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थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे
फिर तो चन्द लम्हे भी हो गये सदी जैसे
चाँदनी से तन पर यूँ खिल रही हरी साड़ी
बह रही हो सावन में दूध की नदी जैसे
राह-ए-दिल बड़ी मुश्किल तिस पे तेरा नाज़ुक दिल
बाँस के शिखर पर हो ओस की नमी जैसे
जान-ए-मन का हाल-ए-दिल यूँ सुना रही पायल
हौले हौले बजती हो कोई बाँसुरी जैसे
मूलभूत बल सारे एक हो गये तुझ में
पूर्ण हो गई तुझ तक आ के भौतिकी जैसे
ख़ुद में सोखकर तुझको यूँ हरा भरा हूँ मैं
पेड़ सोख लेता है रवि की रोशनी जैसे
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 24 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दिग्विजय जी
हटाएंबहुत बढ़िया गझल
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया श्याम जी
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ओंकार जी
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