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शनिवार, 12 सितंबर 2015

कविता : राजधानी में ब्लैक होल

देशों की चमचमाती हुई राजधानियाँ
हर आकाशगंगा के केन्द्र में
बैठा हुआ एक ब्लैक होल

किसी गाँव के सूरज से करोड़ों गुना बड़ा
अपने आसपास मौजूद तारों को
अपने इशारों पर नचाता हुआ

उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है
फिर भी वो अपने चारों तरफ रचता है चमचमाता हुआ प्रभामंडल
उन तारों के प्रकाश को विकृत करके
जो उससे दूर, बहुत दूर होते हैं

ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता है
जिसके अनुसार किसी बंद व्यवस्था की सम्पूर्ण अराजकता
हमेशा बढ़ती है

ब्लैक होल
दुनिया की सबसे अराजक व्यवस्था है
फिर भी ये बाहर से देखने पर
ब्रह्मांड की सबसे शालीन व्यवस्था लगती है
क्योंकि इसे अपना बाहरी तापमान नियंत्रित रखना आता है

ये सूचनाएँ नष्ट तो नहीं कर सकता
लेकिन सूचना के अधिकार से प्राप्त सूचनाओं से
इसके भीतर की कोई भी जानकारी
बाहर नहीं आ सकती

लेकिन मैं निराश नहीं हूँ
मुझे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन
हम दिक्काल में सुरंगें बनाकर
इसके भीतर भरी जानकारियाँ
बाहर ले ही आएँगें
भले ही ऐसा होने पर
व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा जड़ से उखड़ जाय

अँधेरे में किया गया विश्वास भी
आख़िर अंधविश्वास ही होता है

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