब बात शरारत की
इस मिट्टी के ऐसे पुतले
जो इस मिट्टी के नहीं हुए
उनसे मिट्टी वापस ले लो
पर ऐसे सब पर मत डालो
अपनी ये नज़र हिकारत की
किसको छोड़ूँ
सब में मिट्टी है भारत की
पीली सरसों या घास हरी
झरबेर, धतूरा, नागफनी
गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची
है फूलों में, काँटों में भी
सब ईंटें एक इमारत की
भाले, बंदूकें, तलवारें
गर इसमें उगतीं ललकारें
हल बैल उगलती यही जमीं
गाँधी, गौतम भी हुए यहीं
बाकी सब बात शरारत की
इस मिट्टी के ऐसे पुतले
जो इस मिट्टी के नहीं हुए
उनसे मिट्टी वापस ले लो
पर ऐसे सब पर मत डालो
अपनी ये नज़र हिकारत की
गुरुवार, 11 अगस्त 2016
ग़ज़ल : तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
बह्र : 22 22 22 22 22 22
तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम
दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है
शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम
सिक्का यदि बढ़वाना चाहे अपनी कीमत
झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम
नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की
फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम
पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं हम
शुद्ध नहीं, भाषा को गन्दा कर देते हैं
टाई को जब कंठलँगोट बनाते हैं हम
तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम
दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है
शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम
सिक्का यदि बढ़वाना चाहे अपनी कीमत
झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम
नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की
फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम
पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं हम
शुद्ध नहीं, भाषा को गन्दा कर देते हैं
टाई को जब कंठलँगोट बनाते हैं हम
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