पृष्ठ

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

ग़ज़ल : न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है

जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है

जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है

वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

लघुकथा : तालाब की मछलियाँ

इस बार गर्मियाँ तालाब का ढेर सारा पानी पी गईं। मछुआरे से बचते-बचाते धीरे-धीरे मछलियाँ बहुत चालाक हो गईं थीं। वो अब मछुआरे के झाँसे में नहीं आती थीं। उनके दाँत भी काफ़ी तेज़ हो गए थे। अगर कोई मछली कभी फँस भी गई तो जाल के तार काटकर निकल जाती थी। मछुआरे को पता चल गया था कि इस बार उसका पाला अलग तरह की मछलियों से पड़ा है। वो पानी कम होने का ही इंतज़ार कर रहा था।

उसने तालाब के एक कोने में बंसियाँ लगा दीं, दूसरी तरफ जाल लगा दिया और तीसरी तरफ से ख़ुद पानी में उतर कर शोर मचाने लगा। अब मछलियों के पास चौथी तरफ भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था। थोड़ी देर बाद जब मछुआरे को यकीन हो गया कि ज़्यादातर मछलियाँ भागकर चौथे कोने पर चली गई हैं तो वह तालाब के बाहर से चिकनी मिट्टी ला लाकर तालाब के चौथे किनारे को बाकी तालाब से अलग करती हुई मेंड़ बनाने लगा। मछलियाँ उसके इस अजीबोगरीब काम को हैरानी से देखने लगीं। उनमें से एक मछली जो बहुत बातूनी थी बोल पड़ी, “मछेरे, बरसात में तालाब का पानी बढ़ेगा तो तेरी मेंड़ बह जाएगी। क्यूँ बेकार का परिश्रम कर रहा है।”

मछेरा बोला, “मैंने अब तक खेतों में ही मेंड़ देखी है, मैं इस तालाब में मेंड़ बनाकर एक नया प्रयोग कर रहा हूँ।”

मछलियाँ मछेरे के पागलपन पर हँसने लगीं। मछेरा अपना काम करता रहा। जब खूब ऊँची मेंड़ बन गई तब उसने चौथे कोने का पानी तालाब में उलीचना शुरू किया। जब चौथे कोने में पानी काफ़ी कम हो गया तो मछलियों को साँस लेने में दिक्कत होने लगी। अब उन्हें मछेरे की चाल समझ में आई लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। मछेरा थक कर थोड़ी देर के लिए सुस्ताने बैठ गया। मछलियों ने उछल कर मेंड़ पार करने की कोशिश की मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।

थोड़ी देर बाद जब पानी में घुली ऑक्सीजन काफ़ी कम हो गई और मछलियाँ तड़पने लगीं तब उनमें से एक ने कहा, “मछेरे हमें इस कष्ट से मुक्ति दिला दे। हम तड़प तड़प कर नहीं मरना चाहतीं। हमें पानी से बाहर निकाल कर ज़ल्दी से मार दे।”

मछेरा मुस्कुराते हुए उठा और बोला, “तालाब की मछलियाँ कितनी भी चालाक क्यों न हो जायँ उनका मछेरे से बचना असंभव है।”