बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२
हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है
जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है
जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है
जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है
वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 20 अक्टूबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंवो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जवाब देंहटाएंजो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है.
बहुत खूब सज्जन जी.
शुक्रिया रचना जी
हटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंआपकी 'न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है' ये नयी रचना बेहतरीन हैं.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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