बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२
मेरी नाव का बस यही है फ़साना
जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना
सनम को जिताना तो आसान है पर
बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना
न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी
था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना
बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना
कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे
सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना
ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
अच्छी बहर में लाजवाब ग़ज़ल ... सीधे शब्दों का जादू कमाल कर रहा है ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया नास्वा जी
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