खिसिया जाते, बात बात पर
दिखलाते ख़ंजर
पूँजी के बंदर
अभिनेता ही नायक है अब
और वही खलनायक
जनता के सारे सेवक हैं
पूँजी के अभिभावक
चमकीले पर्दे पर लगता
नाला भी सागर
सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें
वही खेल है मज़हब
बिक जाये जो, कालजयी है
उसका लेखक है रब
बिछड़ गये सूखी रोटी से
प्याज और अरहर
जीना है तो ताला मारो
कलम और जिह्वा पर
गली मुहल्ले साँड़ सूँघते
सब काग़ज़ सब अक्षर
पौध प्रेम की सूख गई है
नफ़रत से डरकर
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
दीप पर्व की शुभकामनाएँ ..आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 16 नवम्बबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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