बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२
नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम
उदर की राह से धमनी में आ गई हो तुम
मेरे दिमाग से दिल में उतर तो आई हो
महल को छोड़ के झुग्गी में आ गई हो तुम
ज़रा सी पी के ही तन मन नशे में झूम उठा
कसम से आज तो पानी में आ गई हो तुम
हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी
लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम
बदन पिघल के मेरा बह रहा सनम ऐसे
ज्यूँ अब के बार की गर्मी में आ गई हो तुम
चमक वही, वो गरजना, तुरंत ही बारिश
खफ़ा हुई तो ज्यूँ बदली में आ गई हो तुम
आप सभी को अंतरास्ट्रीय महिला दिवस की ढेरों शुभकामनाएँ !!
जवाब देंहटाएंआपको भी
हटाएंअच्छी ग़ज़ल हुयी है धर्मेन्द्र जी!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विवेक जी
हटाएंवाह .... कमाल की ग़ज़ल ... पत्नी जैसे साक्षात उतर आई है शब्दों में ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया नास्वा जी
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